आशा का परचम
बबिता सिंह
हाजीपुर वैशाली (बिहार)
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सूर्य क्षितिज पर होता ओझल
संध्या तुझे बुलाने को
निशा हुई स्वप्निल लोरित
उषा नागरी भी विह्वल है
आशा का परचम लहराया।
बहता सलिल समीर सदा से
अनल जले आघातों से
गति द्रव तेज सहे निर्झरिणी
आकुल जलद का अंतर भी है
आशा का परचम लहराया।
नभ भी उतर-उतर शिखरों पर
अवलोकित करते दृग दर्पण
गिरि का गौरव गाते झरने
परिवर्तन हो रूप प्रकृति का
आशा का परचम लहराया।
आँचल में भू के है गंगा
मोती की लड़ियों सी बहती
जलद-यान में विचर के पावस
नव किसलय पर स्नेह वार कर
आशा का परचम लहराया।
धूप-छाँह के रंग की किरणें
पवन ऊर्मियों से लहराती
हरित वर्णी पीपल छाया
सोन खगों को सौंप के काया
आशा का परचम लहराया।
जीवन उन्नति के सब साधन
फिर मानव क्यों करता क्रंदन?
क्या जीवन की यही परिभाषा
बोल पड़ी है मूक निराशा
आशा का परचम लहराया।
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