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लघुकथा

सोच
लघुकथा

सोच

श्रीमती अंजू निगम जाखन, (देहरादून) ******************** मन में प्रचंड उथल-पुथल मची हैं। ऑफिस के माहौल में राजनीति पैठ रही हैं। इसी मनोदशा में, अंधेरे से घिरते कमरे में वह अपने बिस्तर में औधें मुँह पड़ी थी। दीदी ने आकर केवल उसका हाल-चल ही तो लेना चाहा था। पर नेहा को यह दीदी की, अपने जीवन में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी लगी और उसने बड़े-छोटे का लिहाज छोड़ दी को खुब खरी-खोटी सुना दी। तबसे दोनो के बीच अबोला ठना था। आज नेहा जब इसी मनोस्थिति में घी दानी में घी उलीचने लगी तो काफी घी बाहर फैल गया। उसे ध्यान आया कि दीदी हमेशा कहती कि घी या तेल उलीचते समय नीचे परात लगा लिया करो ताकि घी स्लैब में न फैले और परात में सिमटा रहे। उस दिन अगर वो भी अपने बहते मन के नीचे सब्र की परात लगा लेती..... . परिचय :- श्रीमती अंजू निगम जन्म : २० अगस्त १९६८ निवासी : जाखन, देहरादून आप भी अपनी कविताएं, कहानिया...
पलायन
लघुकथा

पलायन

डॉ. अलका पांडेय मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** आज दसवाँ दिन था किरण के कारख़ाने को बंद हुऐ, लाकडाऊन के कारण कारख़ाने के कारीगर भी बहुत परेशान थे किरण ने सबको बहुत समझाय बहार कोई व्यवस्था नहीं है, तुम लोगों को यही रहना है तभी कोरोना से बच पाओगें गाँव जाओगें भी कैसे कोई साधन नहीं तुम लोग ज़ब तक यहाँ रहोगे मेरी जवाब दारी है खाना वग़ैरा देने की एक बार बहार गये मेरी कोई जवाबदारी नहीं मेरी बात समझ में आई..... पर कोई सुन नहीं रहा था दो घंटे मिटींग लेकर सबको सेनेटाईज मास्क देकर सारे निर्देश अच्छे से समझा कर बस घर आकर बैठी ही थी कि कारख़ाने से फ़ोन आता है मेडम छ: लोग भाग गये जो पलायन कर गये उन्हें जाने दो पर तुम लोग बहार, मत जाना और वो लोग आये तो अब वापस नहीं लेना क्योंकि तुम्हें भी बिमार पड़ने का ख़तरा हो सकता है, ठीक है मेमसाहेब, किरण ने नौकरानी को आवाज़ दी बेटा चाय पिला कितना समझा कर ...
भयंकर बाढ़
लघुकथा

भयंकर बाढ़

विनोद वर्मा 'दुर्गेश' तोशाम (हरियाणा) ******************** रात भर लगातार मूसलाधार बारिश हो रही थी। गाँव और शहर भयंकर बाढ़ की चपेट में आ चुके थे। चारों ओर पानी ही पानी का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। गाँव के गाँव बाढ़ की भेंट चढ़ चुके थे। असंख्य मवेशी और पंछी भी बाढ़ के पानी में बह गए थे। रघु काका गाँव से दूर उजड़ी बस्ती में एक ऊँचे टीले पर बनी अपनी झोपड़ी में अकेले ही थे। बाढ़ का पानी वहाँ तक नहीं पहुँच पाया था। परंतु बारिश के कारण उसकी झोपड़ी से पानी टपक-टपक कर गिर रहा था। रघु काका चिंतित मुद्रा में कभी चारपाई को इस ओर करते तो कभी उस ओर। ऊपर से मच्छरों की भिनभिनाहट ने जीना मुहाल कर दिया था। एक तो पानी टपकने से झोपड़ी में तालाब का साम्राज्य स्थापित हो चुका था वहीं दूसरी ओर रात भर सो न पाने के कारण रघु काका की आंखें लाल हो गया थी। चूल्हे में पानी भर जाने के कारण रोटी बनाने के लाले भी पड़ गए...
विशाल रोटी
लघुकथा

