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गद्य

आधुनिकता
लघुकथा

आधुनिकता

ममता रथ निवासी : रायपुर ******************** सीमा का मन आज बहुत उदास है, पति राजेश के बार-बार समझाने पर भी वो समझ नही रही की उसकी इकलौती बेटी उसे तुक्ष्छ मानती है । आज सीमा की बेटी मिताली के दोस्त घर आए थे। सीमा के व्यवस्थित घर व खाने की सभी ने खूब तारीफ की, सीमा ने भी कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी ,पर बात जब अंग्रेजी भाषा बोलने की आई तो सीमा मात खा गई। दोस्तों के जाते ही मिताली मां पर बरस पड़ी, पता नहीं आज के ज़माने में आप जैसे पिछड़े लोग कहा से आ गए हैं, मेरे दोस्त क्या सोच रहे होंगे। मन्नतो के बाद मिली बेटी पर नये जमाने का रंग चढ़ गया था। रात कटनी थी कट गई। मिताली अपने विश्वविद्यालय जल्दी चली गईं, सीमा भी काम में व्यस्त हो गई। मीताली कल की बात से दुखी हो सभी से नजरें चुरा रही थी। आज विश्वविद्यालय में बहुत भीड़ थी, आज कवि सम्मेलन था। सभी मंच के पास पहुंच गए। मंच पर अपनी मां को देख कर मिताल...
नदी
लघुकथा

नदी

रंजना फतेपुरकर इंदौर (म.प्र.) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में पंचम विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा गुनगुनाती, छलछलाती नदी की अथाह जलराशि की एक-एक बूंद उमंग से थिरक रही थी। नदी की धाराओं में संगीत और नृत्य का अद्भुत मेल था। सागर में अपना अस्तित्व विलीन करने की सुखद अनुभूति से वह अभिभूत थी। कभी वह किनारे के सुगंधित, रंगबिरंगे पुष्पों की कोमल पंखुरियों को और कभी विशाल वृक्षों से लिपटी लताओं को अपनी फुहारों से भिगो रही थी। प्राची की अरुणिमा ने अपने प्रतिबिम्ब से जैसे नव-वधु सी नदी को लाल चूनर ओढ़ा दी थी। आज नदी सारी बाधाओं को पार कर अपने आराध्य प्रियतम, सागर से मिलना चाहती थी।कभी इस मोड़ पर झूमती, कभी उस मोड़ पर नाचती नदी बही जा रही थी। लेकिन नदी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, उसकी काया क्षीण होने लगी। नदी की धड़कनों की गति धीमी होने...
घर वापसी
लघुकथा

घर वापसी

जितेन्द्र गुप्ता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में चतुर्थ विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा "अरे चलो, चलो जल्दी!" हंसते खिलखिलाते वे किशोर फटाफट अपने बेग्स लेकर उस एसी बस में चढ़ने लगे! सबके सब दुसरे स्टेट के रहने वाले थे और पढ़ाई के लिए इस शहर में रह रहे थे मगर महामारी के कारण लगे लॉक डॉउन में फंस गये थे। इनकी सुरक्षित घर वापसी हेतु एसी बसें लगाई गई थी। उनको रास्ते में खाने हेतु लंच पैकेट और पानी बोतलें भी थी। सभी हंसते, बतियाते, जा रहे थे। "अरे, देखो, देखो जरा!" सुमित ने जोर से कहा। पचासों पुरूष, महिलाएं सामान उठाये और बच्चों को गोद में या कंधे पर बैठाये सड़क किनारे-किनारे चले जा रहे थे। पसीने से लथपथ, थके-थके...। "बेचारे......." उनमें से एक किशोर अकड़ से बोला, "अरे मेरे पापा ने तो अपनी युनियन के द्वारा एड़ी च...
समीकरण
लघुकथा

