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गद्य

सुशांत जैसी शख्सियत का यूँ जाना अखरता है मानव जाति को
आलेख

सुशांत जैसी शख्सियत का यूँ जाना अखरता है मानव जाति को

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** चिट्ठी ना कोई संदेश, इस दिल को लगा के ठेस कहाँ तुम चले गए....? हर दिल अजीज, उम्दा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत सर आज आप हमारे बीच नहीं हैं ख़बर सुनने के बाद ना जाने कितनी बार मेरी आँख नम हुई गला रुंध सा गया! मेरी मन: स्थिति कुछ भी लिखने की नही है लेकिन आपकी इस आत्महत्या ने मानव जाति के लिए जो सवाल छोड़ें हैं उसको लिखना भी जरूरी लग रहा है! एक पूरा जीवन जो इस धरा पर आने में सतरंगे सपनों से लेकर नौ माह का खूबसूरत समय लेता है, अचानक ऐसी कौन सी विवशता, लाचारी, दुख, दर्द इंसान को घेर लेता है कि जिंदगी जीने से ज्यादा मौत प्रिय लगने लगती है! हर कोई सवाली है इस वक्त कि आखिरकार ऐसी क्या पीड़ा ऐसी कौन सी मानसिक विचलन मन में रही होगी कि सुशांत सिंह राजपूत जैसी शख्सियत ने मौत को गले लगाया? क्यों अचानक अपनों को रोता विलखता छोड़ कर इंसान चल देत...
रक्तदान दिवस
आलेख

रक्तदान दिवस

मंगलेश सोनी मनावर जिला धार (मध्यप्रदेश) ********************** दान की महत्ता क्या होती है यह सनातन धर्म से अधिक कौन जानेगा? हमने अपना तन, शरीर, सर्वस्व देकर भी शरणार्थी की रक्षा की है। राजा शिवि ने एक कबूतर की जान बचाने के लिए अपना पूरा शरीर काट काट कर बाज को दान कर दिया। राजा बलि ने संपूर्ण सृष्टि तथा स्वयं को भी भगवान वामन अवतार को दान किया। ऋषि दधीचि ने जीवित ही अपनी रीढ़ की हड्डी का दान किया जिससे वज्र का निर्माण होकर मानव समाज की रक्षा हुई। इसी प्रकार मानव कल्याण के लिए रक्तदान का भी विशेष महत्व है। भारत जैसे बड़े देश में रक्त की उपलब्धता एक बहुत बड़ा विषय है। एक्सीडेंट, चिकित्सा, सर्जरी, आदि हेतु भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है जबकि हम चिकित्सालय व अन्य सभी संस्थाओं के माध्यम से ७५ लाख यूनिट ही एकत्रित कर पाते हैं। कई परिवार रक्त की अल्पता के कारण उजड़ जात...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग – १९
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग – १९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दुसरे दिन की सुबह एक नया ही उजाला ले कर आई। सुबह साढ़े पांच बजे घडी में अलार्म जोर से बजा। सबसे पहले दादा उठ गए पर हम दोनों की आंखों में नींद समाई हुई थी। मेरे लिए घडी का अलार्म यह कुछ नया सा था। अब आगे क्या होगा इस उत्सकुता के साथ मैं बिस्तरे पर ही लेटा रहा। दादा ने अपने नित्यकर्म से निपटने के बाद हम दोनों को आवाज दी, 'बाळ-सुरेश,उठोI छ: बज गए जल्दी निपटलो। बिटको की शीशी वहां रखी है। दोनों के लिए पानी की बाल्टियां भी भर कर रखी है। पहले अच्छे से दांत साफ़ कर लो। जीभ अच्छे से साफ़ करना। मैं दोनों के लिए दूध गर्म कर रहा हूं। जल्दी करों।' सुरेश उठ खडा हुआ। उसने अपनी दरी और चादर अच्छे से घडी कर जगह पर रख दी। मुझे ग्वालियर की याद आयी। काकी के कमरें में तो जूट के बोरे से बनायी दरी दिनभर बिछी ही रहती थी। और नानाजी के कमरें में भी खाट पर वैसे ही द...
मन की बात
लघुकथा

