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उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था  भाग – ०६
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग – ०६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** रात आठ बजे से कर्फ्यू फिर से लगने वाला था। सब अपने अपने घरों की ओर जल्दी ही निकले गए। सांझ की दिया बाती भी हो गयी। सब का खाना भी हो गया। माँ को होश आया ही नहीं था। सब काम निपटा कर नानी कमरे में आयी। काकी तो मुझे लेकर ही बैठी थी। उनका क्या, वह थी गंगाभागीरथी (विधवा-केश वपन किये हुई)। एक ही समय खाना खाती थी। रात को कुछ भी नहीं लेती थी। नानी आकर माँ के सिरहाने बैठ गयी। माँ की हालत देख रह रह कर नानी की आँखे भर आ रही थी। काकी नानी से बोली, 'आवडे, ऐसी खामोश क्यों है तू?' 'माँ मुझे खूब रोने की इच्छा हो रही है।' 'फिर जी भर के रो ले। आ, मेरे पास में आ कर बैठ। मुझे तेरे मन की हालत समझ रही है। तुझे तेरी बिटिया की चिंता है पर मुझसे भी तो अपनी बिटियाँ की हालत नहीं देखी जाती। तू बता मै क्या करू? और रो कर क्या होगा?' 'क्यों क्या हुआ?' नानी ने प...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०५
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०५

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** एक दिन का मै... मुझे कहाँ से होगी रिश्तों की पहचान? वो तो धीरे-धीरे ही होगी। मुझे भी और आपको भी। रामाचार्य वैद्यजी कह रहे थे कि मेरा नसीब उन्हें नहीं मालूम। लेकिन रिश्ते जुड़ते है तो नसीब भी जुड़ ही जाते है न? अब ये बात मेरे जैसे एक दिन के बालक को आपको अलग से बताने की जरुरत है क्या? परन्तु फिर भी सब कहते है कि हर एक का नसीब अलग अलग होता है। यह कैसे हो सकता है। मै तो इतना ही जानता हूँ कि फिलहाल मेरी माँ के साथ मेरा नसीब जुडा हुआ है। एक दिन का मै, मेरी जन्मदात्री माँ ने तो अभी जी भर के मुझे देखा ही नहीं है। मुझे उसके आंचल की छाँव तक नहीं मिली, नाही माँ ने मुझे अपने सीने से लगाया। नाही मैंने माँ का दूध पिया है। सच तो यह है कि मेरा जन्म यह ख़ुशी की सौगात है। पर नसीब देखिये, सब माँ के स्वास्थ के कारण चिंतित है। सबकी ख़ुशी जाने कहाँ खो गयी है। क...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग-०४
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग-०४

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** रात्री के सात बजे मेरे नानाजी दाई को बुलाने जो घर के बाहर निकले, वे परिवार में सबका खाना निपटने के बाद भी वापस नहीं लौटे थेI बाद में सबके सोने का भी समय हो गया और सब सोने भी चले गए, तब तक भी नानाजी का कही पता नहीं था। नानी जरुर खूब परेशान और चिंतित हो गयी। नींद का तो सवाल ही नहीं था। मेरी माँ के पास बैठे उसे लगातार धीरज दिए जा रही थी। शायद अब शीघ्र ही सबसे मेरी मुलाकात का समय हो चला था। माँ का दर्द असहनीय हो चला था। वेदनाएं अलग थी। इधर नानाजी का पता ही नहीं था, इसलिए दुर्गाबाई दाई की भी किसी को खबर नहीं थी। माँ तो रोने ही लगी। "अक्का …। धीरज रख। मै माई को बुला कर लाती हूं। "इतना कह कर नानी कमरे के बाहर गयी। अब माई का परिचय भी आपको करवाना ही चाहिए। माई मतलब मेरी माँ की सौतेली दादी। सखारामपंत की दूसरी पत्नी गोपिकाबाई। मेरी नानी की सास।...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग -०३
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग -०३

