“आत्मकथा” एक जीव की
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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बोलना चाहता हूँ,
समझाना चाहता हूं,
रोकना चाहता हूँ,
मत करो क्रूर आघात
और इतनी घृणा
महसूस करता हूँ दर्द,
घुटन, और अकेलेपन की तड़प
तिल-तिल दम तोड़ते,
नित प्रतिदिन होता तिरस्कार,
पढ़ पाए जो कोई
तो इन आँखों में,
बिना शब्दों के दर्द बयां होते हैं
अहंकार, द्वेष, घृणा से परे
एक सुन्दर दुनिया है मेरी
मत रौंदो मेरे अस्तित्व को,
बहुत कुछ अनकहे ही
सीखा जाता हूँ इन्सानियत को
जाति, रूप, रंग में मत करो बंटवारा मेरा
प्यार से गले लगा कर तो देखो,
जान दे दूंगा तुम्हारे
प्यार की कीमत चुका कर
सृष्टि की अनमोल रचना हैं हम,
कैसे हो सकते हैं नफ़रत के काबिल,
नहीं समझ पाता "रोटी" की कीमत,
नहीं जानता दुनियादारी और व्यापार
ईश्वर ने इंसान बनाया,
जीवों से प्रकृति को संवारा
अद्भुत चित्रकारी कर ईन जीवों पर,
अप्रतिम ...