मन की बात

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** एक बार दाँतों और जबान में फालतू की बहस छिड़ गई। जबान बोली- "कितने दिनों से बाहर का खाना नहीं टेस्ट किया।" दाँत ने होशियारी दिखाई बोला क्या बेवकूफ की तरह बात करती हो? सरकार ने लॉक डॉउन यूँ ही लगाया है क्या? मूर्ख कहीं की! दाढ़ बोली- "तुम बहुत ज्यादा पटर-पटर करने लगी हो, इतनी हलचल अच्छी नहीं। मालूम है ना तुम एक हो और हम बत्तीस हैं। "जबान तुनककर बोली- "मुझ पर रौब जमाने की जरूरत नहीं अपने काम से काम रखों समझे!" सामने के दाँत ने गुस्से से कहा- "बाहर मत आना नहीं तो सामने से कट जाओगी तुम समझी! अब जबान से रहा नहीं गया वो भी गुस्से में बोली- "एक बार गलत चल गई ना तो ऐसा घूँसा पड़ेगा कि सब बाहर आ जाओगे। "इस बहस को बढ़ते देख मन चिंतित हो उठा।उसने होंठ को प्रेरणा दी। होंठ बोल पड़े- "अरे भाई सब शांत हो जाओ, कुछ भी करोगे तो नुकसान सबका एक समान ही ह...
पापा जिंदा है
लघुकथा

पापा जिंदा है

अर्पणा तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) पांच साल की नन्हीं मासूम गुड़िया की समझ में नहीं आ रहा था कि, पापा के आने की चिट्ठी पढ कर तो दादी और मां दोनों मिलकर पापा की पसंद के पकवान बनाती थीं, फिर आज पापा के आने की चिट्ठी पर घर में सब क्यों रो रहे है? आखिर दादी के पास जाकर गुड़िया ने अपना प्रश्न दादी से पूछा, दादी गुड़िया को सीने से लगाकर फफक फफक कर रोने लगी, गुड़िया मेरी बच्ची तेरे पापा देश की सेवा करते हुए शहीद हो गए है। तुझ पर से पिता साया हट गया है मेरी बिटिया, तेरे पापा अब इस दुनियां में नहीं रहे बेटी, दादी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, लेकिन दादी पापा ने तो मुझसे कहा था कि जो देश की सेवा में शहीद होते है, वे हमेशा जिन्दा रहते है, देश की हवाओं में, देश की मिट्टी में और देशव...
पछ्तावा और सीख
लघुकथा

पछ्तावा और सीख

कंचन प्रभा दरभंगा (बिहार) ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) मेरी सहेली गितिका अपने यादों में खोई छत की मुंडेर पर बैठी थी अचानक मुझे वहां देख कर चौंक गई। मैनें पुछा 'क्या हुआ गितिका तुम चौंक क्यो गई' और मैनें उसकी आँखो में आंसु देखे। फिर से उसे अपनी जिन्दगी के वो मनहूस पल याद आ रहे थे जब उसके अनुसार उसके जीवन का अन्त हो गया था शायद इस लिये उसके आँखो में आंशु दिख रहे थे। गितिका मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती थी। काफी बाचाल थी हमेशा हँसते रहना उसकी पहचान थी। कॉलेज में भी वो सबकी चहेती थी। उसके इसी हंसमुख स्वभाव के कारण कॉलेज का एक लड़का मयंक उसे चाहने लगा। कॉलेज खत्म हो गई दोनों अपने अपने घरवालों से बात की और हाँ हो गई। दोनों के परिवार बहुत अच्छे थे। काफी धूम-धाम से दोनो की शादी हो गई। नये घर मे जा कर गितिका काफी ...
पछतावा
लघुकथा

