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गद्य

स्वास्थ्य के प्रति हम कितने सजग
आलेख

स्वास्थ्य के प्रति हम कितने सजग

अमिता मराठे इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** "मानव प्राणी का स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है" देह की सुरक्षा एक प्रमुख कर्तव्य है। देही का सुरक्षा कवच है। सदा स्मृति में रहे कि मैं देही इस काया रुपी मंदिर में विराजमान हूं। शरीर के शीर्ष स्थान पर दोनों भृकुटी के बीच अकाल तख्त पर बैठी हूं। शरीर के समस्त कर्म इन्द्रियों की राजा हूं। "जब आत्मा स्वस्थ हैं तब तन पर शासन भी स्वस्थ होगा।" हमारा प्रश्न है हम स्वास्थ्य के प्रति कितने सजग है तो समझना होगा "स्वास्थ्य ही शारीरिक, मानसिक, सामाजिक कल्याण की स्थिति है। "क्योंकि मुझे उसमें रहना है। लेकिन वातावरण परिस्थितियां, परम्पराएं बहुत तेजी से बदल रही है। जो स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। लेकिन बाल, युवा वृध्द प्रदूषित वायुमंडल से गहराई से प्रभावित हो रहा है। वह भूल चुका है कि मैं कौन, कहां से आती हूं, क्या करना है। अज्ञान अंधेरे में भटकते स...
वो लड़की
लघुकथा

वो लड़की

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** थोड़ा ध्यान पढ़ाई पर भी दिया करो हर थोड़ी देर मैं कक्षा के बाहर जाने का बहाना बनाती रहती हो। पढ़ना लिखना कब सीखोगी? कभी-कभी गुस्से में और ना जाने क्या-क्या कह जाती। शायद उसे पढ़ाई में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी इसलिए वह कभी मेरी स्नेह पात्र नहीं रही। पर उसे तो जैसे मेरी किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उस दिन मुझे सुबह से ही सिर दर्द और बुखार सा महसूस हो रहा था कक्षा में भी अनमने ढंग से कुछ पढ़ाई कराई फिर ज्यादा तबीयत खराब होने लगी तो सर टेबल पर टिका दिया। बच्चे चिंतित होने लगे क्या हुआ मैम ..क्या हुआ.....? कर-कर के फिर अपनी बात और अपने काम में लग गए। भोजन अवकाश में मैं अपने ऑफिस में आकर बैठ गई तो फिर वही लड़की आई मैंने थोड़ा चिढ़कर कहा अब क्या है? खाना खा लो और हम लोगों को भी यहां चैन से बैठने दो। उसने थोड़ा सकुचाते हुए अपन...
कहानी नदियों की
कहानी

कहानी नदियों की

सरला मेहता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** परिवेश के साथ प्रकृति की प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन सम्भव है। होली हो गई रेन डांस व बसन्त पंचमी अब है वेलेंटाइन डे तो नदियाँ अपनी जीवन शैली क्यूँ न बदले भला। डिजिटल दुनिया तो नदियाँ भला कैसे पीछे रहती। वर्तमान आभासी संसार की देखा-देखी नदी परिवार की मुखिया माँ गंगा ने एक कॉन्फ्रेंस काल मीट में आदेश निकाल दिया, "सभी नदियाँ अपनी खुशियाँ व गम परस्पर साँझा किया करें। जब तक समस्याएँ पता नही होगी, समाधान कैसे ढूंढेंगे ?" माँ नर्मदे तो मानो भरी हुई बैठी थी। क्या क्या बताए? अतीत की भयावह स्मृतियाँ भुला नहीं पा रही हैं। यदा कदा चट्टानों में विचरती ताप्ती को दिल का हाल सुना देती हैं, "बहना, तुम जानती हो मुझमें आने वाली उफ़नती बाड़ों को। उन विकराल लहरों को याद कर मेरी रूह काँप जाती है। होशंगाबाद जैसे कई इलाकों में घरों की छतों तक पानी पहु...
ये दाग़ कौन धोएगा…?
आलेख

ये दाग़ कौन धोएगा…?