समीकरण

प्रेम प्रकाश चौबे "प्रेम" विदिशा म.प्र. ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में तृतीय विजेता रही लघुकथा "मां, मैं भी कॉलेज जाऊंगी, मैं आगे पढ़ना चाहती हूं" बेटी ने अपना निर्णय सुना दिया। "नहीं, जितना पढ़ना था, पढ़ चुकीं" मां ने कहा। "इसे कौन सा डॉक्टर या इंजीनियर बनना है, शादी के बाद, चूल्हा ही तो फूंकना है, उस के लिए १२ वीं तक कि पढ़ाई काफी है", भैया ने अपनी समझदारी झाड़ी, जो सोफे पर मां के पास ही बैठा था। "क्यों, मैं इंजीनयर क्यों नहीं बन सकती? मैं ने गणित विषय लिया है। मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत शौक है" बेटी ने रुआंसे से स्वर में कहा। "और आप लोग हैं कि मुझे पढ़ने देना ही नहीं चाहते। मां तो पुरानी पीढ़ी की हैं, उन का ऐसा सोचना स्वभाविक है, भैया, पर तू तो नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है, फिर भी तू उन्हीं के पक्ष का समर्थन करता ह...
मजदूर दिवस
लघुकथा

मजदूर दिवस

ललित समतानी इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में द्वीतीय रही लघुकथा पूरे देश में लाक डाउन के कारण आज भी मजदूर चौक पर अभूतपूर्व सन्नाटा पसरा हुआ है। शहर में चारों और श्मशान जैसी शान्ती पसरी हुई है। न कोई ठेकेदार मजदूरों को लेने के लिए आया है और न कोई कारीगर मजदूरी के लिए आया हुआ है। दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं है कि, इस माह भी लाॅकडाउन समाप्त होगा। दूरदर्शन पर आज मुख्यमंत्री का एक मई 'मजदूर दिवस' पर सन्देश प्रसारित हो रहा था। मुख्यमंत्री कह रहे थे कि, 'कोई मजदूर उनके राज्य में भूखा नहीं रहेगा। सरकार सभी की देखभाल कर रही है।' राम सिंह ने जब मुख्यमंत्री का यह भाषण सुना तो, वह मन ही मन बड़बड़ाने लगा, "सरकार तो यह सोच रही है कि, मजदूरों के घर में खजाना गड़ा है। यह नहीं जानते कि दिन भर मेहनत करने पर शाम की रोटी आती ...
पुरवाई
लघुकथा

पुरवाई

श्रीमती अंजू निगम जाखन, (देहरादून) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रथम विजेता रही लघुकथा "अरे !!! रमेसी!! कब आया सहर से?" काका की आवाज खुशी से चमक रही थी। "आये तो पंद्रह दिनो से ऊपर हो गये। पर यहाँ आये के पहले, वो नजदीक का अस्पताल वाले धर लिये। वही चौहद दिनो का वनवास काट के कल ही गाँव आये गये रहेन। सोचे खेतो की तनिक सुध ले लूँ।" "अच्छा हुआ भईया, जो खेत बेच के न गये। कौनो ठौर तो रही अब। बढ़िया किये जो वापसी कर ली।" "हाँ कक्का!! खाने रहने सब का जुगाड़ खतम हो गया था। परदेस में कोई हाथ थामने वाला न बचा। सोचे, मरना ही हैं तो अपनो के बीच मरे। कोई मिट्टी देने वाला तो हो।" "ऐसा असुभ न निकालो रमेसी। तुमको मालूम, तुम्हारे बाद कितना लड़कन सहर की ओर भाग गये रहे। आधा गाँव खाली हुई गया था। तुम भी तो पलट कभी गाँव का सुध न लियो। चलो, अब धीमे...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरी दूसरी कक्षा की परिक्षाएं ख़त्म हो चुकी थी। कक्षा में मेरा पहला क्रमांक आया था और मैं पढाई में एक पायदान ऊपर तीसरी कक्षा में पहुच चुका था। अब मैं सिर्फ अपने पिता के ग्वालियर आने का इन्तजार कर रहा था। इसी बारे में सोचता रहता। इसके अलावा कही भी मेरा मन ही नहीं लगता। यहां इस घर में मेरी नानी कई दिनों से मेरे नाना के पीछे लगी थी कि उन्हें परीन्छा की यात्रा करने की बहुत इच्छा है। वहां निम्बालकर की गोठ में स्थित अन्ना महाराज के गुरु सरभंगनाथ महाराज का मंदिर था और हर वर्ष चैत्र महीने में वहां होने वाले उत्सव में सैकड़ो भक्त श्रध्दा और भक्ति से दर्शन हेतु जाते। काकी ने बताया मुझे कि एक बार नानाजी की तबियत बहुत खराब हो गयी थी, बचने की उम्मीद नहीं थी उस वक्त नानी ने मन्नत मांगी थी और प्रण किया था कि नानाजी की तबियत ठीक होने के बाद एक बार वह पर...
आवश्यक कार्य
लघुकथा

