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पद्य

घर की छत
कविता

घर की छत

रोहित कुमार विश्नोई भीलवाड़ा, राजस्थान ******************** घर की छत आज भी पुराने दिनों को पुकारती है मुण्डेर पर रोज बैठ कागे का वो कांव-कांव करना, सारे पक्षियों के लिए सुबह रोज परिण्डे पानी के भरना। मक्का-बाजरे का छत की फर्श पर वो बिखरना, सैकड़ों कबूतरों के साथ दो-तीन तोतों का छत पर मस्ती से फिरना। गोरैयों की फौज की जगह एकदम साफ फर्श छत को संवारती है, घर की छत आज भी पुराने दिनों को पुकारती है।। परिचय :- रोहित कुमार विश्नोई स्नातकोत्तर - हिन्दी विषय (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा-उत्तीर्ण) स्नातक - कला संकाय (हिन्दी, इतिहास, राजनीतिक विज्ञान) स्नातक - अभियान्त्रिकि (यान्त्रिकि शाखा) निवासी - पुर, भीलवाड़ा, राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाश...
सीता बनना सौभाग्य कहां
कविता

सीता बनना सौभाग्य कहां

अर्पणा तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** सीता बनना सौभाग्य कहां अगणित तुमको शूल मिले, वनवासी तो राम रहे पर, तुमको भी कब फूल मिले .. आदर्श बनीं तुम जग में, पतिव्रत धर्म निभाया था, त्याग समर्पण का पथ तुमने, जग को दिखलाया था, जनक सुता होकर भी तुम, महलों में कब रुक पाई थी, आदर्शो की राह दिखाने, पुण्य धरा पर आई थी, राम प्रिया से मानव को, कितने जीवन मूल्य मिले, वनवासी तो राम रहे पर, तुमको भी कब फूल मिले... अग्नि परीक्षा देकर तुम, खुद को निर्दोष बताती हो, परीक्षा स्वीकार करे ना जग तो धरती बीच समाती हो, त्रेता युग की उस अग्नि परीक्षा को कलयुग में ऐसा मोड़ दिया, चरित्र शुद्धता से मानव ने, फिर उसको जोड़ दिया, राम के आदर्शो को भुला नर, नारी सीता तुल्य मिले, वनवासी तो राम रहे पर, तुमको भी कब फूल मिले.... माफ़ करो तुम जनक सुता, ये प्रश्न बड़ा बैचेन किए, अग्नि परीक्षा एक कसौटी हो, न...
स्वर्ग सी धरती
कविता

स्वर्ग सी धरती

डॉ. भवानी प्रधान रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** धरती ओढे हरियाली चुनर मनमोहक लगे सुन्दर अपार मंद-मंद मुस्कुराई धरा रंग बिरंगे फूलों की डाली वृक्षों का हो सघन विस्तार होले -होले चले शीतल बयार प्रकृति की सौंदर्य निखरे आज खिल उठे वन उपवन आज अलबेली अपनी वसुंधरा रानी सरसों फुले पीली धानी खेतों में लहराये फसलें सारी हरियाली प्रतिक खुशहाली का मद में भरकर झूम रही उपवन की डाली -डाली वृक्षों पर खग कलरव तान नाचे वन में मोर पंख पसार पीहू -पीहू पपीहा करें आज आम्र में कोयलिया कूक रहीं मृग विचारते मधुबन में आज सरिता की निर्मल जल धारा मेघ मिलाते धरती अम्बर कण-कण नव जीवन स्पंदित श्यामल तन पर सुमन सुगन्धित अलबेली अनुपम अतिसुन्दर लगती चराचर आनंद की अनुभूति पर्यावरण लगे सुरभित मनभावन धरा की मिट्टी हो उपजाऊ छलकाये प्रकृति प्रेम गगरिया जीव जगत में तब हो उजियारा . परिचय :- डॉ. भवानी प...
नि:शब्द
कविता

