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पद्य

जब-जब कलम मौन होती है
कविता

जब-जब कलम मौन होती है

अंजनी कुमार चतुर्वेदी "श्रीकांत" निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** कह दो अब खामोश कलम से, तुझको लिखना होगा। जीवन के संग्राम समर में, आगे दिखना होगा। जब-जब कलम मौन होती है, पाप तभी बढ़ता है। तब तब पाप निरंकुश होकर, सबके सर चढ़ता है। पेनी तलवारों से ज्यादा, धार कलम की होती। जब-जब पापाचार देखती, तभी कलम है रोती। रही समर में सदा लेखनी, सबका जोश बढ़ाया। अपने लेखन से अपंग को, ऊँचे शिखर चढ़ाया। छोटी है पर बड़ी साहसी, तेरी ताकत भारी। कभी नहीं खामोश हुई तू, कभी न हिम्मत हारी। जाने क्यों खामोश हो गई, समझ नहीं मैं पाया। क्रियाकलाप देख कलयुग के, तेरा मन घबराया। इसीलिए खामोश हुई तू, तूने लिखना छोड़ा। सच्चाई लिखने से तूने, क्यों अपना मुख मोड़ा। खामोशी को तोड़ कलम तू, लिखना सबकी पीड़ा। सभी कलयुगी पाप मिटाने, कलम उठाना बीड़ा। परिचय :- अंजनी कु...
निर्धनता है मन का भाव
कविता

निर्धनता है मन का भाव

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** स्वाभिमानी जन श्रम का मान किया करते है जो न श्रम का सम्मान करें निर्धन वही हुआ करते हैं। नहीं भावना हो जिनमे न श्रम का वो मान करें जो शब्दों के बाण चलाते अंतस् उनके रीते रहते हैं। श्रम करना ही मानवता श्रम का फल मीठा मीठा मन का श्रम, तन का श्रम पुष्ट रहे सारा तन मन। कुटुंब, समाज या मानवता हित जो भरपूर परिश्रम करते हैं कड़ी धूप या जल प्लावन हो स्वाभिमानी वो पूज्य हुआ करते हैं। भीषण लू गर्मी में स्वेद बहा कर घर बाहर भोज्य बनाकर महल अटारी सबको दिलवा कर सबको तृप्त किया करते हैं। जिसकी जो सामर्थ्य जिसको जो आता है उसमें अपना सर्वस्व लुटाकर वो जन मानस को तुष्ट किया करते हैं मान सम्मान के असली अधिकारी वो हर रोज़ हुआ करते हैं। परिचय :- डॉ. किरन अवस्थी सम्प्रति : सेवा निवृत्त लेक्चरर निवासी : सिलि...
कंचन मृग छलता है अब भी
गीत

कंचन मृग छलता है अब भी

मीना भट्ट "सिद्धार्थ" जबलपुर (मध्य प्रदेश) ******************** कंचन मृग छलता है अब भी, जीवन है संग्राम। उथल-पुथल आती जीवन में, डसती काली रात। जाल फेंकते नित्य शिकारी, देते अपनी घात।। चहक रहे बेताल असुर सब, संकट आठों याम। बजता डंका स्वार्थ निरंतर, महँगा है हर माल। असली बन नकली है बिकता, होता निष्ठुर काल।। पीर हृदय की बढ़ती जाती, तन होता नीलाम। आदमीयत की लाश ढो रहे, अपने काँधे लाद। झूठ बिके बाजारों में अब, छल दम्भी आबाद।। खाल ओढ़ते बेशर्मी की, विद्रोही बदनाम। परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ" निवासी : जबलपुर (मध्य प्रदेश) पति : पुरुषोत्तम भट्ट माता : स्व. सुमित्रा पाठक पिता : स्व. हरि मोहन पाठक पुत्र : सौरभ भट्ट पुत्र वधू : डॉ. प्रीति भट्ट पौत्री : निहिरा, नैनिका सम्प्रति : सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश (मध्य प्रदेश), लोकायुक्त संभागीय सत...
साँसों का क्या ठिकाना
कविता