आवश्यक कार्य

नीलेश व्यास इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** ”रुको भैया”..... ! यह आवाज सुनकर मुक्तिधाम के कर्मचारी उस समय ठिठक गये जब वह कोराना की वजह से मरने वाली एक महिला का अन्तिम संस्कार करने जा ही रहे थे, चारों व्यक्तियों ने पास आकर बताया कि यह उनकी माँ है। ”हम समय पर आ गये” चारों के मुख से बोल फुटे। फिर उन्होंने यह कहकर कि हमें अति आवश्यक कार्य करना है मृतक के पास जाने की अनुमति प्राप्त कर ली, उन्हें अत्यन्त दुखी देख, कर्मचारी भी भावुक हो गये ओर यह विचार कर की कोरोना पीड़ित को छुना तो दुर कोई देखना भी पसंद नहीं करते, यह माँ कितनी भाग्यशाली कि चारों पुत्र श्रद्धाजंली देने, मुख में जल डालने के लिये अपनी जान पर खेल कर आये है, पर यह क्या उन चारों ने फटाफट शव का कव्हर खोलकर शव के पहने गहने उतार लिये, फिर कर्मचारीयों से कहा कि ”भैया हमारा काम तो हो गया, अब आप...
बदनाम गली
लघुकथा

बदनाम गली

जीत जांगिड़ सिवाणा (राजस्थान) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित लघुकथा लेखन प्रतियोगिता हेतु प्रेषित की गई लघुकथा "अरे यार। मतलब हद है मुर्खता की। तुम वहां गये हो।" "गया तो कोई बात नहीं मगर इतना रिस्क कौन लेता है।, " सभी जाते हैं। तुम नहीं जाते क्या?" "जाता हूँ मगर इन महाशय की तरह पैसे बाँटने नहीं।" "खैर इनको दस बीस हजार से क्या फर्क पड़ता है? महीने भर की ही तो सेलेरी थी।" "और जब तुमको साथ चलने को कहा था तब तो तुम्हें बड़ी शराफत चढ़ रही थी।" दोस्तों द्वारा की जा रही सवालों की इस बारिश के बीच रणजीत सहमा हुआ खड़ा था। "तुम लोगों को साथ चलना हैं तो चलो वरना मना कर दो और वैसे भी मुझे कोई शौक तो है नहीं पैसे बाँटने का। उसने कहा कि मुसीबत में हूँ, कल तक लौटा दूंगी। और उसके चेहरे से और उसके आंसुओ से पता चल रहा था कि वो जरुर किसी मुसीबत में है" रणजीत ने टोकते हुए कहा। "अच्छा। तुम्ह...
बचपन
लघुकथा

बचपन

मनीषा शर्मा इंदौर म.प्र. ******************** आज अचानक बहुत सालों बाद एक सहेली से बात हुई। बात क्या हुई, समझ लीजिए बचपन से मुलाकात हुई। वह बेफिक्रा बचपन ना जाने कहां खो गया। जिसमें ना कोई दुख था, ना परेशानी थी, ना जिम्मेदारी, न कड़वाहट थी। सभी तो अपने थे। वह गांव की गलियां जहां निडर होकर दिन रात घूमा करते थे। गांव में एक मंदिर था। जिसके हाल में गर्मियों की दोपहरे गुजरा करती थी। गांव के सभी लोग बच्चों से प्यार करते थे। गलतियां करने पर डांट भी देते थे। पर जब डांट पड़ती तो सोचते हम कब बड़े होंगे। जब हम बड़े होंगे तो कोई हमें नहीं डांटेगा। हमारे पास पैसे होंगे। हम कहीं भी अकेले घूमने चले जाएंगे। अपनी मर्जी के मालिक हो जाएंगे। जो चाहेंगे वही करेंगे। ना कोई रोकने वाला होगा ना कोई टोकने वाला। किंतु तब कहां पता था, कि बड़े होना क्या होता है? जैसे-जैसे हम बड़े होते गए वैसे वैसे हमारी छोटी-छोटी पर...
कचरा गाड़ी
लघुकथा