विशाल रोटी

डॉ. अलका पांडेय मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मोहन आज बहुत थक गया मानिक रुप से भी व शारीरिक रुप से भी ! बॉस तो ऐसे काम कराता है की कई बार मन करता है नौकरी छोड़ के भाग जाऊ पर मजबूरी है दो “रोटी “कमाने तो यहाँ पर आया है ! घर की हालत बहुत ही ख़राब, घर गिरवी रखा है, मेरी पढ़ाई के लिये बाबू जी ने वह छूडाना है सबसे पहले, फिर छोटी बहन कंचन की शादी करनी है, माँ बाबू जी को सुख व ख़ुशियाँ तो दू ! पर यह बाँस लहू निचोड़ लेता है अपमानित करता है जो अलग, यही विचार उसके मन में उथल पुथल मचा रहे थे, की राकेश आ गया पीट पर धौल जमा बोला क्या हुआ, मोहन बाँस ने कुछ कह दिया क्या अरे छोड़ उसको चल कैंटीन में चल चाय पीते है, मोहन बोला मुझसे मेहनत चाहे जितनी करा लो पर साला अपमान बर्दाश्त नहीं होता मेरी मजबूरी न होती तो कब का लात मार नौकरी को चला जाता ! राकेश ने कहाँ मोहन तु यहाँ रोटी कमाने आया है, बोल हाँ...
कबाड़
लघुकथा

कबाड़

डॉ. ज्योति मिश्रा बिलासपुर (छत्तीसग़ढ) ******************** "कबाड़....शर्माजी बेहद खुश थे उनके पैर मानो जमीन पर ही नही टिक रहे हो ..और हो भी कयो नही उनके इकलौते बेटे रमेश का सीधे अफसर की पोस्ट पर सिलेक्शन जो हुआ था नया घर मिला वो भी हाईफाई सोसायटी मे थ्री बीएचके वरना अब तक तो शर्माजी किराए के मकान मे धक्के खा रहे थे ऐसा नही की उन्होंने कभी अपना मकान नही बनाया था ... बनाया था मगर बेटे रमेश को बडा अफसर बनाने मे उसकी अच्छी पढाई और जरुरतों के लिए बेच दिया तमाम संघर्ष किए इस बीच पत्नी का साथ भी छुट गया मगर हिम्मत नही हारी और बुढापे मे गार्ड की नौकरी भी की ...जिसकी बदौलत आज उनका सपना पूरा हो रहा था बहु और दो मजदूरों सहित पूरे घर मे समान बखूबी जमा दिया सचमुच घर एक मंदिर की तरह लग रहा था आखिर थ्री बीएचके मे से एक कमरा उनके लिए भी था दोपहर को रमेश आफिस से लंच करने के लिए घर लौटा तो घर को करीने स...
चिंकी का खत
लघुकथा

चिंकी का खत

रश्मि श्रीवास्तव “सुकून” पदमनाभपुर दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** चिंकी बड़ी ही तन्मयता से कुछ लिख रही थी, जैसे ही पापा को अपने कमरे की तरफ आते देखा, अनायास ही उसके हाथ रुक गए जैसे किसी ने उसकी चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा हो और कॉपी अपने पीछे छुपा कर खड़ी तो गई। पापा ने पूछा- क्या बात है बेटा तुम इतना घबरा क्यूँ रही हो? चिंकी ने रूआँसे होते हुए कहा कुछ नही, पापा बस यूंही ... कह कर दौड़ कर चली गई। पापा को चिंकी की हरकत कुछ संदेहास्पद लगी। बात आई गई हो गई। रात को सोने के लिए अपने रूम मे जाते वक़्त अचानक फिर उस घटना की याद आ गई और पापा के मन में उधेड़ बुन शुरू हो गया की आखिर चिंकी ऐसा क्या लिख रही थी जो उनके आते ही सिहर उठी और घबरा गई। कहीं ऐसी वैसी बात तो नही, यह सब सोंचते सोंचते बरामदे में टहलने लगे, टहलते हुए उनकी नज़र चिंकी पर पड़ी जो गहरी नींद सो चुकी थी, चिंकी के रूम में जाकर पापा ने वह...
अन्न का हर कण
लघुकथा