माधवी तारे लंदन ******************** लंदन में यहां की संसद में राहुल गांधी का वक्तव्य सुन कर मन द्रवित हो गया। आज तक कितनी बार मैं यहां आई हूं पर ऐसा अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ। भारत के लोकतंत्र का चीरहरण और खासकर देश के प्रधानमंत्री की बुराइयां, बीबीसी जैसे ख्यात न्यूज चैनल पर सुनकर मुझे गुस्सा आया। परदेश की सर जमीं, जहां पर अपने ही देश का मूल निवासी जो उच्च पद पर आसीन है, उनके सम्मुख देश के लिये अपमानजनक शब्दों को सुन कर गुस्सा नहीं आएगा क्या? परदेश में अपने देश की बुराई सुनकर मैं शर्मसार हो गई। गुस्से में मैंने मेरे बेटे को टीवी बंद करने को कह दिया। एक साधारण सा सांसद, जिनके पूर्वजों ने ७० साल तक इस देश की बागडोर संभाली और अनिर्बंध रूप से शासन चलाया। उनके एक शख्स का देश के प्रजातंत्र पर कुठाराघात करते हुए आलोचना करना, हमारे जैसे भारतीयों की नाक कटवाने जैसा है। वर्तमान में अपना सर उ...
सबरस समाहित अद्वितीय कृति है ‘निहारिका’
पुस्तक समीक्षा

सबरस समाहित अद्वितीय कृति है ‘निहारिका’

  पुस्तक का नाम- निहारिका समीक्षक- आशीष तिवारी "निर्मल" रचनाकार- कवि उपेन्द्र द्विवेदी रूक्मेय प्रकाशक- विधा प्रकाशन उत्तराखंड कीमत- २२५ कवि सम्मेलन यात्रा से मैं लौटकर रीवा पहुंचा ही था कि देश के तटस्थ रचनाकार कवि उपेन्द्र द्विवेदी जी का फोन आया कि अल्प प्रवास पर रीवा आया हूं शीघ्र ही राजस्थान निकलना है। मैं बिना समय गवाएं उपेन्द्र जी से मिलने पहुंचा तो एक गर्मजोशी भरी मुलाकात के बाद उन्होंन अपनी एक अद्वितीय व दूसरी कृति 'निहारिका' मुझे भेंट की। इसके पहले मैं उनकी एक राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कृति राष्ट्र चिंतन पढ़ चुका था। अत: दूसरी कृति पाकर मन प्रसन्न हो गया। उपेन्द्र जी एक संवेदनशील कवि हैं। वे सबरस कविता और गद्य लेखन दोनों में सामर्थ्य के साथ अपनी रचनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। कवि उपेन्द्र द्विवेदी काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं। दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ...
मेरी पहली पदयात्रा
यात्रा वृतांत

मेरी पहली पदयात्रा

आयुषी दाधीच भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** आज तो पुरे परिवार का शाम का भोजन मौसी के घर पर था। सभी एकत्रित हुए मिल-जुल कर भोजन किया और हम सब बाते करने लगे तभी अचानक मेरी माँ ने कहा कि गढ़बोर चारभुजा की पैदल यात्रा करनी है, तो वहा चले क्या तो सभी ने एक बार तो हाँ कर दी। सभी यात्रा की योजना बनाने लगे कि सुबह कितनी बजे निकलना है कैसे क्या करना है, यहाँ से कितना दूर है। सब कुछ जैसे ही तय हुआ की एक-एक करके ना जाने के कुछ बहाने बनाने लगे। ये सब कुछ दो घण्टे तक ऐसे ही चलता रहा कोई चलने के लिए हाँ करता तो कोई ना करता, समय बितता गया और वापस सभी अपने घर जाने लगे। सभी ने एक दूसरे को शुभ रात्रि कहा और तभी मेरी भाभी ने कहा कि आपके भैया ने हाँ कर दी तो मै चलने के लिए तैयार हूँ, फिर कुल मिलाकर हम पाँच ने हाँ की जाने के लिए। घर पर आए तब तक रात के दस बज गये थे, फिर थोड़ी देर बाद हमने जो व्हा...
अनासक्ति भाव
आलेख