कचरा गाड़ी

डॉ. स्वाति सिंह इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** तुम क्या सोचती हो? क्या होगा? सब कुछ ठीक होगा भी या नहीं? कब तक ऐसे ही चलता रहेगा, पता नहीं। ऊपर से वह कचरा गाड़ी में करोना का संदेश। बाप रे पूरा दिन खराब हो जाता है सुनकर। श्रुति को उसकी बातों में कोरोना का खौंफ साफ-साफ नजर आ रहा था। वह फिर भी बोली अरे सब कुछ सामान्य हो जाएगा। देखो चाइना पूरा खुल चुका है। तो हमारा देश क्यों नहीं। हालांकि श्रुति जानती थी कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाला देश, जहां न सुविधाएं हैं, न साधन। वहां क्या ठीक होगा। वह अंदर से बहुत डरी हुई थी। रोज के डरावने समाचार। ऊपर से ऑफिस वालों को इतने खौंफ में देखकर उसका मन डूबा जा रहा था। वह सोचने को मजबूर हो गई कि परिस्थितियां बहुत ही गंभीर हैं। उस दिन बात करने के बाद तो वह बहुत ही डरी हुई थी। रात को भी ठीक से सो नहीं सकी। अगले दिन घबराहट में वह जल्दी उठ गई और घर का काम...
परत दर परत
लघुकथा

परत दर परत

राजकुमार अरोड़ा 'गाइड' बहादुरगढ़ (हरियाणा) ******************** किशना पूरे गांव में घूम-घूम कर अपनी माँ की सत्रहवीं में आने के लिये सबको कह आया था। कारज में देसी घी का खाना था। सफ़ेद चकाचक कपड़े पहने किशना गर्वित मुद्रा में सबका अभिवादन कर रहा था। ११ पण्डितों द्वारा पाठ पूजा व उनके भोजन करने के बाद गांव वालों ने खाना शुरु कर दिया था अभी दो ही घंटे बीते थे तभी गांव के सरपंच के पिता मेजर दरियाव सिंह जो फ़ौज में शहीद बेटे की विधवा बहु पोते पोती की देखभाल के लिय शहर में रहते थे आ गये, किशना के कंधे पर हाथ रख कर बोले अब माँ की सत्रहवीं पर इतना बड़ा आयोजन कर वाहवाही ले रहे हो, जब तुम सिर्फ ७ साल के थे, तुम्हारे पिता के रेल दुर्घटना में मरने के बाद, छोटी सी दुकान से तुम्हें पढ़ाया, काबिल बनाया। १२ साल तुम्हारी माँ कूल्हे की चोट का सही इलाज न होने के कारण घिसटती रही, यही पैसा जो आज तुम दिखावे में लुट...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १५
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १५

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** नानाजी अब कभी कभार मुझे उनके साथ बाहर भी ले जाने लगे। ख़ास कर रविवार को मैं उनके साथ सब्जी मंडी जाने की जिद भी करता। वे बड़ी ख़ुशी से मुझे ले जाते। नानाजी को सब्जी लेने के लिए किसी थैले की जरुरत नहीं पड़ती थी। इसके लिए उनके पास एक अलग ही मजेदार तरीका होता। सब्जीमंडी में खरीदी सब्जी रखने के लिए वे अपनी धोती का उपयोग करते। वे अपनी धोती की आगे की घड़ियाँ (कासोटा) खोल लेते और उस आधी खुली हुई धोती में सारी खरीदी हुई सब्जी भरकर धोती में गठान बांध लेते। फिर उसे अपने कंधे पर ले लेते। एक हाथ से वो मेरी उंगली पकड़ते। दिवाली बाद ग्यारस के दिन गन्ने का गट्ठा भी वें अपने कंधो पर ही लाद कर लाते। नानाजी को भी अब मुझसे लगाव सा हो गया था। रविवार को या छुट्टी वाले दिन वो मुझे अपने साथ कही न कही बाहर ले जाने लगे। कभी बाड़े पर के पार्क में या कभी दत्तमंदिर में य...
एक पत्र देश के नाम
पत्र