पछतावा

मनोरमा जोशी इंदौर म.प्र. ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) आज अमन बहुत खुश है, माँ को पहली नौकरी की खबर देता है। माँ आशीर्वाद देते अतीत में खो गई। वह हृदय विदारक घटना जब पिता देव का दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो गया। कैसे ! अमन को बीमार पड़ने पर रात में अकेली हॉस्पिटल लेकर दौड़ती, कैसे! स्कूल लेने छोड़ने...और ना जाने क्या-क्या याद आने लगा। माँ क्या सोचने लगी? कुछ नहीं बेटा जब तू तीन साल का था तब से आज तक....हाँ माँ कैसे सिलाई में दिनभर भीड़ी रहती हो, पर अब मत सोचो ये सब अब! कुछ समय बीता अमन को विदेश भेज जाना पड़ा, केरल के मूल निवासी थे, समय-परिस्थितियों ने यही का रख छोड़ा था। माँ-बेटे का कोई अपना ना था, बेटा माँ को एक वर्ष का वादा कर वृद्धाश्रम में छोड़कर चला गया।दो वर्ष बीत गए, शुरू में अमन का फोन आता था, अब वो ...
दर्द लघुकथा
लघुकथा

दर्द लघुकथा

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** मुन्नी चलो, रमा सब सामान रख लो। राजू को गोदी में बारी-बारी से उठा लेंगे। मुन्नी ने कहा, कहां चले बापू ? रमेश ने कहा, हम अब यहां नहीं रहेंगे। इस शहर ने हमें दिया ही क्या है ? १० वर्ष हो गये, हम यहां कमाने खाने के लिए अपने गांव से शहर "मुंबई "आए थे। इन १० वर्षों में मेहनत और परिश्रम किया भवन का निर्माण किया। कभी गुंबद पर चढ़कर, कभी मंदिर के नींव में दबकर, लेकिन लॉक डाउन में जब लोगों की बारी आई तब हमारा ख्याल रखने को कोई नहीं आया। सबने हाथ झटक दिए। तीन दिनों से हम भूखे और प्यासे हैं। कोई पानी तक को पूछने नहीं आया। सेठ ने हमें नौकरी से निकाल दिया। अब क्या करें? तो हमें हमारा गांव ही दिखाई दे रहा है। धीरे से रमा ने कहां, लेकिन हम गांव जाएंगे कैसे? ट्रेन, बस तो चल नहीं रही है। रमेश ने जवाब दिया, अभी हमारे हाथ पैर सही सलामत हैं। हम पैद...
इंसान
लघुकथा

इंसान

नीलेश व्यास इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** ”यहाँ कोई इंसान नही है ? .....यहाँ कोई मेरा अपना नही है ?” यह दारुण शब्द उन माताजी के थे, जो कोरोना का ईलाज सफलता पुर्वक होने पर आज ही जब अपने घर पहुँची थी, तब एक ओर उनके तीन पुत्रों मेे से बड़े दो की पत्नियों ओर बच्चों के द्वारा माताजी को अपने साथ रखना तो दूर, उनके पास जाने तक के लिये स्पष्ट रुप से इंकार कर दिये जाने के आदेश के कारण दोनो पुत्र गरदन झुकाये खड़े थे, वहीं दूसरी ओर माताजी की ममता ओर क्रोध दोनों बरस रहे थे किन्तु बेबस माताजी अब कर भी क्या सकती थी, उसी समय माताजी के सबसे छोटे ओर उस ”नालायक” पुत्र का, जिसने अन्य जाति की लड़की से प्रेम-विवाह किया था ओर इस विवाह के कारण माताजी एवं उनके दोनो बड़े पुत्रों ने उसे घर से बाहर कर दिया था, का अपनी पत्नी के साथ माताजी को देखने के लिये आगमन हुआ ओर उन द...
सिस्‍टम
लघुकथा

सिस्‍टम

रामनारायण सुनगरिया भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) ******************** सत्रह साल बाद। मोटे कॉंच के द्वार को पुश करता हुआ बैंक में प्रवेश करता हूँ, तो ऑंखें चौंधिया जाती हैं। सारा नज़ारा ही अत्‍याधुनिक हो चुका है। सबके सब अलग-अलग पारदर्शी केबिन में अपने-अपने कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर नज़रें गढ़ाये तल्‍लीनता पूर्वक व्‍यस्‍त हैं। किसी को किसी से कोई वास्‍ता नहीं। ऐसा लगता है बैंक की सम्‍पूर्ण कार्यप्रणाली स्‍वचलित हो गई है। कोई-कोई काम मेन्‍युअल हो रहे हैं। वह भी पूर्ण शॉंतिपूर्वक। मैंने प्रत्‍येक यंत्रवत् व्‍यक्ति को गौर से देखा—एक भी परिचित नहीं। सभी युवा एवं सुसम्‍पन्‍न लगते हैं। मेरी खौजी नज़रें एक केबिन पर चिपके चमचमाते नेम प्‍लेट पर पड़ी—हॉं यही है चीफ मैनेजर सभ्‍य, सौम्‍य व आत्‍मविश्‍वासी प्रतीत होता है। मैंने अपनी एप्‍लीकेशन को खोलकर पुन: पड़ा कहीं कोई कुछ छूट तो नहीं गया। सारान्‍स ब...
शर्म
लघुकथा