अनासक्ति भाव

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** केशव स्वयं अनासक्ति के प्रतीक हैं। प्रेमघट भरा रहा, किंतु त्यागा वृंदावन तो पीछे मुड़ कर न देखा। अंदर तक भर गया था प्रेम तो बाहर क्या देखते। हम सांसारिक प्राणी अलग हैं। माया, मोह, धन-सम्पत्ति, परिवार, यश सभी ओर लोलुप दृष्टि है। जब तक सब अपने पास न हो, मन में शांति नहीं। हम सब भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं येन केन प्रकारेण भौतिक सम्पन्नता पाने को। कोई अंतिम लक्ष्य नहीं। एक इच्छा पूर्ण हुई नहीं कि दूसरी तैयार आसक्त करने को। क्या करें, कैसे करें........??? ईश्वर ने समस्या दी तो समाधान भी दिया। प्रेम व कर्म जीवन का अभिन्न अंग हैं अन्यथा सृष्टि चले कैसे। जीवन की राह में परिवार, भौतिक साधनों, धन-सम्पत्ति, मित्र, समाज के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है। संगति का प्रभाव बलवान है, वह चाहे परिवार, मित्र या पुस्तकों का हो। जैसे लोगों के ब...
राधा भाव
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राधा भाव

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्याहम। परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे। अपने कान्हा तभी अवतरित होते हैं जब धरती पुकारती है, जैसे त्रेता युग में ´जय-जय सुर नायक, जन सुख दायक´ कहकर पुकारा था।द्वापर युग का अंत समीप था, पृथ्वी कंसों व दुर्योधनों के भार से बोझिल हो रही थी। कलि-काल के उदय का पूर्वाभास होने लगा था। तभी तो वो चुपचाप कारागार में आए। महल में पदार्पण करते तो नंदगाँव, गोकुल, वृन्दावन को कैसे तृप्त करते। उन्होंने युग परिवर्तन को देखते हुए प्रारम्भ की अपनी लीला उस धरती माँ से जिसने उसका पालन किया। कुछ तो कारण था कि उस धरती ने कन्हैया को पुकारा ओर वो चले आए अपनी सोलह कलाओं सहित। वो शैशव काल में ही पूतना वध सेअपनी कलाओं द्वारा अपन...
धर्म और विज्ञान
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धर्म और विज्ञान

माधवी तारे लंदन ******************** धर्म: रक्षति रक्षित: ऐसा एक वाक् प्रचार है जिसका भावार्थ है धर्म ही धर्म की रक्षा करने वाले का रक्षण करता है। प्राचीन ग्रंथों और पुराणों ने यह बात सिद्ध करके दिखाई है। हमें उनकी चर्चा में आज नहीं पड़ना है। वास्तविक बात यह है कि ज्ञान विज्ञान और अध्यात्म या धर्म दोनों ही मनुष्य को आत्मोन्नति के मार्ग पर चलने में सहायक होते हैं। एक अंदर से या मन-मस्तिष्क से तो दूसरा भौतिकता से या बाह्य जगत के ज्ञान से, दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं परंतु खोज उत्कर्ष अथवा स्व की उन्नति को ही महत्व है। सारांश यह है कि विज्ञान बाह्य रूप से और धर्म अंतर स्वरूप से ब्रह्मांड की खोज करने की कोशिश में लगे रहते हैं। राक्षसों द्वारा डूबी पृथ्वी को धर्म ने संवारा तो उसका हर तरह से विकास करना विज्ञान में संभव कर दिखाने की ठानी है। कहां पैदल यात्रा भ्रमण करने वाले, कहां पैदा, कह...
महामानव
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महामानव

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** शान्तमय वातावरण भी कितना भयावह लगने लगता है, जब किसी के पास बोलने को कुछ भी ना बचे, सोचने समझने की शक्ति जैसे जड़ हो जायें, क्या ऐसा भी जीवन में कुछ घटित हो सकता हैं, निःशब्दता वास्तव में इतना भयावह माहौल क्यूँ बना देती हैं, की बस उठो और ज़ाओ कहीं बाहर। पूरे दिन के कोलाहल के बाद कुछ घंटों का मौन खलने लगता हैं, ना ख़ुशी ख़ुशी ही रहती हैं, ना ग़म ग़मगीन ही करता हैं, सिर्फ़ टकटकी लगा के एक शून्य हुए को शून्य होकर निर्बाधता से देखे जाना कहाँ तक सही हैं। दूसरे के अंतर्मन की पीड़ा का अनुमान चंद लम्हे उसके साथ बैठकर नहीं लगाया जा सकता, जब तक आप स्वयं उसी पीड़ा से ना गुजरे हों। पीड़ा के भी रूप अनेकानेक हैं, मैं ये कह ही नहीं सकती की किसको कितना अधिक सहना पड़ा होगा, ना ही कोई बराबरी हैं किसी के दर्द की, बस एक आर्तनाद हैं ज़ो निरंतर प्रवाहमान हैं, स...
पलायन
आलेख