अन्न का हर कण

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** माँ! "आप दादा दादी को भर पेट खाना क्यों नही देती?" "किसने कहा तुमसे?" दादा ने कि दादी ने " "किसी ने भी नही" तो? "मैं और भैया रोज देखते हैं, दोनों खाना के बाद थाली में बचा एक-एक कण अँगुली से चाट चाट कर खा लेते हैं। हम दोनों को लगता कि उनका पेट नहीं भरता?" मैंने देखा कि लाकडाऊन के कारण घर में विराजमान पति देव बच्चों की बात सुनकर मन्द मन्द मुस्कुरा रहे हैं, उन्हे देखकर मै हँसपड़ी। हँसते हुए मैंने दोनों बच्चों को अपनी बाहों में भर लिया और प्यार से समझाया- "दादा दादी पुराने जमाने के हैं, जो भगवान् के द्वारा दी गई हर वस्तु का ध्यानपूर्वक उपभोग करते हैं, किसी भी चीज की बर्बादी तो बिलकुल भी नहीं। रही अन्न की बात, हर दिन के भोजन को भगवान का प्रसाद समझकर वे भोजन करते हैं। उनका मूल मंत्र है आनंद का हर क्षण और अन्न का हर कण कभी भी नहीं छो...
मन की बात
लघुकथा

मन की बात

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** एक बार दाँतों और जबान में फालतू की बहस छिड़ गई। जबान बोली- "कितने दिनों से बाहर का खाना नहीं टेस्ट किया।" दाँत ने होशियारी दिखाई बोला क्या बेवकूफ की तरह बात करती हो? सरकार ने लॉक डॉउन यूँ ही लगाया है क्या? मूर्ख कहीं की! दाढ़ बोली- "तुम बहुत ज्यादा पटर-पटर करने लगी हो, इतनी हलचल अच्छी नहीं। मालूम है ना तुम एक हो और हम बत्तीस हैं। "जबान तुनककर बोली- "मुझ पर रौब जमाने की जरूरत नहीं अपने काम से काम रखों समझे!" सामने के दाँत ने गुस्से से कहा- "बाहर मत आना नहीं तो सामने से कट जाओगी तुम समझी! अब जबान से रहा नहीं गया वो भी गुस्से में बोली- "एक बार गलत चल गई ना तो ऐसा घूँसा पड़ेगा कि सब बाहर आ जाओगे। "इस बहस को बढ़ते देख मन चिंतित हो उठा।उसने होंठ को प्रेरणा दी। होंठ बोल पड़े- "अरे भाई सब शांत हो जाओ, कुछ भी करोगे तो नुकसान सबका एक समान ही ह...
पापा जिंदा है
लघुकथा

पापा जिंदा है

अर्पणा तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) पांच साल की नन्हीं मासूम गुड़िया की समझ में नहीं आ रहा था कि, पापा के आने की चिट्ठी पढ कर तो दादी और मां दोनों मिलकर पापा की पसंद के पकवान बनाती थीं, फिर आज पापा के आने की चिट्ठी पर घर में सब क्यों रो रहे है? आखिर दादी के पास जाकर गुड़िया ने अपना प्रश्न दादी से पूछा, दादी गुड़िया को सीने से लगाकर फफक फफक कर रोने लगी, गुड़िया मेरी बच्ची तेरे पापा देश की सेवा करते हुए शहीद हो गए है। तुझ पर से पिता साया हट गया है मेरी बिटिया, तेरे पापा अब इस दुनियां में नहीं रहे बेटी, दादी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, लेकिन दादी पापा ने तो मुझसे कहा था कि जो देश की सेवा में शहीद होते है, वे हमेशा जिन्दा रहते है, देश की हवाओं में, देश की मिट्टी में और देशव...
पछ्तावा और सीख
लघुकथा