साँसों का क्या ठिकाना

गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" बमोरी, गुना (मध्यप्रदेश) ******************** कृतघ्न हुए अब लोग यहां, स्वार्थी हुआ जमाना है, जियो जीवन हिलमिल, साँसों का क्या ठिकाना है। छोड़ो चलना चाल कुटिल, ह्रदय रखो गंगा जल सा बनो नीम से कडुवे बेशक़, रखो ना उर बेर फल सा। मुट्ठी भर माटी के लिए, कर न दुर्योधन-सा व्यवहार, बल का बल निकल जाता, अर्जुन भी हुआ लाचार । समझ न मूर्ख किसी को तू, जान स्वंय को ज्ञानवान, द्रोपदी-सी तेरी गर्हित हसी, ले डूबे ना कहीं पहचान। भुला भलाई अपनापन, सिमट गया क्यों स्वंय तलक, मिला न दें गर्दिश में तुझे, गैरों को मिटाने की ललक। भला चाहते हो ग़र अपना, रखना रवि-सा सम भाव , भर जाते हैं ज़ख्म तेग के, पर भरते न वाणी के घाव। परिचय :- गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" निवासी : बमोरी जिला- गुना (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेर...
कुछ लोग
कविता

कुछ लोग

हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य' डंगनिया, सारंगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो मरकर भी जिंदा रहते हैं। तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो जीवनभर निंदा करते हैं।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जीवन में आदरणीय होते हैं। तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो महत्वहीन निंदनीय होते हैं।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो हमेशा आंखों में बसते हैं। तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो आंखों में खटकते हैं।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो मरकर भी आभास होते हैं। तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो जिंदा होकर भी लाश होते हैं।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपने सपने पूरा कर दिखाते हैं। तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो सपने ही नहीं देख पाते हैं।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो किसी को अपने वश में करते हैं। तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो खुद दूसरों के वश में रहते हैं।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो भाग्य बदलकर सपने साकार करते...
रोशनी का त्यौहार
कविता

रोशनी का त्यौहार

अशोक कुमार यादव मुंगेली (छत्तीसगढ़) ******************** अज्ञान अंधकार को दूर करके, ज्ञान की ज्योति मन में जलानी है। जिंदगी हर पल एक महा उत्सव, मिलजुल कर दिवाली मनानी है।। जगमग-जगमग जल रहे नन्हें दीये, धरती में मणि प्रकाश की आभा है। पटाखे की ध्वनि से गूँज रहा संसार, नीले नभ को छूने की आकांक्षा है।। सत्य के सामने असत्य की हार होगी, तू सत्य की राह में निरंतर कदम बढ़ा। जीत तुम्हारे इंतजार में राह देख रही, हताशा और निराशा को सुदूर भगा।। रोशनी का त्यौहार, खुशियों की बहार, होती रहे धन वर्षा, होती रहे तरक्की। जीवन में सफलता चुमे आपके कदम, दीपावली में मिलती रहे खूब समृद्धि।। परिचय : अशोक कुमार यादव निवासी : मुंगेली, (छत्तीसगढ़) संप्राप्ति : शिक्षक एल. बी., जिलाध्यक्ष राष्ट्रीय कवि संगम इकाई। प्रकाशित पुस्तक : युगानुयुग सम्मान : मुख्यमंत्री शिक्षा गौरव अलंकरण 'शिक्षादूत...
शिक्षा बिना दुनिया?
कविता

शिक्षा बिना दुनिया?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो भद्र मानव चला जा रहा था, चलता ही जा रहा था अपनी मानसिक शांति के लिए, उस दौर में जब मनुष्य मरे जा रहा था हथियारों से युक्त क्रांति के लिए, भोर का समय, नीरवता लिये, तभी देखा दो जगह रोशनी, ना जोगन ना जोगनी, एक जगह एक बालक ग्यारह साल का, माथे पर लंबा तिलक, मुस्कुराता चेहरा, हाथ में थी आरती, जोर जोर से गाये जा रहा था भजन, दूसरे जगह कोई शोरशराबा नहीं, पर बैठा था वहां भी एक बालक, ढिबरी के अंजोर में बार बार कुछ पढ़ रहा था, अगल बगल बस्ता और किताबें, बालक बुदबुदा रहा था ज्ञान विज्ञान की बातें, भद्र पुरूष अवाक देखे जा रहा, उन्हें लग रहा कि उस झोपड़ी से कभी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, निकल-निकल आ रहा, वह सोचने लगा कि काश यह होता मेरा घर, मैं करता यही बसर, और होते ये सारे मेरे अपने, जीवंत करते मेरे ...
अँधियारे की हार है
कुण्डलियाँ