पलायन

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** गांव की आबादी आज घटती जा रही है। गांव के लोग शहरों की तरफ रुख़ कर रहे हैं । इसका कारण सबका अपना-अपना मत होगा। परंतु बेरोजगारी और सुविधाओं की कमी से गांव वाले ना चाहते हुए भी अपना घर छोड़ कर शहर के छोटे-छोटे कमरों में रहने को मजबूर हैं। क्योंकि हमारे गांव में बिजली, पानी, शिक्षा, रोजगार नहीं है। मैं सभी गांव की बात नहीं कर रही। परंतु बहुत गांवों में यह समस्या आज भी मौजूद है। शहरों का विकास तेजी से हो रहा है और गांव में जाकर देखो शिक्षा के नाम पर एक प्राइमरी या हाई स्कूल। वह भी सभी गांव में नहीं है। आगे बेचारे गरीब बच्चे पढ़ने कहां जाए? गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत सारी समस्याओं से गुजरना पड़ता है। यातायात- गांव में यातायात की सुविधा नहीं होती कैसे जाए पढ़ने के लिए बाहर। उनके पास दो विकल्प होते हैं या तो पढ़ाई छोड़ दे...
तेरी-मेरी कहानी
लघुकथा

तेरी-मेरी कहानी

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** "हैप्पी वेलेन्टाइन डे, माय डियर, एंड आय लव यू।" कहते हुए सुनील ने एक लाल गुलाब अपनी पत्नी रत्ना के हाथ में दे दिया। "आय लव यू टू, माय लाइफ।" कहते हुए रत्ना ने अपनी खुशी व्यक्त की। इस पर दोनों ठीक चार दशक पहले की कॉलेज की यादों में खो गए। "सुनील जी! क्या आपके पास यूरोपियन हिस्ट्री की बुक है?" "हां! जी है।" "मुझे कुछ दिन को देंगे, क्या....?" "जी अवश्य..." और सुनील ने यूरोपियन हिस्ट्री की किताब एमए प्रीवियस की उसकी क्लास में आई नवप्रवेशित सुंदर, आकर्षक और शालीन लड़की रत्ना को दे दी। फिर रत्ना ने नोट्स बनाने में सुनील की मदद की। सहपाठी तो वे थे ही, आपस में दोनों का मेलजोल बढ़ता गया। कक्षा में दोनों ही सबसे होशियार थे, इसलिए दोनों के बीच स्पर्धा भी थी, पर पूरी तरह स्वस्थ। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के दिल में समाते ग...
वे दिन भी क्या थे
संस्मरण, स्मृति

वे दिन भी क्या थे

चेतना प्रकाश "चितेरी" प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) ******************** मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब गर्मी की छुट्टियों में मुंबई से मेरे बड़े ताऊ जी-ताई जी, पापा, भैया-भाभी महानगरी ट्रेन से गाँव आते थे। घर के सभी लोग बहुत ख़ुश होते थे। कि मई माह तक सभी लोग साथ में रहेंगे। १९९० तक मेरे घर का पिछला हिस्सा मिट्टी और खपरैल से, आगे का ओसारा ईंट-सीमेंट से बना हुआ सुंदर लग रहा था। उत्तर मुखी घर का दिशा होने के कारण घर की बायीं तरफ़ एक नीम का पेड़ था। नीम के पेड़ के नीचे छोटा चबूतरा था जिस पर सुबह-शाम लोग बैठकर चाय पीते थे। पास में ही बहुत सुंदर पक्का बैठिका, उससे लगा हुआ आम का बग़ीचा जो बैठिका के पीछे तक फैला हुआ था। घर और बैठिका के सामने ख़ूब बड़ा-सा द्वार, घर के दाहिने ठंडी के मौसम में गाय, भैंस, बैल को रहने के लिए मिट्टी, लकड़ी, खपरैल से बना हुआ घर था। ठीक उसी के सामने बड़ी-सी चरनी थी जिसमें...
जीना इसी का नाम है
आलेख