शर्म

श्रीमती आभा बघेल रायपुर, छत्तीसगढ़ ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) "तुम्हें भोजन का पैकेट चाहिए क्या?" एक आवाज़ आई। रघु ने आवाज़ की ओर देखा लेकिन कुछ बोला नहीं। फिर किसी ने पूछा, "भोजन का पैकेट चाहिए क्या तुम्हें?" रघु ने शर्म भरी आवाज़ में कहा "साहब, चाहिए तो है। चार लोगों का परिवार है मेरा। घर में बच्चे खाने के लिए मेरा रास्ता देख रहे होंगे।" "तो फिर ये नखरा क्यों?"- किसी दूसरे व्यक्ति ने कहा। "साहब ! मैं मेहनत करने वाला आदमी हूँ। किसी के सामने हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता।ये तो मेरा बुरा वक्त है जो आज मेरी ये हालत है।" रघु ने उदास स्वर में कहा। "सब पता है हमें। अपने घर में भले ही ढेर लगा होगा, लेकिन फिर भी यहाँ माँगने आ जाते हैं लोग।" एक व्यंग्य भरी आवाज़ आई। "मैं उनलोगों में नहीं हूँ साहब!" रघु की आवाज़ थोड़ी ते...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** स्कूल शुरू होकर एक सप्ताह से ज्यादा हो गया था। एक दिन दियाबाती के बाद हम सब बच्चें राम मंदिर के बरामदे में झूले पर बैठकर रामरक्षास्तोत्र का पाठ कर रहे थे। पंतजी रामजी के दर्शन कर के ऊपर अपने कमरे में जा चुके थे। काकी ने मेरे लिए अब बरामदे में बैठना बंद कर दिया था। वें अधिकतर अपने कमरे में ही बैठी रामजी का जाप करती किया करती। लीला मौसी रसोईघर में शाम की रसोई बनाने में व्यस्त थी। माई भी रसोईघर में ही थी। नानाजी भी अपने कमरे में थे। रामरक्षास्तोत्र ख़त्म होने के बाद हमने समर्थ रामदास स्वामी के 'मन के श्लोक' कहना शुरू किया। 'गणाधीश जो ईश.....' मेरे मुंह से इतना ही निकला था कि इतने में हलकी सी रोशनी में एक आकृति धीरे-धीरे हमारी ओर बरामदे में आते हुए मुझे दिखाई दी। मैंने तुरंत पहचान लिया। मेरे दादा थे। मेरे पिताजी। उन्हें देखते ही मैं इतना जो...
राहत की एक सांस
लघुकथा

राहत की एक सांस

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** लगातार तीसरे वर्ष जब वर्षा तो कम थी पर बिजली का चमकना,बदल का गरजना, बारिश का गुस्सा खा-खाकर बरसना और थोड़ी देर में सब शांत हो जाना। प्रकृति का ऐसा रूप कभी नहीं देखा था, वो भी भादौ माह में!आठ दिन से बारिश बन्द थी। "अरे! ये क्या? कितने खतरनाक बदल घिर आये। अंधेरा हो गया। मीरा बोली। उसकी सखि स्कूल से घर के लिए निकलने को अपना समान सम्हाले बोली- "अभी तो चार ही बजे है, देखो बिजली और बदल कैसे गुस्से में है? जोरदार बिजली कड़की मीरा ने दोनों हाथों से कान बन्द कर लिए। छुट्टी के बाद स्कूल पूरा खाली हो चुका था, टीचर्स बस में बैठे, बस चल पड़ी। साथ ही वर्षा का रौद्र रूप पूरे रास्ते देखा, पच्चीस मिनिट में नाले पूर आ गए, सड़को पर तेजी दे पानी चढ़ गया। मोबाइल की घण्टी बजी- "हेलो बेटा, मीरा के बेटे का फोन था। मैं बस दस मिनिट में अपने घर के स्टॉप पर पहु...
भारतीय जीवन में रचा बसा है पर्यावरण
आलेख

