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गद्य

आईना
लघुकथा

आईना

======================================== रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी "भैया प्लीज़ रुक जा ना| मैं अकेला मम्मी-पापा को कैसे सम्हालूँगा? मेरी इंजीनियरिंग का भी आखिरी साल है| प्लीज भैया| "बेरंग चेहरा, आंसुओं को बहने से रोकती हुई ऑंखें, और सूखा कंठ - ऐसी ही स्थिति हो गई थी अखिल की| बहुत डरता था अपने बड़े भाई निखिल से, पर आज जैसे-तैसे हिम्मत करके भैया और भाभी को रोकने की नाकाम कोशिश कर रहा था| पर निखिल और नमिता अपना मन बना चुके थे| उन्हें तो केवल अपने होने वाले बच्चे का भविष्य दिख रहा था| इसीलिये सीधे ना कहते हुए, गलतफहमियों की इमारतें खड़ी करके अलग होने का रास्ता चुन लिया था दोनो ने| निखिल बहुत सुविधाओं में पला था वहीं अखिल जन्म से ही अभावों का चेहरा देख चुका था| इसीलिए अंतर था दोनों की सोच और नीयत में| 'अब तक मैंने सम्हाला, अब तू देख अक्खी ' कहते हुई निखिल ने अपने कदम बढ़ा...
समाज सेवा
लघुकथा

समाज सेवा

============================================ रचयिता : वन्दना पुणतांबेकर सारा हॉल लोगो से भरा हुआ था। भ्रांत परिवारों की महिलाओं द्वारा समाजिक उत्सव मनाया जा रहा था।पीछे किसी प्रतिष्ठित संस्था का बेनर लगा था।पूरे हॉल में रौनक बिखरी पड़ी थी। उच्च परिवार की कुछ महिलाये स्टेज पर जमकर नाच रही थी।डोनेशन देकर बने अधिकारी लोग आगे की पंगतियो में विराजमान थे। अपनी महिला को चार दिवारी में कैद कर समाज सेवा के नाम पर भ्रांत महिलाओ के अंग प्रदर्शन की झांकी खुले आम देखी जा रही थी। अधिकारी लोगो के सामने वह महिलाये अपने आप को किसी समाजसेवी संस्था की सदस्य होने पर गर्व महसूस कर रही थी। लेकिन अधिकारियों के लिए मात्र एक मनोरंजन का माध्यम था। ओर ऐसा कार्यक्रम हर मौके पर होना चाहिए यही उनका धेय था।उसमे से एक अधिकारी ने तिरछी नजरो से पास बैठे अधिकारी की ओर देखकर कुटिल मुस्कान बिखेरी। परिचय :- नाम : वन्दना प...
चुहिया और बुढ़िया
कहानी

चुहिया और बुढ़िया

=============================== रचयिता : विनोद वर्मा "आज़ाद" एक बुढ़िया कचरा जलाकर खाना बना रही थी, एक चुहिया उधर से गुजरी, देखकर बुढ़िया से बोली-का हम लकड़ी लाय दे तुमको। बुढ़िया ने कहा-लाय दो । चुहिया दौड़ी-दौड़ी गई और लकड़ी लाकर बुढ़िया को दे दी। बुढ़िया रोटी उतार रही थी, ठीक उसी वक्त चुहिया रोटी पर उछलकूद करने लगी । बुढ़िया बोली--ए चुहिया ये का कर रही। चुहिया बोली--मैं डांग गई, डांग से मैं लकड़ी लई, लकड़ी मैंने तोए दय। का एक चंदिया भी नय देगी? बुढ़िया --ले जा । चुहिया चंदिया लेकर जा रही थी, उसकी निगाह एक कुम्हार पर पड़ी जी बच्चे को मिट्टी की गोली दे रहा था। चुहिया --ए भाई तेरे को चंदिया दूँ। वह तुरन्त बोल उठा--हाँ-हाँ.. चुहिया ने चंदिया कुम्हार को दी और उसकी मटकियों पर उछलकूद करने लगी। कुम्हार बोला--ए चुहिया! ये का कर रही? चुहिया --मैं डांग गई, डांग से मैं लकड़ी लई, लकड़ी मैंने...
आश
लघुकथा