पछ्तावा और सीख

कंचन प्रभा दरभंगा (बिहार) ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) मेरी सहेली गितिका अपने यादों में खोई छत की मुंडेर पर बैठी थी अचानक मुझे वहां देख कर चौंक गई। मैनें पुछा 'क्या हुआ गितिका तुम चौंक क्यो गई' और मैनें उसकी आँखो में आंसु देखे। फिर से उसे अपनी जिन्दगी के वो मनहूस पल याद आ रहे थे जब उसके अनुसार उसके जीवन का अन्त हो गया था शायद इस लिये उसके आँखो में आंशु दिख रहे थे। गितिका मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती थी। काफी बाचाल थी हमेशा हँसते रहना उसकी पहचान थी। कॉलेज में भी वो सबकी चहेती थी। उसके इसी हंसमुख स्वभाव के कारण कॉलेज का एक लड़का मयंक उसे चाहने लगा। कॉलेज खत्म हो गई दोनों अपने अपने घरवालों से बात की और हाँ हो गई। दोनों के परिवार बहुत अच्छे थे। काफी धूम-धाम से दोनो की शादी हो गई। नये घर मे जा कर गितिका काफी ...
पछतावा
लघुकथा

पछतावा

मनोरमा जोशी इंदौर म.प्र. ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) आज अमन बहुत खुश है, माँ को पहली नौकरी की खबर देता है। माँ आशीर्वाद देते अतीत में खो गई। वह हृदय विदारक घटना जब पिता देव का दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो गया। कैसे ! अमन को बीमार पड़ने पर रात में अकेली हॉस्पिटल लेकर दौड़ती, कैसे! स्कूल लेने छोड़ने...और ना जाने क्या-क्या याद आने लगा। माँ क्या सोचने लगी? कुछ नहीं बेटा जब तू तीन साल का था तब से आज तक....हाँ माँ कैसे सिलाई में दिनभर भीड़ी रहती हो, पर अब मत सोचो ये सब अब! कुछ समय बीता अमन को विदेश भेज जाना पड़ा, केरल के मूल निवासी थे, समय-परिस्थितियों ने यही का रख छोड़ा था। माँ-बेटे का कोई अपना ना था, बेटा माँ को एक वर्ष का वादा कर वृद्धाश्रम में छोड़कर चला गया।दो वर्ष बीत गए, शुरू में अमन का फोन आता था, अब वो ...
दर्द लघुकथा
लघुकथा

दर्द लघुकथा

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** मुन्नी चलो, रमा सब सामान रख लो। राजू को गोदी में बारी-बारी से उठा लेंगे। मुन्नी ने कहा, कहां चले बापू ? रमेश ने कहा, हम अब यहां नहीं रहेंगे। इस शहर ने हमें दिया ही क्या है ? १० वर्ष हो गये, हम यहां कमाने खाने के लिए अपने गांव से शहर "मुंबई "आए थे। इन १० वर्षों में मेहनत और परिश्रम किया भवन का निर्माण किया। कभी गुंबद पर चढ़कर, कभी मंदिर के नींव में दबकर, लेकिन लॉक डाउन में जब लोगों की बारी आई तब हमारा ख्याल रखने को कोई नहीं आया। सबने हाथ झटक दिए। तीन दिनों से हम भूखे और प्यासे हैं। कोई पानी तक को पूछने नहीं आया। सेठ ने हमें नौकरी से निकाल दिया। अब क्या करें? तो हमें हमारा गांव ही दिखाई दे रहा है। धीरे से रमा ने कहां, लेकिन हम गांव जाएंगे कैसे? ट्रेन, बस तो चल नहीं रही है। रमेश ने जवाब दिया, अभी हमारे हाथ पैर सही सलामत हैं। हम पैद...
इंसान
लघुकथा

इंसान

नीलेश व्यास इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** ”यहाँ कोई इंसान नही है ? .....यहाँ कोई मेरा अपना नही है ?” यह दारुण शब्द उन माताजी के थे, जो कोरोना का ईलाज सफलता पुर्वक होने पर आज ही जब अपने घर पहुँची थी, तब एक ओर उनके तीन पुत्रों मेे से बड़े दो की पत्नियों ओर बच्चों के द्वारा माताजी को अपने साथ रखना तो दूर, उनके पास जाने तक के लिये स्पष्ट रुप से इंकार कर दिये जाने के आदेश के कारण दोनो पुत्र गरदन झुकाये खड़े थे, वहीं दूसरी ओर माताजी की ममता ओर क्रोध दोनों बरस रहे थे किन्तु बेबस माताजी अब कर भी क्या सकती थी, उसी समय माताजी के सबसे छोटे ओर उस ”नालायक” पुत्र का, जिसने अन्य जाति की लड़की से प्रेम-विवाह किया था ओर इस विवाह के कारण माताजी एवं उनके दोनो बड़े पुत्रों ने उसे घर से बाहर कर दिया था, का अपनी पत्नी के साथ माताजी को देखने के लिये आगमन हुआ ओर उन द...
सिस्‍टम
लघुकथा