नि:शब्द

डॉ. यशुकृति हजारे भंडारा (महाराष्ट्र) ******************** मैं चल पड़ी हूँ उस पथ पर डगमगाते है पग मेरे निराशाओं में घिरते जाती, दु: ख और सुख की अनुभूतियों में मैं खो जाती हूँ निहारू निरंतर भावों को, शब्द न जाने कहाँ खो गये नि:शब्द हुई मेरी कवित। मैं हुई एकांकी प्यासे हुए मेरे भाव बंद कमरे में, जिंदगी ठहर सी गई। इंद्रधनुष के रंगों को देखकर मैं समेटना चाहती हूं सतरंगी इंद्रधनुष के रंगों को जीवन में ढालना चाहती हूंँ तुम्हारे ही रंग में रंगना चाहती हूं फिर भी भाव न बनते हृदय प्रफुल्लित होता निरंतर, खिल उठता रोम-रोम, फिर भी भाव न बनते। कल्पनाओं की उड़ान नहीं बनती, यथार्थ में जीने की आदत हो गई है धुंधले दिखाई देते हैं सब कल्पनाओं के चित्र, जिंदगी बदरंग सी हो गई है क्या उषा, क्या निशा, कल्पनाओं की उड़ान, अब तमस में सिमट कर रह गई है... परिचय :- डॉ. यशुकृति हजारे निवासी : भंडारा (महाराष्ट...
जीवन जीना एक कला है
कविता

जीवन जीना एक कला है

डाॅ. राज सेन भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** अनवरत पथ पे जो चला है। जीवन जीना एक कला है।। रास्ते हैं बाधा आएगी जरूर। रहे हर हाल में खुशी भरपूर।। हौसलों से हर संकट टला है। जीवन जीना एक कला है।। अच्छे के साथ अच्छा रहना। बुरे का भी हर बर्ताव सहना।। माफ करें जिसने भी छला है। जीवन जीना एक कला है।। जीवन नाटक हम कलाकार हैं। निभायें जो भी मिला किरदार है।। ना कोई बुरा ना कोई भला है। जीवन जीना एक कला है।। सबकी अपनी अपनी कहानी। कहीं आग है तो कहीं है पानी।। वक्त आने पे टलती हर बला है। जीवन जीना एक कला है।। 'राज' खुश रहकर चलता चल। दिव्य ज्योति बनकर सदा जल।। प्रभु-प्रेम की पलकों में पला है। जीवन जीना एक कला है।। परिचय : डाॅ. राज सेन शिक्षा : नेट, विद्यावाचस्पति, तीन भाषाओं सहित चार विषयों में स्नातकोत्तर, अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर पर संत काव्य की पवित्रता के पक्षधर, सम्प्रति :...
हाँ आग लग चुकी है
कविता

हाँ आग लग चुकी है

पवन मकवाना (हिन्दी रक्षक)  इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** हाँ आग लग चुकी है इक अंधे कुंए में .... करो जल्दी, और निकाल लो रखा था/जो कुछ सहेजकर/इस कुंए में कुंआ जिसमे कुछ ना देता/है दिखाई थी जिंदगी भर की कमाई, कुछ दुःख जो बांटे थे कभी/दोस्तों से अपने कुछ पुण्य जो कमाया था/दया करके किसी पर कुछ सुख जो पाया था/बनाकर किसी को अपना कुछ ग़म जो दिए थे/किसी ने सहेजकर रखने को हाँ जल्दी करो आग लग चुकी है .... और भी है बहुत कुछ इस अंधे कुंए में, अपनों का गुस्सा/माता की ममता/पिता का प्यार भाई बहनों का खार/दादी का दुलार जवानी का खुमार हाँ निकाल लो सब इससे पहले की सब ख़त्म हो जाए इस संसार के छल-कपट रूपी आग में मारा-मारी/जागीरदारी/और दमन में उन लोगों के जो किसी को पहचानते नहीं जिनका काम सिर्फ जान लेना/लूटना नोंचना है हाँ जल्दी करो आग लग चुकी है .... बचा लो अपनी उजड़ी यादें और अपना संसार इसके प...
इबादत
ग़ज़ल