एक पत्र देश के नाम

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** एक पत्र देश के नाम २६ मई २०२० इंदौर(म.प्र.) प्रिय देश, सादर नमस्कार🙏🏻 तुम्हारी भूमि में जन्म लेकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम भी मेरे समान आदर्श नागरिक पा कर प्रसन्न होंगे। तुम्हे विदित हो कि इस धरा पर बड़े होते हुए मुझमे तुमसे प्रेम और आत्मीयता अनायास ही सहज रूप से पनप गई है। पिछले दो दशकों में समझ नहीं आता कि तुम्हारे विकास और उन्नति का जश्न मनाऊँ या तुम्हारे मौलिक गुणों के पतन का मातम मनाऊँ। उम्र के हर पड़ाव पर मैंने तुम्हारे साथ परिवर्तन को महसूस किया है। मेरे प्यारे देश तुम्हारा वो समय जब यहाँ की बेटियाँ, लाज शर्म में रहते हुए, बेख़ौफ़ सभी में अपनापन अनुभव किया करती थी। यहाँ के बेटे नैतिक रूप से संबल थे। यहाँ का हर नागरिक आपसी बंधन में मजबूती से बंधा था। भौतिक संसाधनों और सुख-सुविधाओं को पाने की होड में हे ! भारत आज जो तुम्...
हमने क्या-क्या देखा
आलेख

हमने क्या-क्या देखा

डॉ. सर्वेश व्यास इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************** जब से हमने कोरोना को देखा ना पूछो, हमने क्या-क्या देखा इंसान में हमने भक्षक को देखा इंसान में हमने रक्षक को देखा इंसान को हमने लूटते देखा इंसान को हमने लुटाते देखा पकवान खाते अमीरों को देखा ठोकरें खाते मजदूरों को देखा धनवानोंं को भंडार भरते देखा गरीबों को रोड़ पर मरते देखा विदेशों से लोगों को आते देखा देश में लोगों को पैदल जाते देखा स्वास्थ्यकर्मी पुलिस और निगम कर्मी के रूप में भगवान को देखा उनसे दुर्व्यवहार करने वाले हैवान को भी देखा लोगों की सेवा करते साधक योगी को देखा स्वस्थ होकर धन्यवाद देते रोगी को देखा दूरदर्शन पर महाभारत व रामायण को देखा दुनिया को व्यायाम और योग में परायण देखा साथ समय बिताते परिवार को देखा बैर भाव की गिरते दीवार को देखा जब से हमने कोरोना को देखा ना पूछो, हमने क्या-क्या देखा . परिचय :-  डॉ. सर्वेश व्यास ...
कोरोना के बाद की दुनिया
आलेख

कोरोना के बाद की दुनिया

मंगलेश सोनी मनावर जिला धार (मध्यप्रदेश) ********************** कोरोना, यह शब्द कुछ माह से मन को झकझोर जाता है, इसने मानव सभ्यता की वर्तमान व भविष्य की योजनाओं को उथल पुथल कर के रख दिया। इस संक्रमण के बाद के जन जीवन पर इसका बहुत प्रभाव रहने वाला है, आने वाले कई वर्षों तक हमें संक्रमण से सावधान रहना होगा, प्रदूषण को रोकना और प्रकृति के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना होगा। विश्व की महाशक्तियों को युद्धक जैविक हथियारों की होड़ को समाप्त करने के विषय में महत्वपूर्ण व कठोर निर्णय लेना होंगे। क्योंकि संदेह यह है कि चीन के वुहान प्रान्त की रासायनिक लैब से फैला यह कोरोना वायरस वैज्ञानिकों द्वारा युद्ध में जैविक हमले के लिए बनाया जा रहा था, इस संदेह को चीन का डब्लूएचओ अधिकारियों को चीन में जांच न करने देना बल देता है। मास्क, सेनेटाइजर, हाथ धोना, दूर रहकर व्यवहार करना ये आम जन जीवन का अंग बन जाएंगे। ...
अबाॅर्शन
कहानी