लेखक विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** रिश्ते आदमी को जन्म से ही अपने आप मिल जाते है। भले ही रिश्तों का कोई आकार प्रकार ना हो, परन्तु रिश्ते धीरे-धीरे अपने आप जुड़ते जाते है और श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैI अटूट बंधनों में बंध जाते हैं। कुछ रिश्ते अचानक कोई लॉटरी खुल जाए ऐसे भाग्योदय जैसे उस लॉटरी में खुले इनाम की तरह मिल जाते है। जैसे परिवार में किसी की शादी तय होती है और वरमाला पड़ते ही अचानक कई सारे रिश्ते जुड़ जाते है। कुछ रिश्ते पुष्प जैसे होते है, खिलते जाते है, बहार लाते रहते है, महकते जाते है और हमेशा खुशबूं ही बिखेरते रहते है। गुलाब की पंखुड़ियों में अक्षरों से लिपट जाते है। कुछ रिश्ते पत्थर जैसे जडवत रहते है। अक्षरशः गले में पत्थरों की माला जैसे बोझा बन लटकते रहते है और उन्हें जबरन ढोते रहना पड़ता है। कुछ रिश्ते मन में चिडचिडाहट पैदा करने जैसे होते है। बिलकुल हैरान परे...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग ०२
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग ०२

वरिष्ठ साहित्यकार भारत सासणे पुणे ****************** प्रस्तावना विश्वनाथ शिरढ़ोणकर द्वारा लिखित उनका नया मराठी उपन्यास 'मी होतो मी नव्हतो' (मैं था मैं नहीं था) अनघा प्रकाशन ठाणे, द्वारा प्रकाशित किए जाने पर मुझे प्रसन्नता है। कथानायक अपने बचपन की सहेजी हुई यादें अलगद बता रहा है। उसका बचपन सुखावह, आनंदी और स्मरणीय रहा हो ऐसा भी नहीं है। परन्तु ये यादें दु:खद है ऐसा भी नहीं है। छोटे बच्चों की नजरों से गुजरा हुआ भूतकाल वर्णन करने की शैली, इसके पूर्व भी कुछ मराठी के उपन्यासों में भले ही हमारे पढने में आयी हो फिर भी विश्वनाथ शिरढोणकरजी ने इस वर्णन के लिए बिलकुल सबसे अलग ऐसा एक नया प्रयोग किया है। उनका बाल कथानायक, 'जैसे जैसे उसको याद आ रहा है' वैसे वह सब बता तो रहा ही है परन्तु, उसके गुजरे हुए भूतकाल को समझ कर उस गुजरे जमाने को आज के परिवेश में निवेदन कर प्रस्तुत कर रहा है। उसक...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग-०१
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग-०१

वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यकांत नागर इंदौर म.प्र. ****************** प्रस्तावना विश्वनाथ शिरढोणकर एक सुपरिचित रचनाधर्मी हैं। मराठी साहित्य-जगत में तो यह एक जाना पहचाना नाम हैं ही, हिंदी का पाठक भी उनसे अपरिचित नहीं हैं। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में उनके पत्र, लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित होती रही हैं। उनका संवेदनशील मन और पारखी नजर अपने परिवेश को अलग अंदाज से देखती, परखती और विश्लेषित करती हैं। उनमें सोचने-विचारने की प्रवृत्ति बचपन से ही हैं जो समय के साथ विकसित होती गई। बचपन में उन्हें अनेक विपरीत और विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा इसलिए बाल्य-काल की मीठी-कड़वी यादें उनके ज़ेहन में बहुत गहरे तक जड़ें जमाए हुए हैं। शिरढोणकरजी द्वारा रचित उपन्यास 'मैं था मैं नहीं था' ऐसी ही स्मृतियों का वृहद कोष है। उपन्यास का मूल मराठी संस्करण वर्ष २०१६ में प्रकाशित हो चुका हैं और उसे महाराष्ट्र में अच्छा प...