कैसे उद्गम होत कवित का
नफे सिंह योगी
मालड़ा सराय, महेंद्रगढ़(हरि)
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कैसे उद्गम होत कवित का, कैसे उमड़े उर से धारा ?
कैसे बहे भाव भंवर बन, अधर भेद सब खोलें सारा।।
जब सब जागे सो जाते हैं, तब चुपचाप ख्वाब आता है।
उमड़-घुमड़कर, डूब-डूबकर, झूम-झूमकर मन गाता है।।
पागल दिल को कुछ ना सूझे अपनी धुन में नाचे गाए।
कल्पनाओं के तार समेटे, तब मनआंगन कवित समाए।।
सब सुख फीके पड़ जाते हैं, बजता जब तेरा इकतारा।
कैसे बहे भाव भँवर बन, अधर भेद सब खोलें सारा ।।
तेरे आने की आहट से, मन आनंदित हो जाता है ।
हँसकर हृदय हाव-भाव के, बीज कलम से बो जाता है।।
कलम पकड़ बैठा हो जाता, छोड़ नींद अक्सर रातों में।
करे सुबह स्वागत सूरज, बीते रात बातों-बातों में ।।
रोम-रोम में रमे रोशनी, मिट जाता मन का अंधियारा।
कैसे बहे भाव भँवर बन, अधर भेद सब खोलें सारा ।।
कलम कदम से चित पे चढ़के, मन की बात जुबां पे लाए।
कहीं ज्ञान की गंग...