आश

============================== रचयिता : रीतु देवी चाची जोर, जोर से रोए जा रही थी, "अब मैं किसके सहारे रहूँगी? जीवन का अंतिम आश का धागा भी टूट गया। मंगला ग्वालिन लड़की को भगाकर ले गया। अब दिल्ली से कभी नहीं आएगा।" "हमलोग आपके साथ हैं। आपकी हर मुसीबतों को हंँसते-हँसते सुलझा देंगे। मंगला आपका सच्चा लाल है, अवश्य आएगा। पड़ोस की औरते चाची की आँसू पोछते हुए बोली। रो-रोकर चाची आँखें फुला ली। आपस में सभी औरते बात कर रही थी,  बेचारी चाची, किस्मत में ही हर्ष के क्षण विधाता नहीं लिखे हैं। मंगला जब छ: महीने का था तब ही पति का स्वर्गवास कैंसर बीमारी से हो गया। वह खुद को बहुत मुश्किल से संभालकर मंगला का पालन-पोषण की थी। मंगला चाचाजी की जीने की आश था, वह भी छोड़कर बिन कहे लड़की के साथ भाग गया।" "हाँ बहन, आज के बच्चे माता-पिता के ममता, प्यार को महत्व नहीं देते।" पड़ोस की सुषमा बहन बोली। लेखीका परिचय :-...
संयुक्त परिवार
मेरे विचार, संस्कार, संस्मरण, स्मृति

संयुक्त परिवार

=============================== रचयिता : विनोद वर्मा "आज़ाद" पांच भाई एक पुश्तैनी मकान में साथ रहते थे। जिसका पुनर्निर्माण १८००/ ठेके पर ठेकेदार ने किया था। एक बरामद, एक हाल, एक छोटा कमरा, एक दादी का कमरा, किचन, पानी की टँकी, एक शौचालय, एक बाथरूम, खुला बाड़ा, दक्षिण मुखी मकान के पूर्व में गलियारा था, ऊपर मंजिल कमरा एक था बस। पर पेड़-पौधे जगह अभाव में नही लग पाये। इसके पहले जो पुराना घर जब था उसमें बरामदा, बड़ा हाल,खोली और बाड़ा, एक टॉयलेट। बाड़े में शहतूत, कडिंग (विलायती इमली) और मीठी बोर का झाड़ यानी पेड़ पौधे लगे हुए थे। चार भाइयों की शादी हो गई थी, परिवार में माता-पिता, ४ जोड़े, दादी व एक छोटा पांचवे नम्बर का भाई, कुल जमा १२ सदस्यों का संयुक्त परिवार। संघर्षरत परिवार के पास एक सायकल के अलावा कोई वाहन नही। मांगलिक आयोजनों में बस से आना-जाना। एक रात रुकना ही, क्योंकि वाहन सुविधा नामम...
समीकरण
लघुकथा

समीकरण

================================= रचयिता : प्रेम प्रकाश चौबे "मां, मैं भी कॉलेज जाऊंगी, मैं आगे पढ़ना चाहती हूं" बेटी ने अपना निर्णय सुना दिया । "नहीं, जितना पढ़ना था, पढ़ चुकीं" मां ने कहा । "इसे कौन सा डॉक्टर या इंजीनियर बनना है, शादी के बाद, चूल्हा ही तो फूंकना है, उस के लिए १२ वीं तक कि पढ़ाई काफी है", भैया ने अपनी समझदारी झाड़ी, जो सोफे पर मां के पास ही बैठा था। "क्यों, मैं इंजीनयर क्यों नहीं बन सकती? मैं ने गणित विषय लिया है। मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत शौक है" बेटी ने रुआंसे से स्वर में कहा। "और आप लोग हैं कि मुझे पढ़ने देना ही नहीं चाहते। मां तो पुरानी पीढ़ी की हैं, उन का ऐसा सोचना स्वभाविक है, भैया, पर तू  तो नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है, फिर भी तू उन्हीं के पक्ष का समर्थन करता है? यदि हर घर में तेरे जैसे भाई रहे तो हो चुका "नारी शिक्षा" का कार्यक्रम पूरा" बिटिया रो पड़ी थी।       "न...
सिर्फ हम
लघुकथा