जीना इसी का नाम है

चेतना प्रकाश "चितेरी" प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) ******************** (भाव-पल्लवन) ज़िन्दगी बड़ी ख़ूबसूरत है, हर पल को खुशी से जियो! जाने आनेवाला कल कैसा होगा? उसकी चिंता में इस पल को बेकार न करो! जिंदगी को खूबसूरत बनाना है कैसे? इस पर विचार करो ! हर समस्याओं का समाधान तुम्हारे पास है, माना कि आज के दौर में रहन-सहन, खान-पान बदला है, ऐसे में अपने आप को समाज में स्थापित करना चुनौती का सामना करने जैसा है और इन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते हैं तो निराशा, उदासी, आदि से घिरे हुए होते हैं, क्षण-प्रतिक्षण मस्तिष्क में अनेकों सवाल लहरों की भांँति आते- जाते रहते हैं, अशांत मन बेचैन रहता है, जब कोई तूफान आनेवाला होता है तो सागर शांत हो जाता है, ऐसे क्षण में व्यक्ति को एकांत में आत्म-चिंतन मनन, ध्यान अवश्य करना चाहिए। समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास आय का स्रोत नहीं है, लेकिन उनके प...
भारतीय गणतन्त्र के सात दशक
आलेख

भारतीय गणतन्त्र के सात दशक

डॉ. अवधेश कुमार "अवध" भानगढ़, गुवाहाटी, (असम) ******************** परिवर्तन का जोश भरा था, कुर्बानी के तेवर में। उसने केवल कीमत देखी, मंगलसूत्री जेवर में।। हम खुशनसीब हैं कि इस वर्ष २६ जनवरी को ७४वाँ गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं। १५ अगस्त सन् १९४७ को पायी हुई आजादी कानूनी रूप से इसी दिन पूर्णता को प्राप्त हुई थी। अपना राष्ट्रगान, अपनी परिसीमा, अपना राष्ट्रध्वज और अपनी सम्प्रभुता के साथ हमारा देश भारत वर्ष के नवीन रूप में आया था। हालाँकि इस खुशी में कश्मीर और सिक्किम जैसे कुछ सीमावर्ती या अधर में लटके राज्य कसक बनकर उभरे थे। देश को एक संविधान की जरूरत थी। संविधान इसलिए कि किसी भी स्थापित व्यवस्था को इसी के द्वारा सुचारु किया जाता है। संविधान को सामान्य अर्थों में अनुशासन कह सकते हैं। संविधान अनुशासन है, यह कला सिखाता जीने की। घट में अमृत या कि जहर है, सोच समझकर पीने की।। २ वर्ष...
विदिशा का जन्मदिन
लघुकथा

विदिशा का जन्मदिन

नितेश मंडवारिया नीमच (मध्य प्रदेश) ******************** विदिशा आज बहुत खुश थी। उसका चौथा जन्मदिन जो था। शाम को उसके दोस्त घर पर आने वाले थे। मां आकांक्षा ने मटर पनीर, पराठे, पकौड़े और खीर की तैयारी कर ली थी। वह अपनी ही दुनिया में मस्त थी। तभी उसके पापा आशीष ने आवाज़ लगाई, बिटिया रानी नहा-धोकर तैयार हो जाओ। पहले मंदिर फिर बाजार चलेंगे। विदिशा ने शीघ्र ही तैयार होकर हर वर्ष की तरह दादा-दादी के पांव छुए। फिर खुशी से उछलते हुए पापा-मम्मी के साथ चली गई। खरीदारी हो जाने के बाद वे केक और चॉकलेट की दुकान पर पहुंचे। विदिशा की पसंदीदा चॉकलेट की तरफ इशारा करते हुए आशीष ने दुकानदार से उसे पैक करने के लिए कहा पर, नहीं अंकल, उसे नहीं पैक करना सुनकर आकांक्षा चौंक गई और विदिशा से कहा, पर बेटा वह तुम्हारी फेवरिट चॉकलेट है पिछली बार भी तुमने अपने दोस्तों को वही चॉकलेट दी थी। पर इस बार नहीं ...
संवेदना
सत्यकथा