इबादत

मधु टाक इंदौर मध्य प्रदेश ******************** तेरी खुशियों के हम तलबगार हो गये मुफ़लिसी में भी देखो खरीदार हो गये गुजरे जो कहीं से भी तू मेरे हमनवा चाँद सितारे देख खुद शर्मसार हो गये हवाओ ने जो की शरारत आँचल से जमी पर ही जन्नत के दीदार हो गये इश़्क जो इबादत है तो बंदिश कैसी क्यूँ हर कोई इश्क़ के पहरेदार हो गये छुड़ाकर जो दामन नजर से हो गये दूर हम अपनी ही वफाओ से बेकार हो गये सियासत में खेली मोहरे भी अजीब है कौम की ख़ातिर मासूम गद्दार हो गये उनके दिल में प्यार की शमा जली नहीं हम हैं कि आरज़ू की हदो से पार हो गये दिल के जज्बातों को लफ्जो की चाह नही हम उनकी खामोशी मे ही गिरफ्तार हो गये तेरी मोहब्बत में शबनमी आग सी है "मधु" करीब जो भी आये खुद ही अंगार हो गये परिचय :-  मधु टाक निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं ...
कोरोना वीरो को नमन
कविता

कोरोना वीरो को नमन

चन्द्रेश टेलर पुर (भीलवाडा़) राजस्थान  ******************** जहाँ गली गली चौराहो पर, घर के द्वारे द्वारे खड़ी आलिंगन करने को, मृत्यु का उत्सव मनाता है, वह भारत देश कहलाता है।। लड़ने को तैयार हर नागरिक, बनकर योद्धा देश का, इक्कीस दिन लॉकडाउन होकर, कोरोना को दूर भगाता है, वह भारत देश कहलाता है।। थाली बजाकर, नाद सुनाकर, हर घर की छत से, राष्ट्र के एक आह्वान मात्र से, कोरोना वीरो का सम्मान करके, नव उत्साह उमंग जगाता है, वह भारत देश कहलाता है।। पल पल संकट से जुझता देश, ना ही डरता ना ही घबराता है, निराशा के बादलो मे भी, जिस देश का हर नागरिक, आशा के दीप जलाता है, वह भारत देश कहलाता है वह भारत देश कहलाता है।। परिचय :- चन्द्रेश टेलर शिक्षा : एम.कॉम( लेखा शास्त्र), एम.ए (राजनीति विज्ञान) बी.एड सम्प्रति : व्याख्याता लेखाशास्त्र, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, कारोई (भीलवाडा़) राजस्थान निवासी : ...
बाल-श्रम
कविता

बाल-श्रम

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** मेहनत कर करता गुजारा। जीवन का कर्म एक सहारा। किस्मत ने किया जिसे वरण , बाल-श्रम की व्यथा मर्म-मर्म। हर कोई है दुत्कार जाता। कोई प्यार से कभी पास बुलाता। छोटे हाथों के बड़े कर्म, बाल-श्रम की व्यथा शर्म-शर्म। जीवन के संघर्ष से लड़ता। अपने फर्जो को पूरा करता। बचपन खेल के बस रहे भरम। बाल-श्रम उन्मूलन हो धर्म-धर्म। परिचय :- प्रीति शर्मा "असीम" निवासी - सोलन हिमाचल प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक करने के बाद हमे हमारे नंबर ९८२७३ ६०३६० पर सूचित अवश्य करें … और अ...
परम
कविता