सिस्‍टम

रामनारायण सुनगरिया भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) ******************** सत्रह साल बाद। मोटे कॉंच के द्वार को पुश करता हुआ बैंक में प्रवेश करता हूँ, तो ऑंखें चौंधिया जाती हैं। सारा नज़ारा ही अत्‍याधुनिक हो चुका है। सबके सब अलग-अलग पारदर्शी केबिन में अपने-अपने कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर नज़रें गढ़ाये तल्‍लीनता पूर्वक व्‍यस्‍त हैं। किसी को किसी से कोई वास्‍ता नहीं। ऐसा लगता है बैंक की सम्‍पूर्ण कार्यप्रणाली स्‍वचलित हो गई है। कोई-कोई काम मेन्‍युअल हो रहे हैं। वह भी पूर्ण शॉंतिपूर्वक। मैंने प्रत्‍येक यंत्रवत् व्‍यक्ति को गौर से देखा—एक भी परिचित नहीं। सभी युवा एवं सुसम्‍पन्‍न लगते हैं। मेरी खौजी नज़रें एक केबिन पर चिपके चमचमाते नेम प्‍लेट पर पड़ी—हॉं यही है चीफ मैनेजर सभ्‍य, सौम्‍य व आत्‍मविश्‍वासी प्रतीत होता है। मैंने अपनी एप्‍लीकेशन को खोलकर पुन: पड़ा कहीं कोई कुछ छूट तो नहीं गया। सारान्‍स ब...
शर्म
लघुकथा

शर्म

श्रीमती आभा बघेल रायपुर, छत्तीसगढ़ ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) "तुम्हें भोजन का पैकेट चाहिए क्या?" एक आवाज़ आई। रघु ने आवाज़ की ओर देखा लेकिन कुछ बोला नहीं। फिर किसी ने पूछा, "भोजन का पैकेट चाहिए क्या तुम्हें?" रघु ने शर्म भरी आवाज़ में कहा "साहब, चाहिए तो है। चार लोगों का परिवार है मेरा। घर में बच्चे खाने के लिए मेरा रास्ता देख रहे होंगे।" "तो फिर ये नखरा क्यों?"- किसी दूसरे व्यक्ति ने कहा। "साहब ! मैं मेहनत करने वाला आदमी हूँ। किसी के सामने हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता।ये तो मेरा बुरा वक्त है जो आज मेरी ये हालत है।" रघु ने उदास स्वर में कहा। "सब पता है हमें। अपने घर में भले ही ढेर लगा होगा, लेकिन फिर भी यहाँ माँगने आ जाते हैं लोग।" एक व्यंग्य भरी आवाज़ आई। "मैं उनलोगों में नहीं हूँ साहब!" रघु की आवाज़ थोड़ी ते...
राहत की एक सांस
लघुकथा

राहत की एक सांस

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** लगातार तीसरे वर्ष जब वर्षा तो कम थी पर बिजली का चमकना,बदल का गरजना, बारिश का गुस्सा खा-खाकर बरसना और थोड़ी देर में सब शांत हो जाना। प्रकृति का ऐसा रूप कभी नहीं देखा था, वो भी भादौ माह में!आठ दिन से बारिश बन्द थी। "अरे! ये क्या? कितने खतरनाक बदल घिर आये। अंधेरा हो गया। मीरा बोली। उसकी सखि स्कूल से घर के लिए निकलने को अपना समान सम्हाले बोली- "अभी तो चार ही बजे है, देखो बिजली और बदल कैसे गुस्से में है? जोरदार बिजली कड़की मीरा ने दोनों हाथों से कान बन्द कर लिए। छुट्टी के बाद स्कूल पूरा खाली हो चुका था, टीचर्स बस में बैठे, बस चल पड़ी। साथ ही वर्षा का रौद्र रूप पूरे रास्ते देखा, पच्चीस मिनिट में नाले पूर आ गए, सड़को पर तेजी दे पानी चढ़ गया। मोबाइल की घण्टी बजी- "हेलो बेटा, मीरा के बेटे का फोन था। मैं बस दस मिनिट में अपने घर के स्टॉप पर पहु...
जुर्म
लघुकथा