सिर्फ हम

============================================ रचयिता : वन्दना पुणतांबेकर आज उमा जीवन के अंतिम पड़ाव के साथ आश्रम में अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। कल ही उसका चश्मा टूट चुका था। दो दिनों से अपनी समस्या को आश्रम संचालक को बयां कर चुकी थी। किसी के पास इतना समय नही था। कि उसकी समस्या का समाधान करें। कमजोर आँखों से वह उठी। धुंधलाई नजरो से अपने जर्जर शरीर को संभालते हुए बाहर आई। अभी कुमुद ने देखा की बिना चश्मे से उमा को देखने मे परेशानी हो रही हैं, तभी कुमुद ने आगे हाथ बढ़कर उसको सहारा दिया। ओर मुस्कुराती हुई "बोली उमा अब  यहाँ किसकी आस रखती हो  हमारा यहाँ कोई नही है, जब तक हम यहाँ है, हमे ही एक दूसरे का साथ  देना होगा। कहकर अपने को उम्र से कम समझकर उसका हाथ थाम दोनों बिना दाँतो के एक प्यारा सा ठहाका लगा उठी। दोनों को मुस्कुराहट बहुत ही प्यारी ओर सलोनी लग रही थी। परिचय :- नाम : वन्दना पुणतांबेकर...
सुरभि
लघुकथा

सुरभि

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका बहुत भीनी खुशबू आ रही है, मां आपने फिर क्यारी में कोई महकने वाले फूलों की कलम लगाई है। घर की दहलीज पर कदम रखते ही बिटिया सुरभि ने अपनी मां की क्यारी में लगे पुष्पों को निहारा। सुरभी आते ही बस दौड़ पड़ी तुम बगीचे में। चलो आओ घर के अंदर। मां बेटी बहुत दिनों के बाद मिली थी। पहले बेटे पढ़ने जाते थे,अब बेटियां भी पढ़ने के लिए की साल बाहर रहती है तो घर आना जाना कम होता है। सुरभी अपनी पढ़ाई के दौरान छुट्टियों में आई थी। कुछ दिन रहकर सुरभि अपनी महक बिखकाकर फिर लौट गई। मां हर पौधे को जतन से रखती, उसे हर पौधा अपने बच्चों सा लगता और पौधै भी जैसे मां को देख झूमते। पढ़ाई पूरी हुई, सुरभि के लिए लड़का पसंद किया गया। आपसी रजामंदी पर शादी हो गई। लेकिन सास, ससुर जेठानी, पति सभी का व्यवहार सुरभि के नाजुक मन सा कहां था, वह तो सब जैसे...
वर्तमान परिदृश्य और भूतकाल के 45 साल
आलेख, नैतिक शिक्षा, स्मृति

वर्तमान परिदृश्य और भूतकाल के 45 साल

रचयिता : विनोद वर्मा "आज़ाद" बालमन के भी स्वप्न है, वे भी कल्पना लोक में विचरण करते है उनके भी मन मे लालसा के साथ जिज्ञासा होती है। बच्चों के बचपन को पुस्तकों, ग्रीष्म कालीन,शीतकालीन शिविरों में झोंका जा रहा है। छुट्टियां भी कम होती जा रही है। प्रातःकाल घूमना, दौड़ लगाना, खेलकूद आदि तो जैसे जड़वत होते जा रहे है। उनकी जगह मोबाइल फोन दूरदर्शन आदि ने ले ली है। वीडियो गेम से खेल की कमी को पूरा किया जा रहा है। इससे एक तेजतर्रार व मजबूत नस्ल की अपेक्षा नही की जा सकती। कमजोर बच्चे भले पढ़ने - लिखने में आगे हो जाये लेकिन उनमें सामान्य ज्ञान का अभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। पहले हम पढ़ाई के साथ पट्टी पहाड़े में पाव, अद्दा, पौन आदि भी सीखते थे। लेकिन आज के बच्चों को यह सब समझ नही आता। आज बच्चों को कोई सामान लाने का कहा जाए तो वह आना कानी शुरू कर देते है या बहाना बना लेते है। जबकि पहले अगर पड़ोसी भी...
एक पहल ऐसी भी
लघुकथा

