वो लड़की
धैर्यशील येवले
इंदौर (म.प्र.)
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ये कविता मैंने झाबुआ के राजनैतिक, सामाजिक, पृष्ठभूमि को केंद्र में रख लिखी है, वनवासी जनो के दोहन, शोषण, सरलता, सपने, कुरीतियों को शब्दों में पिरोया गया है, कृपया ध्यान से पढ़ कविता के मर्म महसूस करे, कविता की नायिका १६,१७ साल की नवोढ़ा है ...
टूटी हुई खपरैल की छत से
आती सूरज की रोशनी देख
पट रहित दरवाज़े से बाहर
आकर ,चारो तरफ देख
धूप अभी गर्म नही हुई
सोचती है, वो लड़की।
बदरंग होते मटके के पेंदे में
कपड़े की चिन्धी को ठूस छिद्र
बंद कर, हैंड पम्प के नीचे रख
बारम्बार हत्थे को चलाने पर
पानी की एक बूंद नही निकली
वोट मांगने वाले बाबा जैसे हो गया है
हैंड पंम्प जो बरसात में ही पानी देता है।
सोचती है वो लड़की।
तीन हफ्ते पश्चयात स्कूल में
मास्टरनी बाई आई थी
दलिया अच्छा बना था
उसमे तेल और गुड़ मिला होता
तो और मजा आता
सोचती है, वो लड़की।
कल गाँव मे ...