रिश्तों की राह
**********
संजय वर्मा "दॄष्टि"
जिंदगी की राह कुछ ऐसी ही होती
जब बेटी का विवाह हो नजदीक
पिता की आँखे डबडबाई रहती
मानों आसुंओं का बाँध टूट रहा हो
बचपन से पाला पोसा
वो अब घर छोड़ कर जाना होता है
ये नियम तो है ही
किंतु त्यौहार और घर का सूनापन
भर जाता आँसू
बेटी के न होने पर
परिवार का भूख उड़ जाती
बहुत कठिन रिश्ता होता है मध्यांतर का
पिता ही इस बात को समझता है
फिक्र अपनी जगह सही
मगर बिछोह उसकी नींद उडाता
ख्वाब तो रास्ता ही भूल जाते
दिल का टुकडा
उस समय
जिसकी कीमत नहीं
वो बिछड़ जाता है
ये विरहता कुछ सालों
तक ही अपना अभिनय निभाती
फिर भी बेटी तो बेटी है
पिता की याद उसे और
पिता को बिटियाँ
की फिक्र सताती
पिता के बीमार होने पर
बेटी ही संदेशा देकर हाल पूछती
फिर झूटी आवाज दोहराती
मै ठीक हूँ
तुम अपना ख्याल रखना
ये संवेदना बूढ़े होने तक चलती है
मायका मायका होता
स्वतंत्र तितल...