एक पहल ऐसी भी

=================================================== रचयिता : कुमुद दुबे सचिन  का ट्रांसफर पूना हो गया था। एक नये बने काम्प्लेक्स के केम्पस में सचिन ने फ्लेट ले लिया था। जिसमें स्विमिंग पुल, पार्क, बच्चों के लिये प्ले ग्राउंड, झूले, फिसलपट्टी, कम्यूनिटी हाॅल, सभी कुछ आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध थी। सचिन की पत्नि सुचिता और छः साल का बेटा प्रमेय बहुत खुश थे। रोजाना शाम सभी बच्चे पार्क में एकत्रित होकर खेलते। बच्चों की मम्मियों में भी आपसी परिचय अच्छा हो गया था। सुचिता को बचपन से ही पेड़-पौधों से बहुत लगाव था। साथ ही स्वच्छ वातावरण में रहने की वह आदि थी। शाम के समय पार्क में छोटे-बडे़ सभी बच्चे  इकट्ठे होते थे। कुछ बच्चों की मम्मियां बच्चों के खाने-पीने की सामग्री भी अपने साथ लेकर आने लगी थीं। बच्चे प्ले एरिया में कागज व फलों के छिलके फेंक देते! तो सुचिता को यह पसन्द नहीं आता। उसने एक-दो...
सूखा सावन
लघुकथा

सूखा सावन

=========================================== रचयिता : विजयसिंह चौहान आंगन में लगा आम का पेड़ पूरी कॉलोनी में एकमात्र फलदार, छायादार वृक्ष जिसकी छांव में आज भी मां - बाबूजी कुर्सी डालकर हरियाली का आनंद लेते हैं। फ़ल के समय लटालूम आम ना केवल इंसानों को बल्कि परिंदों को भी तृप्त करता है। अल सुबह मिट्ठू, दिनभर गौरैया और कोयल की कूक से आँगन चहक उठता.... तो कभी, गिलहरी की अठखेलियां देख मन का सावन झूम उठता। हरा भरा आंगन अब सड़क चौड़ीकरण की जद में आ गया। कल ही विकास के नाम पर रंगोली डाली थी और कुल्हाड़ी, आरी वृक्ष के नीचे रख गए थे ....सरकारी मुलाजिम। रात भर से पक्षियों का उपवास है, पक्षियों के चहकने और अठखेलियो पर विराम लग चुका, यही नही बादल का एक झुण्ड पड़ोस के मोहल्ले से गुजर गया। अबकी बार लगता है, मां-बाबूजी सूखा सावन देखेंगे, अपने आंगन। लेखक परिचय : विजयसिंह चौहान की जन...
जानलेवा तम्बाकू का सेवन
आलेख

जानलेवा तम्बाकू का सेवन

रचयिता : विनोद वर्मा "आज़ाद" विश्व मे ८० लाख लोग प्रतिवर्ष तम्बाकू सेवन के पश्चात होने वाले असाध्य रोगों की वजह से काल के गाल में समा रहे है, वही भारत देश मे प्रतिवर्ष १० लाख लोग जान गंवा रहे है।       विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ विश्वभर के राष्ट्र और समाजसेवी संगठन तम्बाकू के सेवन से होने वाले रोग और होने वाली मौतों से बचाने के लिए विश्वव्यापी अभियान चलाए हुए है। इतना कुछ होने के बावजूद लोग इस कचरे को खाना नही छोड़ रहे है। इसके बनाये उत्पादों पर स्पष्ट चेतावनी लिखी होने के पश्चात भी इसका सेवन करने वालों की संख्या में कमी ना के बराबर हो रही है।      मैं दो घटनाएं और तम्बाकू के उत्पादन के बारे में बताने जा रहा हूँ, घटनाएं तो दिलचस्प है पर उत्पादन गन्दगी से सराबोर......        मैं कक्षा तीसरी का छात्र था, मेरे समाज बन्धु और पुराने घर के सामने वाले जो मेरे साथ पढ़ रहे थे, मुझे बड़े प्य...
पानी की महामारी
लघुकथा