भारतीय जीवन में रचा बसा है पर्यावरण

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** हमारे पूर्वज सृष्टि के आरम्भ से ही प्रकृति की लय, ताल में रहते थे। जीव जंतुओं, पेड़ पौधों से उनका इतना गहरा आत्मीय संबंध जुड़ा था कि वे उनसे संवाद कर सकते थे। उन्होंनें प्राकृतिक उपादानों को देवी देवताओं की पदवी देकर पूजा अर्चना करके सदैव उनके प्रति सम्मान दर्शाया। उपनिषद ने वृक्ष को ब्रह्म कीसंज्ञा दी है और, वृक्षो रक्षित रक्षितः, जैसा सार्थक वाक्य रचा। हमारा प्राचीन साहित्य ,अध्यात्म लोकविश्वास वृक्षों से जुड़ा है। नारियल को श्रीफल कहा गया है। वट वृक्ष की पूजा, पीपल की पूजा ,आँवले की पूजा भारतीय नारियों के जीवन का अभिन्न अंग रहा है। भारतीय चिंतन में धरा को मातृशक्ति के रूप सेंपूज्यनीय माना गया है और मनुष्य को उसका पुत्र। माता भूमि पुत्रोsहं पृथिव्याः। यजुर्वेद में कहा गया है :-                                                 ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** धीरे-धीर दिन आगे सरकते जा रहे थे। विद्यालय शुरू होने में अभी एक महीना से कुछ ज्यादा ही समय था। गर्मी अपने पूरे जोरों पर थी और उस पर गर्म हवाएं। ऐसे ही में एक दिन काकी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी। नानाजी मेरे फूफाजी रामाचार्य वैद्यजी को बुला लाए अब फूफाजी मुझे पहचानते थे। उनके काकी के कमरे में आते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने दिए चांदी के रुपये के कारण मैंने उनके पांव उत्साह से छुए थे। एक और चांदी के रूपये की अपेक्षा भी थी। वैसे अब मुझे पैसों का महत्व भी समझने लगा था। सारी जरूरतें रुपये देकर पूरी होती हैं यह मैं जान गया था। पर इस बार फूफाजी से मुझे सिर्फ कोरा आशीर्वाद ही मिला। फूफाजी ने काकी की जांच की। फिर नानाजी को बोले, 'ज्वर थोडा ज्यादा ही हैIकमजोरी भी ज्यादा है। परन्तु चिंता करने जैसा कुछ नहीं मेरे यहां से दवाई ले कर आइए।...
जुर्म
लघुकथा

जुर्म

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) अदालत लगी थी...कटघरे में खडी थी माँ, आरोप था कि 'उसने ले ली है अपने दो बच्चों की जान'। करती भी क्या ? काम न मिलने पर घर में ही फाँसी का फंदा लगा अबोध बच्चों के साथ कष्टों से मुक्ति पा जाना चाहती थी। यहाँ भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा, जाने कैसे बच गई। आत्महत्या और हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा सुना दी गई। घर, अदालत और जेल सभी की दीवारें मौन थी। सजा पूरी होने पर बाहर आई भी तो वहाँ भी मौन बाँह पसारे खड़ा था.. बदला कुछ भी नहीं बल्कि पहले से और अधिक भयानक हो गया था। मन में भय और सवालिया निशान लिये वो बोझिल कदमों से चली जा रही थी कि कहीं कोई फिर से जुर्म न कर बैठे। . परिचय :- किरण बाला पिता - श्री हेम राज पति - ठाकुर अशोक कुमार सिंह निवासी - ढकौली ज़ीरकपुर (पंजाब) शिक्षा - बी. एफ. ए., एम. ए. (पेंटिं...
इतिहास अपने आप को दोहराता है
स्मृति