अबाॅर्शन

जितेंद्र शिवहरे महू, इंदौर ******************** कान्ताप्रसाद अभी-अभी बाज़ार से लौटे थे। मंद ही मंद बड़बड़ाएं जा रहे थे। "क्या समझते है अपने आपको? हमारा कोई मान-सम्मान है की नहीं! बड़े होंगे अपने घर में! हम भी कोई ऐरे-ग़ेरे नत्थू खेरे नहीं है।" कान्ता प्रसाद का क्रोध सातवें आसमान पर था। जानकी ने गिलास भर पानी देते हुये पुछा- "क्या बात हो गयी माया के पापा! इतना गुस्सें में क्यों हो?" "अरे! वो माया के होने वाले ससुर! मुझसे कहते की हाइवे वाली सड़क पर जो हमारी जमींन है उन्हें बेच दूं! हूंsssअं! कहने को तो कहते है कि हमे दहेज नहीं चाहिये। तो फिर ये क्या है?" कान्ता प्रसाद दहाड़ रहे थे। माया ने चाय की ट्रे सामने टी टेबल पर रख दी। जीया कुछ दुरी पर खड़ी होकर सब देख सुन रही थी। "क्या उन्होंने आप से स्वयं जमींन की मांग की!" जानकी ने पुछा। "हां! जानकी। मुझे लगा की कोई जरूरी बात के लिए मुझे वहां बु...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १४
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १४

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** कुछ दिनों बाद की बात है। उस दिन शाम के समय मैं छज्जे में बैठ कर रामरक्षास्त्रोत कह रहा था। अब मुझे सब श्लोक अच्छी तरह से कंठस्थ हो गए थे। मैंने देखा पंतजी लाठी टेकते हुए धीरे-धीरे मेरी और आ रहे थे। उनका ध्यान मेरी ओर ही था। मुझे अकेला छज्जे में बैठ कर श्लोक बोलते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। मेरे पास आकर वें बोले, 'दियाबाती के समय ऐसे अकेले यहां छज्जे में बैठे क्या कर रहे हो? नीचे जाओं सब बच्चों के साथ झूले पर।' मैंने कोई जवाब नहीं दिया। पंतजी को मुझसे बोलता देख काकी भी नीचे बरामदे से ऊपर मेरे पास आकर खड़ी हो गयी। हम को आपस में बात करता देख नानाजी भी हमारे पास आकर खड़े हो गए। अरे, मैं क्या पूछ रहा हूं?' पंतजी बोले, 'तुम्हें अब सारे श्लोक, रामरक्षा और मन के श्लोक समेत सब सीखना और याद करना चाहिए। जाओं नीचे बच्चों के साथ जाकर बैठो, कुछ सीख लो।' ...
स्नेह भोज
लघुकथा

स्नेह भोज

मनीषा शर्मा इंदौर म.प्र. ******************** स्नेह भोज बस नाम ही रह गया है। वर्तमान में विवाह आदि समारोह में होने वाले भोज को स्नेह भोज तो कदापि नहीं कह सकते। हाल ही में हुए ऐसे ही एक आयोजन में मेरा जाना हुआ। भांति भांति के भोजनोकी व्यवस्था थी। महक से मन ललचा रहा था। मुंह में पानी भी आ रहा था, किंतु भोजन प्राप्त करने की होड़ लगी हुई थी। और मेरा तो प्लेट लेना ही मुश्किल हो रहा था। एक कदम आगे बढ़ाती तो किसी का धक्का दो कदम पीछे कर देता। बड़ी मशक्कत के बाद प्लेट तो मिल गई, पर असली जंग तो अभी बाकी थी।१५-२० प्रकार की सब्जियां, रोटी, पराठा, पुरी, चार पांच तरह की मिठाइयां, नमकीन, दही बड़ा और हां आइसक्रीम इन सब तक पहुंचना और उन्हें पाना बहुत मुश्किल था। मैंने भी साड़ी के पल्लू को कमर में दबाया और आगे बढ़ी। सलाद तो बेचारा लोगों की राह ही देख रहा था। मैंने कुछ टुकड़े ककड़ी, टमाटर के उठाए और फिर क...
स्नेह भोज
लघुकथा