अँधियारे की हार है

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** (१) दीवाली का आगमन, छाया है उल्लास। सकल निराशा दूर अब, पले नया विश्वास।। पले नया विश्वास, उजाला मंगल गाता। दीपक बनकर दिव्य, आज तो है मुस्काता।। नया हुआ परिवेश, दमकती रजनी काली। करे धर्म का गान, विहँसती है दीवाली।। (२) अँधियारे की हार है, जीवन अब खुशहाल। उजियारे ने कर दिया, सबको आज निहाल।। सबको आज निहाल, ज़िन्दगी में नव लय है। सब कुछ हुआ नवीन, नहीं थोड़ा भी क्षय है।। जो करते संघर्ष, नहीं वे किंचित हारे। आलोकित घर-द्वार, बिलखते हैं अँधियारे।। (३) दीवाली का पर्व है, चलते ख़ूब अनार। खुशियों से परिपूर्ण है, देखो अब संसार।। देखो अब संसार, महकता है हर कोना। अधरों पर अब हास, नहीं है बाक़ी सोना।। दिन हो गये हसीन, रात लगती मतवाली। बेहद शुभ, गतिशील, आज तो है दीवाली।। परिचय :- प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे जन्म : २५...
आखिर किसे स्वीकार है (ताटंक)
कविता

आखिर किसे स्वीकार है (ताटंक)

विजय गुप्ता "मुन्ना" दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** जानकर अंजान बनना तो खुद का दारोमदार है। पर अन्य को दोषी बताना, आखिर किसे स्वीकार है। समय_प्रवाह संग बह जाना, किसका दिया उपहार है। क्षमता नियंत्रण पहचान का बस नाम मुन्ना रफ्तार है। जनहित कल्याण मार्ग खातिर धरातल वाली सोच हो। यथेष्ठ दायित्व पालन में, धृष्टता का ना लोच हो। रहे लाभार्थी पर नजर यूं, उसको तनिक ना मोच हो। भान सदा गरीब को होता, जब कष्टों की भरमार है। पर अन्य को दोषी बताना, आखिर किसे स्वीकार है। समय_प्रवाह संग बह जाना, किसका दिया उपहार है। शोर छिपा है अरमानों में, अलग तादाद ही बसता। जगमग दिव्य रोशनी में भी, खामोशी से सब सहता। सुखदुख सचझूठ मध्य बैठा, प्रदर्शन से घिरा रहता। पांच सदी पश्चात त्रेतायुग सा अयोध्या दरबार है। पर अन्य को दोषी बताना , आखिर किसे स्वीकार है। समय_प्रवाह संग बह जाना, किसका दिया उपहा...
भ्रष्टाचारी दानव
कविता

भ्रष्टाचारी दानव

अशोक कुमार यादव मुंगेली (छत्तीसगढ़) ******************** कुर्सी पर बैठकर तू बन गया है भ्रष्टाचारी दानव। धन के लालच में फर्ज भूल कर बना है अमानव।। हड़प लेता है गरीब-दुबरों के मेहनत की कमाई। जनता से रिश्वत लेते हुए तुमको शर्म नहीं आई।। खटमल बनकर चूस रहा है कामगारों का खून। भेड़िया बन मांस को नोच रहा है अंधाधुंध।। तू अंग्रेज है: स्वतंत्र भारत के निर्दयी अत्याचारी। तू कुष्ठ रोग है: जीवाणु युक्त संक्रामक बीमारी।। जन सेवक, रक्षक बनकर, बन गया है भक्षक। फन फैला कर डस रहा, जहरीला नाग तक्षक।। दुनिया में चारों तरफ लागू है जंगल का कानून। मानसिक हिंसक छिन लिया चैन और सुकून।। परिचय : अशोक कुमार यादव निवासी : मुंगेली, (छत्तीसगढ़) संप्राप्ति : शिक्षक एल. बी., जिलाध्यक्ष राष्ट्रीय कवि संगम इकाई। प्रकाशित पुस्तक : युगानुयुग सम्मान : मुख्यमंत्री शिक्षा गौरव अलंकरण 'शिक्षादूत' पुर...
पर्व पर आनंद मनाऊं कैसे
कविता