इतिहास अपने आप को दोहराता है

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** श्यामल वर्ण, गुलाबी उभरे गाल, आकर्षित करती बड़ी-बड़ी कटीली आंखों के ऊपर लंबी-लंबी ऊपर को उठी पलकें, धनुष के समान गाढ़ी भौहों के ऊपर बीच की लंबी मांग और मांग के दोनों तरफ घने काले बाल और सजी हुई स्वेदन पंक्तियां। मानो ईश्वर ने उसे अलग से गढ़ा था। मेरे घर से मुख्य मार्ग तक जाने का बस वही एक छोटा रास्ता था जो उसके आंगन से होकर गुजरता था। मैं जब भी उस रास्ते का उपयोग मुख्य मार्ग पर जाने के लिए करती, हमेशा सोचती वह एक बार दिख जाए। मेरे लिए भी उसके मन में शायद यही भाव थे, क्योंकि जब भी मैं उसकी आंगन से गुजरती वह लंबे-लंबे कदमों से अपने दालान में आकर खड़ी हो जाती और मुझे ओझल होते तक निहारती। उसे देखकर अनायास ही मन सोचता ईश्वर की बनाई आकृति इतनी मोहक तो स्वयं कितना सुंदर होगा। इस बार काफी समय बाद वहां से गुजरना हुआ। वह लगभग दौड़ते हुए दाला...
मेरी साइकिल, मेरा भविष्य
संस्मरण

मेरी साइकिल, मेरा भविष्य

डॉ.आभा माथुर उन्नाव (कानपुर) ******************** मैंने जिस शहर में बचपन व्यतीत किया वहाँ पर उन दिनों इण्टरमीडिएट तक ही विद्यालय थे। आगे की शिक्षा के लिये या तो प्राइवेट विद्यार्थी के तौर पर परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी या छात्रावास में रह कर अध्ययन करना होता था। मेरी बड़ी बहनों ने प्राइवेट बी.ए. किया था, शायद मैं भी वही करती परन्तु हाई स्कूल और इण्टरमीडियेट में मेरे अंक बहुत अच्छे होने के कारण यह निश्चय किया गया कि मुझे किसी संस्था से बी.ए. करवाया जाये। लखनऊ में मेरी एक बहन रहती थीं अत: लखनऊ में मेरी शिक्षा जारी रखने का निश्चय हुआ। लखनऊ जा कर वि.वि. में प्रवेश तो ले लिया पर बहन के घर से वि.वि. बहुत दूर था। पहले दो किलोमीटर तक रिक्शा से दूरी तय करने के बाद दो बसें बदलनी पड़ती थीं तब जा कर वि.वि. पहुँचा जा सकता था। इस सब में बहुत समय नष्ट होता था अतः साइकिल लेने का निश्चय किया गया। सा...
चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना
आलेख

चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                                     कभी यह गाना हमारे बहुत ही अजीज अच्छू बाबू (श्री अच्छेलाल राजभर) प्रायः गुनगुनाया करते थे। आज सुबह-सुबह अच्छू बाबू की याद आयी और यह गीत अनायास ही मेरी जुबान पर आ गया। मन बड़ा बोझिल हुआ। आज इस कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई महामारी के कारण जो पूरे देश में भारतीय गरीब मजदूरों का देश के कोने-कोने से पलायन हो रहा है यह काफी दर्द भरा एवं खौफनाक मंज़र है। यह मंजर कभी हमारे पुरनियों ने १९४७ में भारत विभाजन के दौर में अपने आंखों से देखा था। उसमें से श्री लालकृष्ण आडवाणी जी जैसे महानुभाव भी अभी हैं, जो विभाजन में यहां आ गए थे। उस खौफनाक मंज़र को हमलोगों ने तो फिल्मों में ही देखा या सुना है। वह मंज़र देख कर दिल दहल जाता है। आज वही मंज़र जब भारत स्वतंत्र है तब देखने को मिल रहा है। बस अंतर यही है कि...
हिन्दू साम्राज्य दिनोत्सव
आलेख