परम

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** तप्त जीवन पर डाल कर तूने जल लेकर शरण मे अपनी पी लिया मेरा गरल मैं था व हूँ एकल तू ही समग्र तू ही सकल। सत्य और विश्वास पर तूने कहा चला चल पहले न था जीवन इतना पावन और निर्मल खिल उठा मन का कमल तू ही समग्र तू ही सकल। कण कण में दिखता है तेरा ही प्रतिबिंब देखु जो मन के दर्पण में दिखे तेरा ही बिंब जगत को कर दिया विमल तू ही समग्र तू ही सकल। नही रहा मन पर दुख चिंता का भार मुझ अकिंचन को सुख दे दिया अपार मन महकाये तेरा परिमल तू ही समग्र तू ही सकल। क्षमा, संयम के साथ है नूतन दृष्टी कर निर्मल, नभ थल जल है नूतन सृष्टी सब पर तेरा उपकार तू मंगल तू परोपकार तू आज तू कल तू कल का कल तू ही समग्र तू ही सकल। परिचय :- धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानपुर म. प्र. से सम्प्रति : १९८७ बैच के सीधी भर्ती के पुलिस उप न...
भोर
कविता

भोर

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** कालिमा गुम हो गई है आ गई है भोर देखो! लालिमा सूरज की भू पर छा गई हर ओर देखो! प्राकृतिक सौन्दर्य की गुंजित हैं मनमोही कथाएं चारू चलचित्रों से शोभित हो गया हर छोर देखो! गीत हैं विहगों के मुख पर या प्रशंसा ईश की नृत्यरत अब तो लगे है मनुज का मन मोर देखो! जागरण अभियान छेड़ा भास्कर की रश्मियों ने बिस्तरों पर हो गई है नींद अब कमज़ोर देखो! कर्म ने कर से मिलाए कर हुए सक्रिय तन अब शून्य गतिविधियों की मानो कट गई है डोर देखो! क्या पता किस ओर नीरव ने किया प्रस्थान गुपचुप हो रहे हैं अब धरा पर निनादित श्रम शोर देखो! ए 'रशीद' आओ तुम्हारा कर्म भी प्रारंभ हो अब चेतना संग चपलता का आ गया है दौर देखो! . परिचय -  रशीद अहमद शेख 'रशीद' साहित्यिक उपनाम ~ ‘रशीद’ जन्मतिथि~ ०१/०४/१९५१ जन्म स्थान ~ महू ज़िला इन्दौर (म•प्र•) भाषा ज्ञान ~ हिन्दी, अंग्रेज़ी...
मन सभी का
कविता

मन सभी का

डॉ. बी.के. दीक्षित इंदौर (म.प्र.) ******************** मन सभी का... लंबी सज़ा पा गया। ज़माना कहाँ था......कहाँ आ गया। जो दिखता नहीं, अजब दुश्मन हुआ। काम आती न मन्नत.....न कोई दुआ। बंद भगवान हैं,.....क़ैद पूरा जहां। वो कण कण में है तो..जाएं कहाँ। मास्क मुँह पर लगा, न चेहरा दिखे। पुलिस भी नहीं,......पर पहरा दिखे। इस चमन में आकर दिल भर गया। दुष्ट कोरोना क्या से क्या कर गया। पाव भाजी जलेबी..... न पोहे बिके। चाट चौपाटी चौपट... न कोई दिखे। चटोरा शहर, पर स्वाद फ़ीका लगे। घर में राशन भरा... मन रीता दिखे। बाहर निकला है बिजू,अच्छा लगा। प्रकृति प्रीति का साथ सच्चा लगा।   परिचय :- डॉ. बी.के. दीक्षित (बिजू) आपका मूल निवास फ़र्रुख़ाबाद उ.प्र. है आपकी शिक्षा कानपुर में ग्रहण की व् आप गत ३६ वर्ष से इंदौर में निवास कर रहे हैं आप मंचीय कवि, लेखक, अधिमान्य पत्रकार और संभावना क्लब के अध्यक्ष हैं, मह...
भूल गया मैं ज़िन्दगी को
कविता