जुर्म

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) अदालत लगी थी...कटघरे में खडी थी माँ, आरोप था कि 'उसने ले ली है अपने दो बच्चों की जान'। करती भी क्या ? काम न मिलने पर घर में ही फाँसी का फंदा लगा अबोध बच्चों के साथ कष्टों से मुक्ति पा जाना चाहती थी। यहाँ भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा, जाने कैसे बच गई। आत्महत्या और हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा सुना दी गई। घर, अदालत और जेल सभी की दीवारें मौन थी। सजा पूरी होने पर बाहर आई भी तो वहाँ भी मौन बाँह पसारे खड़ा था.. बदला कुछ भी नहीं बल्कि पहले से और अधिक भयानक हो गया था। मन में भय और सवालिया निशान लिये वो बोझिल कदमों से चली जा रही थी कि कहीं कोई फिर से जुर्म न कर बैठे। . परिचय :- किरण बाला पिता - श्री हेम राज पति - ठाकुर अशोक कुमार सिंह निवासी - ढकौली ज़ीरकपुर (पंजाब) शिक्षा - बी. एफ. ए., एम. ए. (पेंटिं...
कड़वे अंगूर
लघुकथा

कड़वे अंगूर

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजिट अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) कोरोना के चलते अभी-अभी लॉक डाउन खुला ही था कि एक फेरी वाला अपनी ठेला गाड़ी लेकर फल बेचने निकला। उसे रोकते हुए मैंने आवाज लगाई भइया अंगूर है क्या? मुंह पर मास्क लगाए, हाथो में दस्ताने पहने फेरी वाला बोला हां है बाबू जी। मै उसकी ठेला गाड़ी के करीब पहुंचा ही था कि उसने झट से सेनिटाइजर की बॉटल आगे करते हुए मेरे हाथ धुलवाकर बोला अब आप अंगूर आपकी पसंद से छांट लो। मीठे तो है ना, मेरे सवाल के जवाब में वह बोला आप अंगूर धो के चख लो बाबूजी। ठीक है भाई, क्या भाव लगाओगे। ₹ ३५ के एक किलो वो बोला। ₹३५ देकर ठीक है एक किलो दे दो भाई। अंगूर लेकर मैंने श्रीमती को दिए, उसने अंगूर लेकर धो कर फ्रिज में रख दिए। दोपहर में जब थोड़े अंगूर खाने के लिए फ्रिज से निकाले, श्रीमती ने अंगूर का पहला दाना खाते ही, ये क्या ? कड़वे अंगूर ...
नैसर्गिक सुख
लघुकथा

नैसर्गिक सुख

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) ‘’कल्‍लो....कल्‍लो...।‘’ चिल्‍लाते-चिल्‍लाते, मेरी पत्नि धड़धड़ाते हुई, मेरे पास आकर पूछने लगी, ‘’कहॉं है कल्‍लो!ˆ मेरे उत्‍तर की परवाह किये बिना वह घर में ही भड़-भड़ाकर ढूँढने लगी, ‘’किधर हो कल्लो-कल्‍लो!’’’ ‘’...यहाँ हूँ... मेम साब!’’ करता हुआ काम छोड़कर ‘’ हाँ मेम साब...? ‘’मेरे लिये दूघ गरम कर के, लाओ।‘’ आदेशात्‍मक लहजे में, ‘’बैडरूम में हूँ।‘’ ‘’पहले डिनर लगाऊँ; मेमसाब ?’’ ‘’नहीं! पार्टी में खा चुकी हूँ।‘’ कुछ नरम होकर कहा, ‘’बहुत नींद आ रही है, जल्‍दी ला।‘’ .....ये है, श्ष्टिाचारी, संस्‍कारी, सम्‍पन्‍न, सम्‍पूर्ण अर्धान्‍गिनी! ....मैंने पैग भरा। बैठ गया खिड़की खोलकर। आज कुछ ठण्‍डक है। शायद वर्षा होने वाली है। बाहर देखा, पानी गिरने लगा। थोड़ी देर में जोर की बरसात होने लगी। सामने बीरान खण्‍डहर पड़ी...
मानवता
लघुकथा