पानी की महामारी

========================================================== रचयिता : श्रीमती मीना गोदरे 'अवनि' शहर में पानी के लिए त्राहि-त्राहि हो रही थी सप्ताह में एक दिन नल आते थे लोग मीलों दूर लंबी कतार बनाकर पानी के लिए भागते नजर आते थे। वह बड़े घर की बहू थी नौकर चाकर ठाट बाट सब कुछ था, महलनुमा घर के पिछवाड़े में गहरा कुआं था जिससे पाइपलाइन जोड़कर घर के सभी नलों में पानी आता था उन्हें पानी की कमी कभी न होती किंतु इस बार तो उसके कुएं से भी लोग पानी ले जाने लगे, धीरे धीरे वह भी सूख गया। अब तो पाइप सेभी पानी नहीं चढ़ता उन्हें भी पानी की परेशानी होने लगी किंतु अब तो गजब हो गया जिसे कुएं से पानी खींचना आता था वह नौकर बीमार पड़ गया। तीन दिन बाद हालात ये थे कि घर में केवल दो लोटे पानी बचा था, मालकिन ने दो दिन का निर्जला व्रत रख लिया, क्योंकि बच्चों को पानी बचाना जरूरी था किंतु वह भी खत्म हो गया। सड़क प...
वार्तालाप
लघुकथा

वार्तालाप

============================================ रचयिता : वन्दना पुणतांबेकर सड़क की पगडंडियों से गुजरता अनुपम गर्मी की तपिश से परेशान हो रहा था। सरकारी स्कूल की नौकरी ऐसी थी। कि गाँव की पाठशाला का भार उसी के जिम्मे आ गया था। गर्मी में स्कूल की छुट्टियां होने के बावजूद भी कोई ना कोई काम से उसे जाना ही पड़ता। आज उसे नए नियमों से स्कूल की भर्तियों को लेकर प्रारूप तैयार करना था। इसी सिलसिले को दिमाग में रखते हुए, वह धूल भरे गुबार से गुजर रहा था। तभी जोरो से आँधी शुरू हो गई। वह सिर छुपाने के लिए जगह की तलाश कर रहा था। तभी उसे वहाँ एक सूखा सा बंजर पेड़ दिखाई दिया। वह उसी पेड़ के नीचे थोड़ी देर के लिए रुका तो ऊपर से उस पर कुछ बूंदे पानी की गिरी। उसने देखा आसमान तो साफ है। फिर यह पानी की बूंद कहां से गिरी। उसने ऊपर नजर उठा कर देखा। तो उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया। वह आँधी के रुकने का इंतजार कर रहा था। ...
बेटे का खत माँ के नाम
लघुकथा

बेटे का खत माँ के नाम

============================== रचयिता : अर्चना मंडलोई थैक्यू माँ ....      ओह! माँ तुम पास हो गई। कितनी खुश हो तुम आज मेरा रिजल्ट देखकर। टीचर जी ने तुम्हें मिठाई खिलाते हुए बधाई दी तो तुम रो ही पडी थी। मैं पास खडा, ये सब देख रहा था, और मन ही मन ईश्वर को शुक्रिया कह रहा था - यहाँ धरती पर तुम जैसी माँ जो मिली है, मुझे संभालने के लिए। मुझे पता है, माँ मैं उन आम बच्चों में शामिल नहीं हूँ, जिसे दुनिया नार्मल कहती है। और तुम भी दुनिया की तमाम माँ के समान ही हो। पर माँ मेरे साथ तुम भी खास हो गई हो। मैं जानता हूँ माँ हर रोज तुम मेरे स्कूल के गेट पर छुट्टी होने के समय से पहले ही खडी रहती हो। दौडते भागते बच्चों को हसरत भरी निगाहों से देखते हुए, मैं जानता हूँ उन बच्चों में तुम मुझे खोजती हो। वैसे तो माँ तुमने कभी किसी से मेरी तुलना नहीं की, फिर भी मेरी क्लास के टापर्स बच्चों की तुम खुशामद करती हो औ...
फ़र्ज़
लघुकथा