भूल गया मैं ज़िन्दगी को

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** जीवन के करुण कथानक का प्रकाशन नहीं चाहता हूँ, पर क्या करूँ?? पैबन्दों के उजागर होने से ऐसा करने पर मजबूर हूँ। जन्म कहानी का कहूँ या कविता के छंद का। सिलसिला ऐसा ही है हर एक पैबन्द को। पैबन्दों का हर टाँका जीवित करता जाता है, जैसे पात्रों का खाका। इसलिये बहुत बेफ़िक्री से फटे भागों को सी रहा हूँ। पैबन्दों को ही जी रहा हूँ। पैबन्द दंभ से इतराकर, रह रह मुझको चिढ़ा रहा है। मेरी हर पहचान मिटाता, अपना कद वह बढ़ा रहा है। कई रंगों के पैबन्द देखकर दुनिया मुझे रंगीला कहती है मगर मैं तो कब से कहता ही यही हूँ रंगीन होकर भी मैं रंगीला नहीं हूँ। चीथड़ों पर टिकी हैं सभी की निगाहें, इनसे ही रिश्ता कुछ ऐसे जुड़ा है। भूल गया मैं ज़िन्दगी को, पैबन्दों को जी रहा हूँ ! पैबन्दों को जी रहा हूँ ! . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक...
प्रदूषण हमने फैलाई
कविता

प्रदूषण हमने फैलाई

श्रीमती राखी टी सिंह मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** कहीं पे कचरा फेंका कही पे वृक्षों की की अंधाधुन्द कटाई हे मानव तूने कहें ये मौत का है खेल रचाई आस-पास जीवन के अपने तूने क्यो इतनी बिमारी है फैलाई सौ बीमारी के इस कारण को तूने है प्रदूषण के अंश से जन्माई एक बार कभी तुमने सोचा इससे क्या तूने पाया है माल क्यों ना सोचा मौत का अपने तूने ही रचा ये सब है जाल पर्यावरण का जीवन में तू बोल कैसे करेगा भरपाई तेरे कारण तेरे बच्चों के कल पर कही ना शामत है आजाई सोच जरा क्या बचा है तेरे पास धरनी कहती क्या जीवन में तेरे हाथ तेरे बैल का बैल तो गया हाथ नौ हाथ पगहा तूने गवाया उसीके साथ परिचय :-श्रीमती राखी टी सिंह निवासी : मुंबई महाराष्ट्र आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानिय...
महामारी
कविता

महामारी

मो. नाज़िम नई देहली (सुल्तानपुर) ******************** वाबा.....! झिझक भी निकलेगी, मन के दरवाजों से। इंसान भी निकलेगा अपने मकानों से कुछ डर है जो बरकरार बना हुआ है। तुच्छ वाबा ने नाक में दम करा हुआ है अब चीटियों की चाल जब चलने लगा है इंसान निकलता है घर से डर डरा के जब भूख से मरने लगा है।। दरवाजे कपाट सब हाथ रोककर खुले हैं, जो समझते हैं, बुद्धिजीवी खुद को सियासत की चाटुकारिता से भारे है।। मस्जिदों में इबादत, गंगा घाट की भजन संध्या दोनों में... भक्तों का मेला ईका दुका.. बारिश की बूंदों की तरह लगने लगा है, इंसान परेशान है वाबा से, अपने आराध्यओ के सामने फिर झुकने लगा।। भले ही राहत मिली हो, पर संख्या बढ़ी है। छूने से डरता हूं अपनों को हर तरफ वाबा जो पड़ी है। मेरे परिचय में, ना किसी ने कांधा दिया है ना दफनाया गया है। रो तो रहे हैं, अश्कों को बहा कर... पर नज़रों में गिरे पिछड़े लोगों ने कंधा ...
स्पर्श
कविता

स्पर्श

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** जब तेरे हाथो का स्पर्श मिला... नयना बिन सावन बरस गये... बरसा मेह झमाझम पर... लव पानी को तरस गये.... सन्ध्या के आबारा मौसम मे... पल पल यह नयना लरज गये.... कितनी पीडा है इस जीवन मे.... पल भर चैना को तरस गये.... सावन बरसा जब, मयूरा नाच उठा वन मे.... मन मयूरा के थिरके कदम, फिर ठिठक गये... परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपन...
मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं
कविता

मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं

दीपक कानोड़िया इंदौर मध्य प्रदेश ******************** मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे, तुम भय खाते हो ? तुम हो मानव बलशाली क्यों मुझको पीठ दिखाते हो ? जिस आरी से छलनी करते हो वृक्षों को, नदियों को | भवन बनाते हो वन में, अब लाज कॅंहा आती तुमको ? गज का वध करके भी अब तुम, हाथी दांत दिखाते हो। मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे, तुम भय खाते हो ? छोड़ कहां रक्खा है तुमने धरती का बस एक कोना ? बीज ज़हर का बोकर कैसे धरती उगलेगी सोना ? ख़ुद का कचरा मुझको देकर नज़रें क्यों चुराते हो ? मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे, तुम भय खाते हो ? जो सुनामी के जाने पर फिर से नगर बसाओगे क्या फिर तुम कुछ पेड़ों को, कुछ नदियों को बचाओगे ? दलदल जंगल वापस करके मुझ पर जो दया बरसाते हो मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे तुम भय खाते हो ? तुम हो मानव बलशाली क्यों मुझको पीठ दिखाते हो ? मैं निसर्ग नैस...
रोटी से पटरी तक
कविता

रोटी से पटरी तक

आदर्श उपाध्याय अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश ******************** रोटी के लिए ही जन्म पाया रोटी को ही जीवन भर कमाय। वो घड़ी आ गई थी जब , रोटी को छोड़ मौत ने बुलाया। रोटी से रेल की पटरी तक क्या सारा प्रबंधन ही जर्जर है ? आ गई थी यह कैसी घड़ी मौत का ये कैसा मंजर है ? जिसने रोटी के लिए तड़प कर इस पटरी को देश , जनता और सरकारों के लिए बनाया है। इसी पटरी ने उन्हें आज मौत की गोद में सुलाया है । धिक्कार है ऐसी सत्ता पर जो मजदूरों को उनके घर न पहुँचा सकी, उनकी मौत के बाद ही केवल तमाम सबूतों और गवाहों में जुटी। ए खुदा , तेरी यह कैसी खुदाई है किस फैसले की सजा तुमने उन्हें सुनाई है ? फटे किसी के सिर और कटे किसी के हाथ परिवार और जिंदगी से छोटा सबका साथ। क्या खता थी उनकी जिसने शैशव भी नहीं देखा था ? माँ के दूध और आँचल को ठीक से नहीं निरेखा था। पत्नी के हाथ में हाथ धरे तुम मृत्यु की गोद में चले गए क्यों ...
हुनर रखता हूँ
कविता

हुनर रखता हूँ

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** हंसते हंसाते गंभीर होने का हुनर रखता हूँ मसखरे से पलभर में कबीर होने का हुनर रखता हूँ! साधारण कपड़े,लंबी दाढ़ी,लंबी चोटी रखकर सभी को दंडवत होके नजीर होने का हुनर रखता हूँ! दुख दर्द समेटे श्रोता आते हैं सुनने सदा हमको सबको हंसाकर यार मैं फकीर होने का हुनर रखता हूँ! काम कुछ ऐसा करने की कोशिश करता हूँ मैं सभी लकीरों से बड़ी लकीर होने का हुनर रखता हूँ! माँ शारदा भवानी के आशीर्वाद से ही निर्मल मैं भी तो किसी की तकदीर होने का हुनर रखता हूँ! परिचय :- कवि आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक पहुँचा दीय...
एक मजदूर की जुबानी
कविता