स्नेह भोज

मनीषा शर्मा इंदौर म.प्र. ******************** स्नेह भोज बस नाम ही रह गया है। वर्तमान में विवाह आदि समारोह में होने वाले भोज को स्नेह भोज तो कदापि नहीं कह सकते। हाल ही में हुए ऐसे ही एक आयोजन में मेरा जाना हुआ। भांति भांति के भोजनोकी व्यवस्था थी। महक से मन ललचा रहा था। मुंह में पानी भी आ रहा था, किंतु भोजन प्राप्त करने की होड़ लगी हुई थी। और मेरा तो प्लेट लेना ही मुश्किल हो रहा था। एक कदम आगे बढ़ाती तो किसी का धक्का दो कदम पीछे कर देता। बड़ी मशक्कत के बाद प्लेट तो मिल गई, पर असली जंग तो अभी बाकी थी।१५-२० प्रकार की सब्जियां, रोटी, पराठा, पुरी, चार पांच तरह की मिठाइयां, नमकीन, दही बड़ा और हां आइसक्रीम इन सब तक पहुंचना और उन्हें पाना बहुत मुश्किल था। मैंने भी साड़ी के पल्लू को कमर में दबाया और आगे बढ़ी। सलाद तो बेचारा लोगों की राह ही देख रहा था। मैंने कुछ टुकड़े ककड़ी, टमाटर के उठाए और फिर क...
कोरोना:  सामाजिक, सांस्कृतिक, मानसिक एवं आर्थिक आपदा
आलेख

कोरोना: सामाजिक, सांस्कृतिक, मानसिक एवं आर्थिक आपदा

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                                           भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में शुमार हैं, इसके मूल्य और विश्वास, सत्य, अहिंसा, त्याग सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करते हैं। जन-जन से परिवार, परिवारों से समाज, समाजों से राष्ट्र का निर्माण होता है। अपने देश भारत का निर्माण इसी संकल्पना पर आधारित है। शाश्वत मूल्य, 'अनुव्रत:पितुः पुत्रः' (पुत्र पिता का अनुवर्ती हो) अर्थात निर्धारित कर्तव्य का समुचित रूप से पालन करने वाला हो। 'सं गच्छध्वं सं वद्ध्वम' से भारतीय संस्कृति अनुप्राणित है। हमारे यहां कहा गया है कि मनुष्य दूसरों का अध्ययन न कर स्वयं के अध्ययन में समय व्यतीत करे, हमेशा दूसरों की भलाई के बारे में विचार करे। इस वैश्विक परिदृश्य में कोविड-१९ को हमें सम्मिलित प्रयास से ही अपने इन्हीं प्राचीन शाश्वत म...
छोटी बहन
लघुकथा

छोटी बहन

जितेन्द्र गुप्ता इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************  एक प्रौढ़वय स्त्री प्रतिदिन बाजार से गुजरती। शांत सौम्य, सुंदर सा अलंकृत चेहरा। बातें जैसे मनमोहनी जब भी बात शुरू करती तो लगातार कहती रहती और लोग भी पुरे चाव से सुनते। कुछ समय बीतते-बीतते लोग का जैसे मन भरने लगा था कि एक नई स्त्री उस प्रौढा के साथ बाजार में दिखने लगी। इसकी वय ज्यादा नहीं थी। परिपक्वता चेहरे और बातचीत से झलकती थी। ये थोड़ा कम बोलती थी मगर जो भी बोलती सारगर्भित और भावनात्मक रूप से लबरेज। प्रौढा के बहुत से चाहने वाले और कुछ नये रसिक इसके दिवाने हो गये। सब उसके पीछे-पीछे बतियाते, चुहलबाज़ी करते घुमने लगे। सब आनंद में चल रहा था कि अचानक उन दोनों के साथ एक बहुत कमसीन, मासूम सी किशोरी बाजार में दिखी। एकदम शर्मिली, चुप-चुप सी। सारे शोहदे उसके पीछे लग लिये। सब अपने-अपने तरीके से शब्द बाण चला रहे थे। पहली दोनोें स्त्रीय...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १३
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १३