फ़र्ज़

========================================================= रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी करीब बारह वर्ष की थी गुड़िया।  दादाजी के सभी पोते और पोतियों में सबसे लाड़ली थी वो। "चलो गुड़िया, आज "बड़े-घर" जाना है हमको, बड़ी दादी के पास। उनकी तबियत ठीक नहीं है। "ऐसा कहते हुए दादाजी ने गुड़िया को लाल कपडे में लिपटी हुई एक किताब थमा दी और कहा "इसका एक पाठ बड़ी दादी को पढ़ कर सुनाना है तुम्हें, अब चलो।" "बड़े-घर" में एक चारपाई पर बड़ी दादी लेटी हुई थीं। गाँव के डाक्साब (डॉक्टर) भी बैठे थे। पूरा परिवार बड़ी दादी के पास इकठ्ठा हो चुका था। दादाजी के इशारा करते ही गुड़िया ने किताब खोली और दादाजी के कहे अनुसार उसका अट्ठारहवाँ पाठ पढ़ना शुरू कर दिया। पाठ पूरा होते ही बड़ी दादी ने अपना कंपकपाता हाथ गुड़िया के सिर पर फेरा और आशीर्वचन देते हुए चिर-निद्रा में सो गयी। ये वृतांत गुड़िया के कोमल मन पर गहराई से अं...
सेवाराम जी
लघुकथा

सेवाराम जी

=========================================== रचयिता : विजयसिंह चौहान सेवाराम जी यथा नाम तथा गुण वाले सेवाराम जी, अपनी सेवा कार्यों के कारण जात-समाज और मोहल्ले में इसी नाम से जाने जाते हैं। उनका मूल नाम तो दशरथ जी है, बड़ा दिल और तन-मन-धन से हर किसी के लिए मदद को हर पल तैयार! शायद इसीलिए लोग प्यार से उन्हें सेवाराम जी पुकारते हैं। हर दम समाज को नई दिशा दिखाने के पक्षधर सेवाराम जी ने नुक्ता प्रथा, दहेज प्रथा और अब मामेरा प्रथा बंद कराने के लिए हाथ धोकर पीछे पड़े हैं। नई दिशा की ओर, आपकी पहल कल भी देखने को मिली जब इंदौर वाली ब्यान जी भर्ती थी तो उनकी कुशलक्षेम पूछने के लिए सेवाराम जी अपने साथ घर से ५ खंड का टिफिन जिसमें रोटी के फूलके, दो तरह की सब्जी, अचार, पापड कतरन और थरमस में झोलियां भर कर मिलने पहुंच गए। अस्पताल में काफी लोग थे वे सब सेवाराम जी का या व्यवहार देख मन ही मन प्रशंसा क...
भाग्य की गति
लघुकथा

भाग्य की गति

भाग्य की गति =========================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका बहुत मिन्नते की थी उसने --- कोई अपना बच्चा मुझे गोद दे दो ---- बाहर से बच्चा लाने के लिए सासू मां तैयार नही थी! घर का बच्चा गोद रखने से घर के संस्कार  आयेंगे ! घर का खून, गोत्र, रिश्ता सब रहेंगे! सासू मां का कहना था! वह सबको मनाती रही! जेठ, देवर, भाई बहन, ननंद कोई भी न माने! जेठ को पांच बच्चे थे, उसमे एक शरीर से अशक्त! न बोल सकता न चल सकता! जेठ  उसे देने को तैयार हुए! उसमे भी उसने हामी भर दी पर बच्चे की स्थिति नही थी की बदली वाली नौकरी मे उसे हर बार परिवर्तन कराया जाये! बात जमी नही! समय  आगे बढता गया! अचानक  उसके पति को दिल का दौरा पड़ा और वह दफ्तर मे ही चल बसे! घर की दूरी ,पास मे कोई नही! एक भोजन बनाने वाला और  उसका तीन साल का बेटा! बस तभी से महीने भर मे वह  उसका बेटा हो गया और  उसे नाम, संस्कार...
रायचंद
लघुकथा

रायचंद

रायचंद  =========================================== रचयिता : विजयसिंह चौहान पिछले दिनों मां के पेट में दर्द की शिकायत को लेकर काकू-अन्नू अस्पताल पहुंचे। चिकित्सीय परीक्षण करने के बाद, चिकित्सक ने सलाह दी कि पेट में १ गेंद के बराबर गठान है, हमे भय है कि, कहीं गठान में कैंसर के जीवाणु ना हो! मशीनी परीक्षण की पुष्टि दो अन्य चिकित्सकों में भी कर दी। अब मां की शल्यक्रिया के लिए मन सहमत हो चुका था।  उधर अस्पताल में मां से मिलने वाले लोगों का जमावड़ा लगने लगा। मंजू जीजी कह रही थी कि, अस्पताल वाले लूटते हैं, आप तो अन्य पद्धति से इलाज कराओ! शोभा आंटी ने भौहे चढ़ाते हुए कहा...भला,  यह कोई उम्र है मां की? जो ऑपरेशन झेलेगी? कूना भैया ने राय दी, कि इन गांठो का इलाज लेजर पद्धति से भी हो सकता है! वही राजू बेन ने तो गंडे डोरे और ताबीज का सुझाव दे डाला। जितने लोग उतनी बातें ....  माँ, सभी के सुझाव के ...
👓दो चश्मे👓
लघुकथा