एक मजदूर की जुबानी

यशवंती तिवारी देवगढ़ जिला राजसमंद ******************** बना मजदूरों की बेबसी को बातो का हथियार नेताजी बस कर रहे है एक दूजे पर वार मै मिलो तक पैदल चला चप्पले घिसी,छाले हुए पर उफ्फ न निकला बाहर वो चन्द बसे लगाकर देखो जता रहे उपकार नेताजी बस कर रहे है एक दूजे पर वार नन्हें बच्चे भूख से बिलखे तपती सड़को पर पाँव है झुलसे वो दो दो केले दे कर देखों फ़ोटो खींचा रहे दस बार नेताजी बस कर रहे एक दूजे पर वार गर्भ में पल रहे नन्हे के संग रह रह कर थक जाती माँ कर रही मीलो का सफर वो झूठा दिखावा,दिलासा दे कर जैसे बन रहे तारणहार नेताजी बस कर रहे एक दुजे पर वार निकला जितनो के संग कुछ कट गए, कुछ मिट गए कुछ भूख प्यास कुछ गर्मी से वो मौत के संग चले गए बेबस आंखों में अश्रुधार रह गया मै बस निहार नेताजी बस कर रहे एक दुजे पर वार वो बना कठपुतली हमको चाहे जैसे हमे नचाकर राजनीति के मंच से देखो बन रहे है सूत्रधार नेताजी...
याद रहेगा
गीत

याद रहेगा

डॉ. कामता नाथ सिंह बेवल, रायबरेली ******************** शहरों से लौट रहा गांव, सदियों तक याद रहेगा।। अनगिनती युद्ध लड़े, जीते हैं, जीतेंगे, दुर्दिन के लाखों पल बीते हैं, बीतेंगे; कौन साथ रहा, कौन खेल गया दांव, सदियों तक याद रहेगा।। छिपे हुए, ममता के आंचल के नीचे से, बरगद-से बापू के होंठ कसे,भींचे-से; डंडे सहते देखे, उन्हें ठांव-ठांव, सदियों तक याद रहेगा।। पीड़ित मानवता को क्रूर दम्भ पीट गया, निर्मोही सत्ता का नशा आज जीत गया, अपनेपन की आंखें नोंचता दुराव, सदियों तक याद रहेगा।। जब भी, जिस शासन से जनता यह त्रस्त हुई, रावणी प्रचण्डशक्ति, विद्वत्ता अस्त हुई; सत्ताधीशों का यह कुटिल भेदभाव , सदियों तक याद रहेगा।। शहरों से लौट रहा गांव, सदियों तक याद रहेगा।। . परिचय :- डॉ. कामता नाथ सिंह पिता : स्व. दुर्गा बख़्श सिंह निवासी : बेवल, रायबरेली यह मेरी स्वरचित, मौलिक और अप्रकाशित रचना ...
तू ही
कविता

तू ही

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हाँ ! तू है बसी, अंतर्मन की गहराईयों में, श्वेत-धवल-पारदर्शी, पावन रुप में... हाँ, तू ही है, आत्मा स्वरूप धारण कर, छेड़ देती मन के तार, दैवीय राग मे... हाँ ! वो तू ही है, भटकता, ढूंढता जिसे, अंधेरो के पार बसती हैं, रब स्वरुप में... हाँ! तु ही तो है, "मैं" को तज "हम" में समाई, प्रकाशपुंज सदृश्य, सत्य मूर्त रुप मे... हाँ! तेरा ये तेज मुझे, बाँधता हैं माया इंद्रजाल में, विलीन हो जाता, मैं ! नीर सम "निर्मल" रूह रँग में..... . परिचय :- निर्मल कुमार पीरिया शिक्षा : बी.एस. एम्.ए सम्प्रति : मैनेजर कमर्शियल व्हीकल लि. निवासी : इंदौर, (म.प्र.) शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मं...
लाडो
कविता

