हां मैंने खुद को
राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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घर-घर रहे,
हर सदस्य प्रखर रहे,
यही सोच सब
कुछ संभाला है,
परिवार के लक्ष्यों
को पाने खातिर
मैंने खुद को
घर से निकाला है,
झिड़कने काट खाने
को आतुर रिश्ते,
हो चुके एक दूजे
के लिए फरिश्ते,
अब कौन
समझाये इनको
इनके खातिर ही
जान संकट में डाला है,
हां मैंने खुद को
घर से निकाला है
जी है हिस्से मेरे
नफरतों का अंबार,
गलत न होकर भी
करना पड़ता है स्वीकार,
ऐसा नहीं है कि मैं
दूध का धुला हूं,
जैसा भी हूं सबके
सामने खुला हूं,
इनके लिए हर
दुख दर्द भुला हूं,
किस-किस को
बताऊं कि
कब कब फांसी के फंदे
पर मुस्कुरा कर झूला हूं,
रहा होऊंगा कभी
उजले तन वाला
जिम्मेदारियों ने
थूथन कर डाला काला है,
हां मैंने खुद को
घर से निकाला है
त्राहिमाम हिस्से मेरे,
उनके हिस्से जिंगालाला है,
हां मैंने खुद को
घर ...