पर्व पर आनंद मनाऊं कैसे

अंकुर सिंह चंदवक, जौनपुर, (उत्तर प्रदेश) ******************** देखा था रोशनी जिन अपनों संग, बिछुड़ उनसे दीप जलाऊं कैसे ? रूठे बैठे है जो अपने सगे संबंधी, बिन उनके मैं तिमिर हटाऊं कैसे ? रिश्तों में उपहार साथ मिला था, रस्म निभाने का बात मिला था। फिर उनके बिन पर्व मनाऊं कैसे ? जिनसे जन्मों का साथ मिला था ।। मेरे अपने मुझसे मुख मोड़ बैठे है, फिर गैरों संग दीप जलाऊं कैसे ? त्योहारों पर छूटा यदि साथ अपना, तो इस पर्व पर आनंद मनाऊं कैसे ? परिचय : अंकुर सिंह निवासी : चंदवक, जौनपुर, (उत्तर प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां...
बेटियाँ
कविता

बेटियाँ

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** माता -पिता के गुजर जाने से घर को संभाल रही बेटियाँ कांधा देकर/अग्निदाह करके संस्कृति निभा रही बेटियाँ। बेटों के बिना बेटा बन के लोगों को दिखला रही बेटियाँ वेशभूषा से पहचान मुश्किल कहते है की बेटे है या बेटियाँ। वाहन चलाने से डरती थी हवाई- जहाज उड़ा रही बेटियाँ प्राकृतिक आपदाओ के समय लोगों की जाने बचा रही है बेटियाँ। देश की सीमा -प्रहरी बन के दुश्मनों को दहाड़ रही है बेटियाँ कुशल राजनीती बन कर ये देश -प्रदेश को संभाल रही बेटियाँ। भ्रूण हत्या ,दहेज़ ,बलात्कार को रोकने का बीड़ा उठा रही है बेटियाँ बेटी बचाओ का संकल्प लो सभी दुनिया को ये संदेश दे रही है बेटियाँ। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि : २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा : आय टी आय निवासी : मनावर, धार (मध्य प्रदेश...
भाव भंगिमा
कविता

भाव भंगिमा

अंजनी कुमार चतुर्वेदी "श्रीकांत" निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** मन की मनोदशा दिखलाने, तन मन जो करता है। भाव भंगिमा से औरों का, पल में मन हरता है। भाव भंगिमा देह जनित गुण, मानव दर्शाता है। मनोभाव मानव निज मन के, तभी दिखा पाता है। भावभंगिमा से अंतस का, भाव समझ में आता। हाव-भाव दिखलाकर सबको, सुख-दुख मनुज बताता। मन की दशा दिशा दिखलाने, जो प्रयत्न करता है। भाव भंगिमा दिखला कर ही, मन धीरज धरता है। घृणा-प्यार दिखलाती है यह, अपनापन दिखलाती। भाव भंगिमा मन की पीड़ा, बिना कहे कह जाती। भाव भंगिमा लख राघव की, जनक सुता हरषानी। गौरी पूजन से वर पाया, प्रमुदित हुई भवानी। भाव भंगिमा मोहित करती, पीड़ा भी पहुँचाती। भाव भंगिमा मानव मन को, हर्ष विषाद दिलाती। भाव भंगिमा से हम सब के, मन को मोहित कर लें। सुभाशीष पाकर अपनों का, खुशी हृदय में भर लें। ...
दीप-अभिवंदना
गीत

दीप-अभिवंदना

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** लघु दीपक है दिव्य आज तो, उससे अब तम हारा है।। जगमग जीवन ज्योति सुहाती, अभिवंदित उजियारा है। माटी की नन्हीं काया ने, गीत सुपावन गाया है। उसका लड़ना तूफानों से, सबके मन को भाया है।। कुम्हारों के कुशल सृजन पर,आज जगत सब वारा है। जगमग जीवन ज्योति सुहाती, अभिवंदित उजियारा है। घर-आँगन,हर छत-मुँडेर पर, बैठा नूर सिपाही है। जो हरदम ही,निर्भय होकर, देता सत्य गवाही है।। दीपक तो हर मुश्किल में भी, रहा कर्म को प्यारा है। जगमग जीवन ज्योति सुहाती, अभिवंदित उजियारा है।। अवसादों को दूर हटाया, खुशियों का दामन थामा। आज भावना हर्षाती है, दीप बालती है वामा।। लघु दीपों ने प्रबल वेग से, अँधियारे को मारा है। जगमग जीवन ज्योति सुहाती, अभिवंदित उजियारा है।। दीर्घ निशा निज ताप दिखाती, तिमिर बहुत गहराया है। पर सूरज के लघु वंशज ...
कौन हो चंदा?
कविता