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** तीन वर्ष पूरे कर आठ माह हो चुके थे और अगले कुछ माह में मैं चार वर्ष का होने वाला था। दिन मजे में गुजर रहे थे। काकी पूरी सदिच्छा और आनंद के साथ मुझे सम्हाल रही थी। मेरा सब नियमित रूप से कर रही थी। अब मैं थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगा था। अपनी जरुरतें मैं सब को बोल कर बताने लगा था। अच्छी तरह से चलने भी लगा था इसलिए काकी अब अपने साथ मुझे लेकर बाहर भी जाने लगी। परेठी मोहल्ले में भी काकी की ससुराल हम कभी-कभार जाने लगे। प्रत्येक गुरूवार काकी बिना नागा शाम के समय मुझे अपने साथ ढोलीबुआ के मठ में ले जाने लगी। मुझे सम्हालना काकी के लिए अब आसान हो गया था। फिर भी उनका सारा ध्यान मेरी ओर ही लगा रहता। काकी के जीवन जीने के कठोर नियम और उससे भी बढ़कर उनके कठोर अनुशासन से मेरा रोज ही सामना होता था। बाकी किसी से भी उनका कोई लेना देना ही नहीं था । काकी का सारा ज...
सावन
संस्मरण

सावन

मनीषा शर्मा इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** सावन स्वभाव से ही मस्ती भरा है। जब भी आता था रौनक छा जाती थी। सब खुश हो जाते थे, पर लोगों की तरह यह सावन का महीना भी कितना बदल गया है। सावन ने गीत, झूले, मस्ती, फुवारे, हरियाली, मेल-मिलाप व्रत-त्योहार सब को छोड़ दिया और एक व्यस्त एकल परिवार की तरह गुमसुम सा हो गया है। मुझे आज भी याद है जब हम छोटे थे तो सावन के महीने का बड़ी बेसब्री से से इंतजार करते थे।सावन के आते ही गांव की बहने और बुआएं अपने मायके आ जाती थी। पेड़ों पर झूले पड़ जाया करते थे। मंदिर में प्रतिदिन भजन कीर्तन होते थे और अखंड रामायण पाठ का भी आयोजन किया जाता था। सोमवार के दिन सुबह-सुबह सभी लड़कियां और महिलाएं पूजा की थाली हाथ में लेकर शिवालयों की ओर निकल पड़ती थी। गांव की लड़कियां और औरतें इकट्ठी होकर झूला झूलने जाती थी और आंगन में सावन के गीत गूंजते थे। बच्चे पानी से ...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १२
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १२

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** पूजा ख़त्म हो गयी। रामजी को और भगवान दत्तात्रय को भोग भी चढ़ाया जा चुका था। अभी ब्राह्मणों सहित सबके भोजन होने थे। राममंदिर के बाहर बरामदे में सबके लिए पटे बिछाएं जा रहे थे। ब्राह्मणों सहित घर के बड़ों को तो उपवास ही था। इसलिए जिन्हें उपवास था ऐसे पुरुषों के लिए अलग से पटे बिछाए गए थे। सब आसन ग्रहण करने ही वाले थे कि उतने में काकी मुझे गोद में लिए अपनी पोटली कंधे पर टाँगे बरामदे में आयी। मुझे उन्होंने नीचे छोड़ा और पंतजी को बोली, 'मुझसे अब नहीं सम्हाला जाता ये अक्का का बेटा। उम्र हो गयी है अब मेरी। अब समधीजी आप ही इसे सम्हाले।' इसके बाद काकी नानाजी की ओर मुड़ी, 'दामादजी, मेरे स्वामी के गुजर जाने के बाद भतीजों ने धक्के मार कर मुझे मेरे ही घर से बेदखल कर दिया था। आप मुझे आग्रह कर के इधर ले कर आए। बेटी के यहाँ आसरा मिलेगा और बचे हुए दिन रामजी ...