हिन्दू साम्राज्य दिनोत्सव

मंगलेश सोनी मनावर जिला धार (मध्यप्रदेश) ********************** हिंदू साम्राज्य दिनोत्सवम ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी का यह दिन कोई सामान्य दिन नहीं था। मुगलों अफगान तुर्कों के अत्याचार भरे शासन के कई दशक बीत जाने के बाद एक हिंदू सम्राट के राज्याभिषेक का स्वर्णिम अवसर है ऐसा समय जब तुर्कों से युद्ध का विचार भी करना, देश में अपराध माना जाता था। राज्य धन संपदा को समाप्त करने वाला माना जाता था। राज्य के वैभव और यश व कीर्ति से समझौता करना माना जाता था। ऐसे प्रतिकूल समय में छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक, मुगलों व तुर्कों के शासन के कब्र में अंतिम कील ठोकने के समान था। देश में यह दिन अनन्य उत्साह से मनाया जा रहा था, कई दशकों बाद एक हिंदू राजा अपने स्वाभिमान से एक बड़े भूभाग पर राज्य कर रहा था, उसका क्षेत्र तो महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश तक सीमित था किंतु शिवाजी राजे की नजरें दिल्ली पर टिकी थी, कई मर...
आपदा और प्रेम
आलेख

आपदा और प्रेम

कोरोना ने दिखा दिया कि हम भारतीय सच में प्रेम की परिभाषा ठीक से समझते हैं। दया, करुणा, फ़र्ज़, लगभग हर जगह दिखे। नाम की चाह रखने वालों ने दान खूब किया और तस्वीरों के जरिये दिखाना चाहा कि वो मानवतावादी हैं। होड़ लग गई थी प्रदर्शन करने में। कुछ तो दान लेकर दान देते दिखे। पैकेट किसी के वाहबाही कोई दूसरा ले गया। लेकिन काम तो जोरदार हुआ। जरूरतमंद वंचित तो नहीं रहे। कुछ धूर्त भी निकले। ज़रूरत से ज़्यादा मुफ्त का माल जमा कर लिया। समूचे देश में एकता दिखी। लॉक डाउन में तमाम महानुभाव बोर होते दिखे, उबासी लेते दिखे, छटपटाते दिखे, ग़मगीन दिखे, मलीन दिखे। क्योंकि उनके अंदर प्रेम नहीं था। क्रोध, ईर्ष्या, घमंड, ईगो, के कारण ऐसे लोग प्रेम न कर सके। माँ, पत्नी, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, मित्रों से दिल खोलकर बातें न कर सके। घर में कार्य करने वालों के प्रति दयालु न बन सके। प्रेमी प्रेमिकाओं ने अपार दुख झेले। मोबाइल...
कड़वे अंगूर
लघुकथा

कड़वे अंगूर

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजिट अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) कोरोना के चलते अभी-अभी लॉक डाउन खुला ही था कि एक फेरी वाला अपनी ठेला गाड़ी लेकर फल बेचने निकला। उसे रोकते हुए मैंने आवाज लगाई भइया अंगूर है क्या? मुंह पर मास्क लगाए, हाथो में दस्ताने पहने फेरी वाला बोला हां है बाबू जी। मै उसकी ठेला गाड़ी के करीब पहुंचा ही था कि उसने झट से सेनिटाइजर की बॉटल आगे करते हुए मेरे हाथ धुलवाकर बोला अब आप अंगूर आपकी पसंद से छांट लो। मीठे तो है ना, मेरे सवाल के जवाब में वह बोला आप अंगूर धो के चख लो बाबूजी। ठीक है भाई, क्या भाव लगाओगे। ₹ ३५ के एक किलो वो बोला। ₹३५ देकर ठीक है एक किलो दे दो भाई। अंगूर लेकर मैंने श्रीमती को दिए, उसने अंगूर लेकर धो कर फ्रिज में रख दिए। दोपहर में जब थोड़े अंगूर खाने के लिए फ्रिज से निकाले, श्रीमती ने अंगूर का पहला दाना खाते ही, ये क्या ? कड़वे अंगूर ...
नैसर्गिक सुख
लघुकथा