👓दो चश्मे👓

👓दो चश्मे👓 ================================================================================ रचयिता : रशीद अहमद शेख 'कुंद-कुंद' में हमारी साहित्यिक संस्था की मासिक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया था। मेरे काव्य पाठ की भी वीडियो रिकॉर्डिंग हुई थी। कार्यक्रम के समापन पर अपने एक मित्र के साथ उनकी बाइक पर बैठकर घर लौटा। ज्यों ही मैंने सांध्यकालीन पत्र पढ़ने के लिए चश्मा खोजा तो वह कहीं नहीं मिला। बार-बार सभी जेबों और झोले को टटोला किन्तु व्यर्थ! पत्नी उलाहनापूर्वक कहने लगी, "आप चश्मे का ध्यान कब रखते हैं! "पुत्र ने दिलासा के स्वरों में कहा, " पापा, आपका जन्मदिन दो दिन बाद ही है। मैं अपनी ओर से आपको चश्मा भेंट करूँगा। मेरे साथ चलना कल ही आपकी आँखों की जांच करवाने के बाद चश्मा बनवा दूंगा। "पत्नी के चश्मे से मैंने मोबाइल देखा। वाट्सअप में प्रेषित वीडियो में उसी खोए हुए चश्मे में मेरा काव्य पाठ...
माँ तुम
लघुकथा

माँ तुम

माँ तुम रचयिता : वन्दना पुणतांबेकर ============================================ चुनाव के प्रचार प्रसार का जुलूस गॉव के कोने से गुजर रहा था। जुलूस की आवाजें सुनकर,काम से लौट रही माँ का हाथ छूटाकर भूरी आवाज़ की दिशा में भागी। सात साल की भूरी देखे ही देखते माँ की आँखों से ओझल हो गई। भूरी जब उस भीड़ में फस गई तो उसकी आँखों मे भय कॉप रहा था। वह बैचेन निगाहों से माँ को ढूंढने लगी। तभी एक व्यक्ति  भूरी को अकेला पा कर उसे फुसलाने की कोशिश करने लगा। इधर माँ चिंतित नज़रो से चारो ओर भूरी को ढूंढ रही थी। उसे भूरी कही भी नजर नही आई। तभी उसकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी वह भूरी का हाथ थामे उसे कुछ कह रहा था। लॉस्पिकर की आवाज में वह कुछ सुन ना सकी। भीड़ को चीरते हुए वह उस व्यक्ति तक पहुँची ओर जोर से उसके गाल पर तमाचा मारा वह उसके मन्तव्य को समझ चुकी थी। डरी सहमी भूरी माँ को देखते ही किसी कोमल फूल की तरह खिल उठी...
काबिलियत
लघुकथा

काबिलियत

काबिलियत ===================================================== रचयिता : संगीता केस्वानी आज ज़ीनत बहुत खुश है, मानो भाव -विभोर है, कि जैसे उसके आखों से आँसू नही थम रहे और होठों पे एक प्यारी सी मुस्कान है। हो भी क्यों न आज उसे अपनी मेहनत और तपस्या का फल जो मिला था। आज "रज़िया" ने दसवीं की परीक्षा में पूरे स्कूल में टॉप किया  है। उसकी सफलता और ट्रॉफी देख अनायास ही रो पड़ी और यादों के गलियारे से होते हुए उसे वो सारे मंज़र याद आगये, जब अहमद ने उसकी काबिलियत पर सीधा-सीधा तंज कसा था और उसे तलाक का जोरदार तमाचा मारा था।जो शारीरिक रूप से ना सही मगर मानसिक रूप से उसे घायल कर गया था।       आज मानो उसका सारा सफर, मेहनत और संघर्ष उसकी आँखों के सामने एक चल -चित्र सा घूम रहा था।जो उसने अपनी बेटी रज़िया को इस काबिल करने में तय किया था। अहमद से अलग होने बाद से लेके उसके  जॉब और जीवन-चक्र को चलाने की जदओ- ...
स्नेहबंधन
लघुकथा