संवेदना

उमेश्वरी साहू धमतरी (छतीसगढ़) ********************  आज से लगभग तीन महीने पहले रेलवे स्टेशन में बड़ी ही विचित्र घटना घटी। यह घटना मुझे आज भी झकझोर देती हैं। यह उस समय की बात है जब मैं अपने पति के साथ शिर्डी घूमने जा रही थी। लगभग ४:०० बजे हम लोग रेलवे स्टेशन पहुंचे। उसके बाद मेरे पति ने मुझे गेट पर ही छोड़कर गाड़ी पार्किंग करने के लिए चले गए। मैं वही किनारे पर खड़ी होकर उनका इंतजार करने लगी। ठीक उसी समय एक बीमार अपाहिज आदमी एकदम गन्दे, मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए लगभग ४-५ साल की बच्ची के साथ सामने से आता हुए दिखाई दिया। बच्ची बहुत रो रही थी जिसके कारण मेरा ध्यान बरबस उसके तरफ चला गया। इतने में वह आदमी अपनी बच्ची को चुप कराने की कोशिश करने लगा फिर उसने बच्ची से कुछ पूछा। मैं दूर खड़ी थी इसलिए मुझे कूछ भी सुनाई नही दिया की उस बच्ची ने क्या कहा? पर ऐसे लगा जैसे बच्ची को बहुत भूख लग रही ...
प्रतिस्पर्धा कहीं बन ना जाए अवसाद का कारण
आलेख

प्रतिस्पर्धा कहीं बन ना जाए अवसाद का कारण

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** जीत तू जरूर छू ऊंचाइयों को, कर मेहनत जरूर, सपने कर पूरे बस तू , कर मेहनत आज के आधुनिक दौर में आगे निकलने की दौड़ में सभी अपना वजूद ही खोते जा रहे हैं ।जो है उनके पास स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं ।माता-पिता प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अपने बच्चे को ही प्रथम लाना चाहते हैं। अच्छी बात है, पर दूसरों के साथ तुलना करके क्यों? सभी बच्चों में कौशल होता। हालांकि ये अलग बात है कि प्रतिभा अलग-अलग है। जैसे कोई चित्रकारी में, कोई नृत्य में, कोई गाने में, कोई पढ़ने में, कोई खेल में, कोई अपने घर के कार्यों में, पर अभिभावक चाहते हैं की हमारा बच्चा ही हर काम में प्रथम आए। हमें सिर्फ अपने बच्चे की प्रतिभा को देखना है। वह किस क्षेत्र में अच्छा है, उसकी प्रशंसा करना, ना की उस पर इतना दबाव बनाना की वह अवसाद में चला जाए। आज के दौर की सबसे बड़ी...
कर्तव्यबोध
लघुकथा

कर्तव्यबोध

माधवी तारे लंदन ******************** दरवाजे की बेल बजी– “आंटीजी दरवाजा खोलो मैं आई हूं” ये कामवाली की आवाज थी. द्वार खोलते ही मैंने उससे कहा – “अरे... तुम्हारे पति शांत हो गए हैं न ... तुमने अपनी जगह दूसरी बाई दी थी। वो दो दिन से अच्छी तरह से काम कर रही है फिर तुम आज कैसे?” “आंटीजी माफ करना, काहे का पति, और काहे का बच्चे का पिता... आज २५ साल पहले बिना कहे वो मुझे और मेरे चार साढे चार साल के बेटे को बेसहारा छोड़ कर गया था... हमें नहीं मालूम, तब से आज तक उसने ये तक न पूछा कि हम जिंदा हैं कि मर गए... अपने कर्तव्य से मुंह फेर कर गुलछर्रे उड़ा रहा था... पर कर्म ने किसे छोड़ा है क्या ! २५-२७ साल तक न उन्हें हमारी याद आई न अपने परिवार की.... पर अबकी बार बीमार हो कर अपनी बहन के घर आ गया।” ननंद जी को मैंने कहा कि “आपने मुझे क्यों बताई ये बात... जबसे गया तभी से मैंने बेटा बड़ा किया, उसकी प...
भारतीय परिधान साड़ी
आलेख