नैसर्गिक सुख

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) ‘’कल्‍लो....कल्‍लो...।‘’ चिल्‍लाते-चिल्‍लाते, मेरी पत्नि धड़धड़ाते हुई, मेरे पास आकर पूछने लगी, ‘’कहॉं है कल्‍लो!ˆ मेरे उत्‍तर की परवाह किये बिना वह घर में ही भड़-भड़ाकर ढूँढने लगी, ‘’किधर हो कल्लो-कल्‍लो!’’’ ‘’...यहाँ हूँ... मेम साब!’’ करता हुआ काम छोड़कर ‘’ हाँ मेम साब...? ‘’मेरे लिये दूघ गरम कर के, लाओ।‘’ आदेशात्‍मक लहजे में, ‘’बैडरूम में हूँ।‘’ ‘’पहले डिनर लगाऊँ; मेमसाब ?’’ ‘’नहीं! पार्टी में खा चुकी हूँ।‘’ कुछ नरम होकर कहा, ‘’बहुत नींद आ रही है, जल्‍दी ला।‘’ .....ये है, श्ष्टिाचारी, संस्‍कारी, सम्‍पन्‍न, सम्‍पूर्ण अर्धान्‍गिनी! ....मैंने पैग भरा। बैठ गया खिड़की खोलकर। आज कुछ ठण्‍डक है। शायद वर्षा होने वाली है। बाहर देखा, पानी गिरने लगा। थोड़ी देर में जोर की बरसात होने लगी। सामने बीरान खण्‍डहर पड़ी...
मानवता
लघुकथा

मानवता

उस समय की बात है जब संदीप ओर उसके दोस्त गुजराती कार्मस महाविधालय इन्दौर में वर्ष २००६ में बी.कॉम द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत थे, संदीप ओर साथी दोस्त अधीकतर रेल परिवहन से देवास से इन्दौर अध्ययन हेतु प्रतिदीन आना जाना किया करते थे, उनको घर से कभी जरुरत पड़ने व नाशते पर खर्च हेतु ३० रु. दीये जाते थे। महाविधालय में परीक्षा के नामांकन प्रपत्र जमा होने के कारण रेल अपने नियत समय से स्टेशन से निकल चुकी थी, व दूसरी रेल २ घण्टे बाद चलने वाली थी, संदीप ओर उसके दोस्तों द्वारा बस परिवाहन से इन्दौर से देवास जाने का निश्चय किया, बस में पुरी सीट भर जाने के कारण खड़े खड़े जाना पड़ा, जहॉ संदीप खड़े थे उसके समीप वाली सीट पर एक बुजुर्ग बैठे थे, मुख पर निराशा के भाव व चिंता की लकीर अलग ही प्रतीत हो रही थी। बस अपने गंतव्य स्थान देवास के लिये निकल गई, करीब १०-१२ किलोमीटर के सफर तय करने के बाद बस कंडक्टर का बस किरा...
नया ठिकाना
लघुकथा

नया ठिकाना

आज सुबह से बच्चे के जोर-जोर से रोने की आवाज से मीरा बहुत बेचैन थी आखिर बाहर आकर देखा। नए मकान के चौकीदार की झोपड़ी के बाहर टूटी खटिया पर उसका ९ वर्षीय बेटा गब्बू बिलख-बिलख कर रो रहा था। क्यों गब्बू इतनी जोर-जोर से क्यों रो रहे हो? कब से रोए जा रहे हो, क्या हुआ? गब्बू और जोर से क्रंदन करने लगा। उसके माता-पिता अपना बोरिया-बिस्तर बांधने में भिड़े हुए थे। माँ बोली- "का करे मैडमजी इहा अब मजूरी नाही सो गाँव जा रहे हैं। ई गब्बू कहत है इस्कूल जावेगा, गाँव मे पड़ई छूट जावेगी देख लेव कईसा रो रवा है। मीरा बोली - "तो मत जाओ ना! कुछ समय की बात है सब ठीक हो जायेगा। इतने में पिता झुंझलाया- "पेट की आग नाही रुक सके है बेनजी। मीरा बोली- "पर बच्चा कब से रो रहा है मुझे घबराहट होने लगी तुम पिता होकर.....इत्ताई घबराट है तो रख लेव इका। पढ़ाया करियो। मूक होकर मीरा घर मे चली गई। पेपर पढ़ रहे पति को दुखी होकर सब बात बता...