मानवता

उस समय की बात है जब संदीप ओर उसके दोस्त गुजराती कार्मस महाविधालय इन्दौर में वर्ष २००६ में बी.कॉम द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत थे, संदीप ओर साथी दोस्त अधीकतर रेल परिवहन से देवास से इन्दौर अध्ययन हेतु प्रतिदीन आना जाना किया करते थे, उनको घर से कभी जरुरत पड़ने व नाशते पर खर्च हेतु ३० रु. दीये जाते थे। महाविधालय में परीक्षा के नामांकन प्रपत्र जमा होने के कारण रेल अपने नियत समय से स्टेशन से निकल चुकी थी, व दूसरी रेल २ घण्टे बाद चलने वाली थी, संदीप ओर उसके दोस्तों द्वारा बस परिवाहन से इन्दौर से देवास जाने का निश्चय किया, बस में पुरी सीट भर जाने के कारण खड़े खड़े जाना पड़ा, जहॉ संदीप खड़े थे उसके समीप वाली सीट पर एक बुजुर्ग बैठे थे, मुख पर निराशा के भाव व चिंता की लकीर अलग ही प्रतीत हो रही थी। बस अपने गंतव्य स्थान देवास के लिये निकल गई, करीब १०-१२ किलोमीटर के सफर तय करने के बाद बस कंडक्टर का बस किरा...
नया ठिकाना
लघुकथा

नया ठिकाना

आज सुबह से बच्चे के जोर-जोर से रोने की आवाज से मीरा बहुत बेचैन थी आखिर बाहर आकर देखा। नए मकान के चौकीदार की झोपड़ी के बाहर टूटी खटिया पर उसका ९ वर्षीय बेटा गब्बू बिलख-बिलख कर रो रहा था। क्यों गब्बू इतनी जोर-जोर से क्यों रो रहे हो? कब से रोए जा रहे हो, क्या हुआ? गब्बू और जोर से क्रंदन करने लगा। उसके माता-पिता अपना बोरिया-बिस्तर बांधने में भिड़े हुए थे। माँ बोली- "का करे मैडमजी इहा अब मजूरी नाही सो गाँव जा रहे हैं। ई गब्बू कहत है इस्कूल जावेगा, गाँव मे पड़ई छूट जावेगी देख लेव कईसा रो रवा है। मीरा बोली - "तो मत जाओ ना! कुछ समय की बात है सब ठीक हो जायेगा। इतने में पिता झुंझलाया- "पेट की आग नाही रुक सके है बेनजी। मीरा बोली- "पर बच्चा कब से रो रहा है मुझे घबराहट होने लगी तुम पिता होकर.....इत्ताई घबराट है तो रख लेव इका। पढ़ाया करियो। मूक होकर मीरा घर मे चली गई। पेपर पढ़ रहे पति को दुखी होकर सब बात बता...
हम सबका भला होगा
लघुकथा

हम सबका भला होगा

डॉ. अपराजिता सुजॉय नंदी रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** आज सुबह ही खबर मिला कि रमा की मौसी अब नहीं रही। मां के जाने के बाद रमा के लिए एक मौसी ही तो थी उसकी पूरी दुनिया, उसके अलावा रमा के पास था ही कौन। रमा का तो रो-रो कर बुरा हाल हो गया। खबर मिलते ही सीमा भी पहुंची, जाकर देखी कि लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। एक ओर कुछ लोग दुखी भाव से कह रहे थे कि रमा की मौसी को हार्टअटैक आया था, घर में तनाव भी था, बीपी का दवाई भी तो लेती थी। तो दूसरी ओर कुछ लोग अर्थी सजाने की तैयारी में थे, वहां एक पंडित भी अर्थी के पास खड़े होकर कुछ समझा-बुझा रहा था। एक और पंडित पंचांग निकालकर कुछ देख रहा था गणना कर रहा था। पैर के पास परिवार के कुछ लोग बैठे थे। पंडित जी ने कहा मौसी को कोई दोष लगा है जो घर के लिए अपशगुन होगा। इससे बचने के लिए पूजा-अर्चना करवानी पड़ेगी करीब ११००० रुपए तो दक्षिणा ही होगी। पूज...
आधुनिकता
लघुकथा