भारतीय परिधान साड़ी

प्रतिभा दुबे ग्वालियर (मध्य प्रदेश) ******************** आज साड़ी दिवस पर आप सभी के समक्ष अपने विचार रखना चाहूंगी। साड़ी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है। साड़ी ही एक ऐसा परिधान है, जो देश विदेशों में भी सम्मानित रूप से देखा जाता है और इसी आदर के साथ धारण करना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है, इस विशेष परिधान को हमारे राजा-महाराजाओं के जमाने से भी पूर्व से स्त्रियां सम्मान पूर्वक धारक कर रही है। "ऐसा नहीं है कि, किसी परिधान में कोई खराबी है या कोई परिधान छोटा या बड़ा है, परंतु साड़ी की विशेषता (बात) ही अलग है! अलग-अलग प्रांत में साड़ी को अलग-अलग तरीके से पहना जाता है परंतु फिर भी साड़ी हमेशा ट्रेंडी बनी रहती है इसे आजकल नव युवतियां, और भी क्रिएटिव तरीके से पहनती हैं कभी ब्लाउज के साथ कभी शर्ट के साथ तो कभी कुर्ती के साथ और तो और आजकल स्कर्ट के साथ भी साड़ी को देखा जा सक...
सुरक्षा कवच
लघुकथा

सुरक्षा कवच

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** अरे ! अरे ! मैं तुझे कुछ नहीं कहूंगी। बाहर आओ ! बाहर आओ ! देखो मेरे बच्चे भी खेल रहे हैं। हम सब मिलकर खेलेंगे । बहुत मज़ा आ रहा है।आ जाओ तुम भी। नहीं-नहीं चिंटू मत जाना मम्मा ने मना किया है कि बिल से बाहर जाते ही खतरा ही खतरा है, और यह बिल्ली तुझे खा जाएगी चिंटू। बहन ने उसे समझाते हुए कहा पर यह तो खेलने के लिए बुला रही है। तभी तो मैं कह रही हूं बाहर नहीं जाना नहीं तो मैं मां को बताऊगीं। लेकिन चिंटू बार-बार बाहर जाने की जिद कर रहा था। इतनी देर में ही चूहिया बाहर से आ जाती है। जिनको आते ही बच्चे सारी बातें बता देते हैं। कैसे बिल्ली हमें बाहर बुला रही थी। चूहिया ने तीनों को समझाते हुए कहा, यह बिल ही तुम्हारा सुरक्षा कवच है। जैसे ही बिल से बाहर निकले जिंदा नहीं बचोगे। इसलिए जब भी मैं खाना लेने बाहर जाऊं तुम अंदर ही रहना। पर मां...
सूर्य का संदेश
आलेख

सूर्य का संदेश

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** संक्रान्ति पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य का बल ही इस दिन को पर्व बना देता है। भौतिकवैज्ञानिकों ने सूर्य के भौतिक स्वरूप को प्रतिपादित किया है, धर्मप्रवर्तकों ने उसको सूर्यदेव कहकर पुकारा। इनके अतिरिक्त सूर्य के दर्शन होने पर एक प्रकार की नैतिक एवं आध्यात्मिक अनुभूति भी होती है। प्रतीत होता है मानो सूर्य हम मानवों को कुछ संदेश देना चाहता है। संक्रान्ति के पावन पर्व पर सूर्य का यह संदेश सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचे, इस लेख का आशय यही है। सूर्य प्रबलतम् एवं बलवान है किंतु अहंकारहीन एवं विनम्र। अहंकार संस्कारहीनता है, विनम्रता मानवधर्म, जीवनधर्म है। जितना बलवान उतना ही विनम्र, जितना समर्थ उतना ही सम्यक् दृष्टि युक्त। हमें सूर्य से शिक्षा लेनी चाहिए- सर्वशक्तिमान किंतु विनम्र, बलवान किंतु संस्कारयुक्त, निष्ठा...
इस संक्रांति
लघुकथा