स्नेहबंधन

स्नेहबंधन =================================================== रचयिता : कुमुद दुबे       शिखा लगभग तीस वर्ष बाद अपने पति सुनील के चचेरे भाई प्रखर की शादी में शामिल होने जबलपुर जा रही थी। शिखा की मां ने कह रखा था बेटा जब जबलपुर जा ही रही हो तो जगदीश चाचाजी और चाचीजी से भी मिल आना। चाचा का फोन आता रहता है। चाचा-चाची तुझे बहुत याद करते हैं क्योंकि तू ही उनके पास ज्यादा रहा करती थी। चाची के हाथ का शुद्ध घी से बना हलुआ तुझे बहुत पसंद था। वह जब भी बनाती तुझे जरूर बुलाती।        उनकी बेटी शशी और दामाद कुछ दिन पहले ही हमसे मिलकर गये हैं वे भी कह रहे थे बाबूजी-अम्मा आप सबको बहुत याद करते हैं। बेटा उनकी भी उमर हो चली है, वे सालों बाद तुझे देखकर बहुत खुश होंगे। तुझे तो याद ही होगा, अपन जब जबलपुर में रहा करते थे, तेरे पापा का अधिकतर टूरिंग जाॅब था तब उन लोगों का बहुत सहारा हुआ करता था।     शिखा ...
चाय
लघुकथा

चाय

मजदूरी =========================================================================================================== रचयिता : मित्रा शर्मा गावँ में एक आदमी का नोकरी लग गया। गावँ बहुत पिछड़ा  था। जब वह आदमी छुट्टी में घर गया तो खाने पीने का सामान याने की बिस्कुट चाय पत्ती बगैरह लेकर गया। पहली बार परदेश से गावँ में आने के खुशी में परिवार और गावँ के लोग का मजमा लग गया। छोटे बच्चे बगैरह मिठाई चाकलेट बगैरह बाटने के बाद बड़े लोग के लिए नास्ता पानी की ब्यबस्था होने लगा। चाय बनाने के लिए अपनी माँ को आवाज  लगाकर उसने वह पुड़िया पकड़ाई। नास्ते के साथ माँ  ने चाय पत्ती भी छोंक लगाकर परोसा। बेटा ने पूछा "यह क्या चीज है माँ ?  "माँ ने जवाब दिया तूने बनाने को दिया था न मैंने चटनी बनाई  । क्यों स्वाद नही आया क्या नमक मिर्च का ?  बेटे को हँसने के अलावा कोई चारा नही था ... विशेष :- लेखिका हिंदी भाषा सिख रह...
खिड़की
लघुकथा

खिड़की

खिड़की =========================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका बहुत जोर की ताली बजाती वह, जब भी गाड़ी उतार, चढ़ाव पर रहती। खिड़की के पास बैठना बस पसंद था तनया को। मां कहती देखो मानती नहीं ना, हवा के सामने बैठी हो, हवा लग गई। कैसी नाक बहने लगी है। पर हमेशा कही भी जाना हो, रेलगाड़ी की छुक-छुक और उसकी खिड़की जैसे जादू था, तनया के लिए। रेलगाड़ी की गति और समय आगे पीछे हो गये, वह चल पड़ी नई यात्रा पर। उसकी सोच और आनन्द बदलने लगे। अब वह खिड़की पर बैठती तो पतिदेव कहते तुम सामने बैठो। जब भी बाहर जाना होता यही होता। फिर बच्चों को भी खिड़की पसंद आने लगी। इस बार की यात्रा और खिड़की, ने झंझावात ला दिया उसके मन में। तुम उधर बैठो, में खिड़की के पास। वह बोली आप खिड़की के पास ही है। पतिदेव का जवाब था, नहीं में उसी तरफ की खिड़की के पास बैठना पसंद करता हूं, जिस और गाड़ी आगे बढती है। ...