आधुनिकता

ममता रथ निवासी : रायपुर ******************** सीमा का मन आज बहुत उदास है, पति राजेश के बार-बार समझाने पर भी वो समझ नही रही की उसकी इकलौती बेटी उसे तुक्ष्छ मानती है । आज सीमा की बेटी मिताली के दोस्त घर आए थे। सीमा के व्यवस्थित घर व खाने की सभी ने खूब तारीफ की, सीमा ने भी कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी ,पर बात जब अंग्रेजी भाषा बोलने की आई तो सीमा मात खा गई। दोस्तों के जाते ही मिताली मां पर बरस पड़ी, पता नहीं आज के ज़माने में आप जैसे पिछड़े लोग कहा से आ गए हैं, मेरे दोस्त क्या सोच रहे होंगे। मन्नतो के बाद मिली बेटी पर नये जमाने का रंग चढ़ गया था। रात कटनी थी कट गई। मिताली अपने विश्वविद्यालय जल्दी चली गईं, सीमा भी काम में व्यस्त हो गई। मीताली कल की बात से दुखी हो सभी से नजरें चुरा रही थी। आज विश्वविद्यालय में बहुत भीड़ थी, आज कवि सम्मेलन था। सभी मंच के पास पहुंच गए। मंच पर अपनी मां को देख कर मिताल...
नदी
लघुकथा

नदी

रंजना फतेपुरकर इंदौर (म.प्र.) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में पंचम विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा गुनगुनाती, छलछलाती नदी की अथाह जलराशि की एक-एक बूंद उमंग से थिरक रही थी। नदी की धाराओं में संगीत और नृत्य का अद्भुत मेल था। सागर में अपना अस्तित्व विलीन करने की सुखद अनुभूति से वह अभिभूत थी। कभी वह किनारे के सुगंधित, रंगबिरंगे पुष्पों की कोमल पंखुरियों को और कभी विशाल वृक्षों से लिपटी लताओं को अपनी फुहारों से भिगो रही थी। प्राची की अरुणिमा ने अपने प्रतिबिम्ब से जैसे नव-वधु सी नदी को लाल चूनर ओढ़ा दी थी। आज नदी सारी बाधाओं को पार कर अपने आराध्य प्रियतम, सागर से मिलना चाहती थी।कभी इस मोड़ पर झूमती, कभी उस मोड़ पर नाचती नदी बही जा रही थी। लेकिन नदी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, उसकी काया क्षीण होने लगी। नदी की धड़कनों की गति धीमी होने...
घर वापसी
लघुकथा

घर वापसी

जितेन्द्र गुप्ता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में चतुर्थ विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा "अरे चलो, चलो जल्दी!" हंसते खिलखिलाते वे किशोर फटाफट अपने बेग्स लेकर उस एसी बस में चढ़ने लगे! सबके सब दुसरे स्टेट के रहने वाले थे और पढ़ाई के लिए इस शहर में रह रहे थे मगर महामारी के कारण लगे लॉक डॉउन में फंस गये थे। इनकी सुरक्षित घर वापसी हेतु एसी बसें लगाई गई थी। उनको रास्ते में खाने हेतु लंच पैकेट और पानी बोतलें भी थी। सभी हंसते, बतियाते, जा रहे थे। "अरे, देखो, देखो जरा!" सुमित ने जोर से कहा। पचासों पुरूष, महिलाएं सामान उठाये और बच्चों को गोद में या कंधे पर बैठाये सड़क किनारे-किनारे चले जा रहे थे। पसीने से लथपथ, थके-थके...। "बेचारे......." उनमें से एक किशोर अकड़ से बोला, "अरे मेरे पापा ने तो अपनी युनियन के द्वारा एड़ी च...