प्यार
अनिल कुमार मिश्र
राँची (झारखंड)
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खुले संदूक में
फरेबी रिश्तों का
झूठा प्यार
भर रखा है
मैंने
जो समय-असमय
मिलते रहे थे
ठगने के लिए
पूरी तरह से
ठगा गया था
मैं
इसलिए कि
भावना के वेग में
झट बह जाया करता था
मैं 'इस्तेमाल'होता रहा
उनके द्वारा
जिनका कोई
वजूद ही नहीं था
एक चेहरे पर
टिमटिमाते सौ-सौ चेहरे।
खुले संदूक में पड़े
नकली 'दुलार' को
कोई नहीं पूछता
चाहता हूँ उसे देकर
एक रोटी ले लूँ
कोई नहीं चाहता
वो स्वार्थ के
दलदल में धंसा प्यार
सब भाग जाते हैं
फिर बचता हूँ
मैं ही
अकेला
नक़ली प्यार पर
बिकता हुआ
लुटता हुआ सा
हाँ, मैं ही
सिर्फ मैं ही
लुटता हुआ,
बिकता हुआ सा
अपनों के हाथों।
परिचय :-अनिल कुमार मिश्र
शिक्षा : एम.ए अंग्रेज़ी, एम.ए संस्कृत, बी.एड
जन्म : ९/६/१९७५
निवासी : राँची, झारखंड
सम्प्रति : प्राचार्य, सी.बी.एस.ई. स्कूल
प्रकाशन : काव्य संकलन’अब दिल्ली में डर लगता है' (अमेज़न, फ्...