आज छत पर
मंजू लोढ़ा
परेल मुंबई (महाराष्ट्र)
********************
आज छत पर खडी़ थी
आसमान की ओर
छोर की तरफ देख रही थी,
चारो तरफ रंग-बिरंगी पतंगे,
हवा में उड़ रही थी,
दूर-दूर तक आसमान
की ओर पेंगे बढा़ रही थी,
अडो़स-पडो़स की छतों पर लोग
हर्षोल्लास से पतंगें उडा़ रहे थे,
एक अद्भूत खुशी से उनके
चेहरे चमक रहें थे,
जो किसी और की
पतंग को काट गिराता,
उसका तो आनंद ही निराला था,
पर कुछ पलों में उसकी
स्वयं की पतंग कट जाती
तो वह खिन्न-मायुस हो जाता,
याने कुछ पल की खुशी,
कुछ पल का दुःख,
मैं सोच रही थी
कितना बडा़ है आसमान,
हर एक की अपनी पतंग,
अपनी डोर,
क्यों न सभी पतंगे
अपनी डोर के सहारे
आसमान में उड़ती जाये?
क्यों काटे हम
किसी ओर की पतंग?
क्यों उसका उल्लास मनाये?
हम काटेंगे फिर वह
हमारी पतंग काटेगा,
इससे क्या होगा लाभ
कितना अच्छा हो
सबकी पतंगे आसमान में
ऊँची और ऊँची उड़ती जाये,
सब शिखर पर पहुँचे,
सबके मन में एक द...