इस संक्रांति

सरला मेहता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** सात वर्ष गुज़र गए बेटे पलाश को लंदन गए। वहाँ ब्याह भी कर लिया। पार्थ व जुही भी आ गए। गनीमत की बीबी मायरा भारत से ही थी। शेखर आवाज़ लगाते हैं, "अरे शारदा ! कब तक तिल गुड़ के लड्डू बना-बना कर बेटे बहू को भेजती रहोगी। क्या पता वो लोग खाते भी हैं या नहीं?" शारदा सजल हो बुदबुदाती है, "क्या करूँ? मन मानता ही नहीं। लेकिन इस बार बच्चे कहेंगे तभी भेजूँगी।" उधर पार्थ व जुही बड़ी बेसब्री से दादी के तिल गुड़ के लड्डू का इंतजार करते हैं, "पापा ! दादी कहीं बीमार तो नहीं हो गई।" शेखर सोचने को मजबूर हो जाता है। ज़िन्दगी में आगे बढ़ने के लिए माँ पापा कितने पीछे छूट गए। वह ख़ुद अपने बच्चों के बगैर एक दिन भी नहीं रह सकता है। फ़िर बेचारे माँ पापा... कैसे रह रहे होंगे अकेले ? तभी पार्थ, दादी की चिट्ठी लाता है। पूरे पन्ने पर पड़े आँसुओं के दाग माँ का दर्द ब...
रक्तदान
लघुकथा

रक्तदान

प्रो. डॉ. द्वारका गिते-मुंडे बीड, (महाराष्ट्र) ******************** कॉलेज के कैंपस में रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया था। उसमें श्रेयस ने भी अपनी स्वेच्छा से रक्तदान किया। उसके दस साल बाद एक सड़क दुर्घटना में श्रेयस का अ‍ॅक्सीडेंट हो गया। गहरी चोट लगने से बहुत रक्त स्त्राव हो गया था। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया। उसकी हालत देखकर 'उसे रक्त देना पड़ेगा। जल्दी से रक्त का प्रबंध करो।' ऐसा डॉक्टर ने कहा। रक्त देने के लिए माता-पिता और कई रिश्तेदार तैयार हो गए पर श्रेयस की दीदी ने उसका रक्तदान का प्रमाणपत्र रक्तपेढ़ी में दिखाया और जल्द ही रक्त का प्रबंध हो गया। दूसरे दिन श्रेयस जब होश में आया तब उसकी दीदी ने कहा- "भैया, तेरे रक्तदान ने आज तुझे ही जीवन दान मिला है।" हास्य करते हुए श्रेयस ने कहा- "मुझे कहां मालूम था कि, आगे चलकर मुझे ही जीवनदान मिलने वाला है। पर, आज मैं यह समझ गया हूं...
मृत्यु की रात
लघुकथा

मृत्यु की रात

संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया भोपाल (मध्यप्रदेश) ******************** घर में निर्मला की मम्मी उसका भाई राजू छोटी बहन पिंकी घर में थे। पिता भोपाल से बाहर अपनी छोटी बहन की सगाई करने गए थे। तभी दो और तीन दिसंबर की रात १९८४ को मृत्यु की रात बन कर आई। निर्मला की मकान मालिक ने दरवाजा खटखटाया बोली धुआं-धुआं फैला है और आंखों में जलन हो रही है। जैसे ही दरवाजा खोला तो बाहर भीड़ दौड़े जा रही जान बचाने। निर्मला का भाई भी मोहल्ले वालों के साथ जान बचाने कहां गया पता ही नहीं। निर्मला की मां बहन छोटी अपनी सहेली के घर पहुंचे सहेली से बोली- "चलो हम भी कहीं चलते हैं।" सहेली के पति भी बाहर गए हुए थे। उनके तीन बच्चे थे। वह बोली- "हम कहीं नहीं जाते"। हम तो यही घर में रहते हैं। जिसको भी उल्टी आ रही है। उल्टी घर में ही कर लो, लेकिन घर में ही रहेंगे, तो कम से कम घर वालों को अपनी लाश मरने के बाद मिल तो जा...