दर्पण फूट गए
भीमराव झरबड़े 'जीवन'
बैतूल (मध्य प्रदेश)
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तृषित घटों के नवाचार ही, पनघट लूट गए।
कैसे हाथ मिलाएँ तट जब, पुल ही टूट गए।।
कंकड़-पत्थर की दुनिया से, रूठी जलधारा।
इस नभ के सूरज ने दे दी, सपनों को कारा।।
आँखों से झरते फूलों पर, चल के बूट गए।।
गाजर घास उगाए उर के, उर्वर उपवन में।
स्वार्थ छिपे जा सिर की काली, टोपी अचकन में।।
तनी हुई लाठी से डर के, दर्पण फूट गए।।
जोत दिए कांवड़ में कंधे, पुण्य कमाने को।
लगे हुए हैं हाथ स्वर्ग की, डगर सजाने को।।
मंच माॅबलिंचिंग के, सच को, घर में कूट गए।।
अश्वमेघ को घूम रहा है, श्रृद्धा का कोड़ा।
मार ठोकरें हटा रहा है, पथ का हर रोड़ा।।
हर धमनी में विष भरते जो, हो रिक्रूट गए।।
परिचय :- भीमराव झरबड़े 'जीवन'
निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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