कौन हो चंदा?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** चुप कैसे क्यों मौन हो चंदा, या बतला दो कौन हो चंदा, कभी मामा तुम बन जाते हो, अंधियारा गुस्से में लाते हो, हमें पता है बस इतना ही कभी घटते कभी बढ़ जाते हो, क्यों किसके पीछे पड़ जाते हो, कोई कहते स्त्री और कोई पुरुष, अमावस्या को हो जाते हो खड़ूस, तारे क्या लगते हैं तेरे, कोई कहता बलम हो मेरे, किसी का मुखड़ा तुम्हारे जैसा, कोई लूट रहा तेरे नाम से पैसा, रात भर इतराते रहते हो जब तक न हो जाये भोर, खबर भी है तुमको क्या कुछ भी चाह रहा कोई तुम्हें चकोर, कभी कहलाते हो आफ़लब, कभी दिखते हो सबको लाजवाब, जंजालों से खुद को संभालते हो, खुद को ग्रहण से निकालते हो, जा सकता है कोई तुमसे पार, पूछ रहा था एक दिलदार, औलाद को कहे कोई चंदा सूरज, बतलाओ किस किस की हो जरूरत। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी न...
दीप
कविता

दीप

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** दीप जलते नहीं जलाए जाते है। मोहब्बत की नहीं निभाई जाती है। खुशियां आती नहीं लाई जाती है। अपने बनते नहीं बनाए जाते है। कर्म दिखाए नहीं किए जाते है। हमसफर दिखाया नहीं बनाया जाते है। सत्य समझाया नहीं समझा जाता है। श्री राम बनाए नहीं कर्मो से बना जाता है। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, ...
अतः स्वर
कविता

अतः स्वर

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** अतः स्वर की वीणा की तान जीवन संघर्ष प्रकृति प्रसन्नता खुशहाली व्यंग त्याग मिलना बिछुड़ना भाव प्रधान हृदय को छूकर फिर रम जाता है मन आत्मा में। अंतर मन जब डूब जाता है जन्मता है एक कवि का विचार, अंत:करण की आवाज हे सुनकर विचारों की लड़ियां बन जाती होता साहित्य कविता का सृजन का हे आज। अतः स्वर अतः मन एक लक्ष्य एक विचार, चिंतन मनन का है भाव, स्फुटित होता है कोई रचना रच जाती चलती रहती अत: स्वर आत्मा की देखो आवाज। कविता को कवि भाव से सजाती, अलंकार छंद रस के गहने पहनाकर, मन के भावों की देखो दुल्हन। शब्द-शब्द से कविता बन जाती। अतः स्वर की गंभीरता शांति एकाग्रचित चिंतन और ध्यान, पहना देती कविता को रचना से, कविता को, सुर ताल से पायल की देखो झंकार। किरण लगा देती प्रकृति की, बेल-बूटो की साड़ी तैयार, ...
दीपोत्सव
कविता

दीपोत्सव

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हर घर में दीपोत्सव की धुम मची हैं हर पथ वन्दन वार सजे। पवन सग केसरिया पताका लहराये गीत गाते राग मल्हार। आंगन, द्वारे, चौखट सजे रंग, रंगोली से करते मां लक्ष्मी का सत्कार। रंग रंगीली छटा बिखेरे दिपो की झिलमिल प्यारी ऐसे लगता मानों लक्ष्मीजी के पग पखारती। मिष्ठान्नों से पात्र भरे हैं। मां अन्नपूर्णा लगे न्यारी उत्साह, उमंग से भरी सजधज कर लगती नारी शक्ति गृह लक्ष्मी। सभी लेखक बंधु, भगिनी एवं सम्पादक महोदय को दिपावली पर्व की शुभकामनाएं स्वस्थ रहें, ख़ूब लेखनी चलाएं ...। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के ले...
पाती एक जीव की
कविता