लाडो

तेज कुमार सिंह परिहार सरिया जिला सतना म.प्र ******************** निंचि निंचि पयजन बोले झंझनाय लाग अंगना बिजुरी कस लाग चमकै किलकारी से अंगना मनवा भा मयूर मोर झुमय लाग अंगना समय सुदिनि आयो ता महकि गयो अंगना लक्ष्मी कस मूरति लखि मात पित मेछराय लाग अंगना बिटिया के आवत ही माँ बनी बिटिया बिटिया से बिटिया का मेर मेर नाता पैदाइश बिटिया के खुलय लाग रिस्तन के खाता पिता के मान घर के सम्मान सृष्टि कै आधार आय बिटिया तीज अऊ त्यौहार कै शोभा आय बिटिया दुनिया कै हर क्षेत्र मा लाडो तोर प्रभाव एक नही दुइ घरन के ताक्यो लाडो लाज एक तरफ मा बाप है दूजै सासुर द्वार पै बेटी तू हैधन्य मधु रस बहै फुहार परिचय :- तेज कुमार सिंह परिहार पिता : स्व. श्री चंद्रपाल सिंह निवासी : सरिया जिला सतना म.प्र. शिक्षा : एम ए हिंदी जन्म तिथि : ०२ जनवरी १९६९ जन्मस्थान : पटकापुर जिला उन्नाव उ.प्र. आप भी अपनी ...
अनिश्चित हूं
कविता

अनिश्चित हूं

मानसी भाटी राजगढ (चुरू) ******************** अनिश्चित हूं अपरिमित हूं.. कभी शून्य सी कभी गर्वित हूं.. कभी व्याकुल हूं कभी पुलकित हूं.. कभी विस्तृत हूं कभी सीमित हूं.. किन्तु फिर भी क्या जीवित हूं? कभी कुण्ठित मैं कभी विलगित हूं.. कभी तृप्ति कभी पिपासित हूं.. कभी यौवन हूं कभी बचपन हूं.. कभी शीतल सुखद सुगंधित हूं.. यूँ सब के लिए समर्पित हूं.. किन्तु फिर भी क्या जीवित हूं? कभी वंचित मैं कभी सिंचित हूं.. हूं वर्णन फिर भी किंचित हूं.. कभी समुचित कभी विभाजित हूं.. कभी नैतिक कभी दुस्साहित हूं.. हूं जटिल ज़रा पर सरल भी हूं.. किन्तु फिर भी क्या जीवित हूं? है जीजिविषाएं मेरी भी.. कुछ अभिलाषाएं मेरी भी.. परिकल्पित हूं आकारित हूं.. मेरे स्वप्न हैं जिनसे उद्धृत हूं.. कुछ चिंतित हूं.. हाँ विचलित हूं.. किन्तु फिर भी यूँ जीवित हूं.. किन्तु फिर भी यूँ जीवित हूं.. परिचय...
सई मानौ
ग़ज़ल

सई मानौ

प्रेम प्रकाश चौबे "प्रेम" विदिशा म.प्र. ******************** सई मानौ भौतई तंगी है। बड़ी मुसीबत आन पड़ी है। दादा की बरसी करने है, दादी सोइ बीमार डरी है। मुन्ना बे-रुजगार फिरइ रये, मोड़ी भी हो गई बड़ी है। घरवारी भी परेसान है, गुस्से में कुछ भी बकती है। दुश्मन पै भी न गुजरै बा, जौन दसा, हम पै गुजरी है। "प्रेम" बड़े मुश्किल दिन देखे, ऐसी बिपदा नही सही है। . परिचय :-  प्रेम प्रकाश चौबे साहित्यिक उपनाम - "प्रेम" पिता का नाम - स्व. श्री बृज भूषण चौबे जन्म -  ४ अक्टूबर १९६४ जन्म स्थान - कुरवाई जिला विदिशा म.प्र. शिक्षा - एम.ए. (संस्कृत) बी.यु., भोपाल प्रकाशित पुस्तकें - १ - "पूछा बिटिया ने" आस्था प्रकाशन, भोपाल  २ - "ढाई आखर प्रेम के" रजनी  प्रकाशन, दिल्ली से अन्य प्रकाशन - अक्षर शिल्पी, झुनझुना, समग्र दृष्टि, बुंदेली बसन्त, अभिनव प्रयास, समाज कल्याण व मकरन्द आद...