पाती एक जीव की

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** इंसानो ने पत्थर का कलेजा बनाया होगा तभी उसमें इतनी नफरत, क्रोध, हिंसा को समाया होगा, हम हैं एक जीव ये भूल गया होगा हमे भी उसके जैसे ईश्वर ने ही बनाया होगा! भूल गया इंसान हमारे वज़ूद को नहीं होता आभास हमारे दर्द भरी पुकारों का!, हम तरसते रहते थोड़े से प्यार और ममता के लिए, घायल तन, व्यथित मन बोझिल कदम लिए, कभी तो हमारे अस्तित्व का उनको संज्ञान होगा, उनके दिलों में हमारे लिए भी करुणा और प्यार होगा! चोट नहीं, दुत्कार नहीं, स्नेह का दीपक कभी तो जलाया होगा!! हे मानव तुम मे से ही कोई मसीहा कहीं जगा होगा, हमारे दर्द भरी कराहटों को सुना होगा, प्यार के मलहम से हमे संवारा होगा उस मसीहा ने ही धरती पर हम सबके संरक्षण का प्रण लिया होगा, तभी तो बच पाए हैं हम "जानवर" इस धरती पर हम में भी...
मुलाकात अपने आप से
कविता

मुलाकात अपने आप से

डॉ. भगवान सहाय मीना जयपुर, (राजस्थान) ******************** मैं सोचता हूँ, कभी मुलाकात कर लूँ अपने आप से। पकड़ लूँ गिरेबान और मिला लूँ आंखे अपने अहम से। मैं हूं बड़ा बदतमीजी, कूट-कूट कर भरा है अभिमान मुझ में। बस पहचान का फितूर चढ़ा है खाली दिमाग में। ईर्ष्या द्वेष द्वन्द्व जैसे साथी संग खड़े हैं मन के मरुस्थल में। है विडम्बना कैसी, मेरे मन से कम खारापन सागर में। मैं अपनी बतला दूं, नैतिकता कहीं दूर खड़ी भाव-भावना बिखरी सी। गुण पर भारी अवगुण, दग्ध हृदय संताप भरा जीवन लीला घिरणी सी। खंडित आभासी वैभव, मोह माया संलिप्त दम्भ में ऐंठे रहता हूं। लघुतर मानू और को, मैं मगरूर आत्मश्लघा अहं में डूबा रहता हूं। मैं सोचता हूँ, कभी मुलाकात कर लूँ अपने आप से। पकड़ लूँ गिरेबान और मिला लूँ आँखें अपने आप से। परिचय :- डॉ. भगवान सहाय मीना (वरिष्ठ अध्यापक राजस्थान स...
प्यार की पहली नज़र
कविता

प्यार की पहली नज़र

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** उस नज़र के सदके जाऊं जब तुमसे प्यार हुआ। उस नज़र पर कुर्बान जाऊं जब तुम्हारा दीदार हुआ। ******* जब देखा तुम्हे पहली बार हम सुध-बुध खो बैठे। पहिली नज़र में ही अपना दिल हार बैठे। ******* तुम्हारे कातिल नयनों ने किया था मुझे घायल देख के तुम्हारा सौंदर्य मैं हो गया था पागल। ******* तुम्हारे नयन नक्शे पर मैं फिदा हो गया। खुद से तुमको आज तक जुदा नही कर पाया। ******* मत ऐसे सज-संवर के निकला करो बाजार में। हम अपना सब कुछ लूटा देंगे तुम्हारे प्यार में। ******* प्यार की पहली नज़र का भूत अभी तक मुझपर चढ़ा है। परन्तु उसकी तरफ से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा है। परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : चिनार-२ ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करता हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः ...
तुम अब वापस आओ
कविता

तुम अब वापस आओ

अंकुर सिंह चंदवक, जौनपुर, (उत्तर प्रदेश) ******************** (यहां लड्डू एक छोटा बालक है, जो माता-पिता से एक अनुरोध कर रहा है कि उसके खातिर अपने रिश्ते कभी ना तोड़े) मम्मा तुम अब वापस आओ, अपने लड्डू को गले लगाओ। अगर हुई है पप्पा से तू-तू, मैं-मैं, उससे तुम मुझे ना बिसराओं।। पप्पा माफी मांगे तो माफ करना, आंख दिखा उनको सचेत करना। आपसी झगड़े में मम्मा-पप्पा, अपने लड्डू को भूल ना जाना।। पप्पा ने कहा यदि कुछ मम्मा को, या मम्मा ने कुछ कहा पप्पा को। भूल कहासुनी में कही बातों को, प्यार देना अपने इस लड्डू को। मम्मा पप्पा आपसी झगड़ों से, मैं होऊंगा एक प्रेम से वंचित। मां मैं हूं आप दोनों का लड्डू , क्यों रहूं फिर प्रेम से बंधित।। पप्पा-मम्मा रिश्ते तोड़ने के पहले, इस लड्डू का ख्याल कर लेना। सपने देखें थे आपने जो मेरे संग, मिलकर उसे पूरा कर देना। मम्मा मेरे खातिर रि...
समय
दोहा

समय

उषाकिरण निर्मलकर करेली, धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** मन में चिंतन कीजिए, इसका कितना मोल। व्यर्थ न जानें दीजिए, समय बड़ा अनमोल।। आगत को सिर धारिए, सुख-दुख जो भी होय। समय-समय का फेर है, आज हँसे कल रोय ।। समय आज का कल बनें, कल बन जाये आज। पहिया इसका चल रहा, यही काल सरताज।। वापस ये आये नहीं, एक बार बित जाय। मुठ्ठी रेत फिसल रही, हाथ मले रह जाय।। अविरल ये धारा बहे, कोई रोक न पाय। अगर समय ठहरा रहे, तो सब कुछ बह जाय।। समय को गुरू जानिए, देता जीवन सीख। कभी नीम सा स्वाद है, कभी मिठाये ईख।। राजा रंक बना दिये, रंक बने धनवान। मान समय का कीजिए, कहते संत-सुजान।। परिचय :- उषाकिरण निर्मलकर निवासी : करेली जिला- धमतरी (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानिया...
बांके बिहारी की महिमा
स्तुति

बांके बिहारी की महिमा

प्रेम नारायण मेहरोत्रा जानकीपुरम (लखनऊ) ******************** मेरे बांके बिहारी दयालु बहुत, दर बुलाकर है दर्शन का अवसर दिया। वो हैं करुणामई, भक्तवत्सल भी हैं, जिसने जो कुछ भी मांगा, वही दे दिया। मेरे बांके... आप यों ही बुलाते रहोगे अगर, मेरे पहले के सब पाप, कट जाएंगे। दरस पाकर तो, निर्मल बनेगा ही मन, पाप की राह पर,फिर नहीं जाएंगे। तेरी औरा की डोरी से यदि बंध गए, फिर कहीं भी लगेगा, न मेरा जिया। मेरे बांके... तुम बुलाते जिन्हें, वो ही आ पाते हैं, पा के दर्शन, छवि मन को भा जाती है। जाते घर को तो, मन छूट जाता यहां, सोते जगते, तेरी याद ही आती है। तुम सलोने हो, करुणामई हो बहुत, खुद बतादो, कि क्यों ऐसा जादू किया। मेरे बांके... तेरे महिमा को, लिखने का मन कर रहा, भाव दोगे तुम ही, तो ही लिख पाऊंगा। तेरी वंशी की धुन है मधुर, कर्णप्रिय, दोगे स्वर ज्ञान, तो ही तो गा पाऊं...
ढूँढ रही हैं आँखें किस को
कविता

ढूँढ रही हैं आँखें किस को

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* ढूँढ रही हैं आँखें किस को क्या खोया कुछ खबर नहीं है. भटकन-तड़पन-बेचैनी है सब है लेकिन सबर नहीं है। क्या ऐसा था गुमा दिया जो जिसको ढूँढ रही हैं आँखें ग़लत दिशा में हो बाहर की बाहर कोई डगर नहीं है। खुद में ही खुद मंजिल अपनी खुद में ही खुद रस्ता अपना जो खोया खुद में खोया है किसी शहर किसी नगर नहीं है। कैसी तुम को बेचैनी है पहले खुद में खुद पहचानों कैसी भी आफ़त हो खुद में आखिर खुद से जबर नहीं है। ग़ाफ़िल-सा दौड़े खुद में ही खुद का कोई होश नहीं है ज़रा सुकूँ भी पा नहीं पाओ जो गर खुद में ठहर नहीं है। कुछ न कुछ तो खोया लगता कुछ न कुछ असआर ग़लत हैं या तो ये फिर ग़ज़ल नहीं है या फिर इसमें बहर नहीं है। क्या चाहा क्या पा जाओगे क्या मर्ज़ी का जी जाओगे? मरे-मरे जीना पड़ता है यहाँ हौसल...