Sunday, January 12राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

कविता

जी भर कर जीने दो
कविता

जी भर कर जीने दो

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो। नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो। माना सुख-दुख दोनों, बिना तैयारी के आते दोनों को ही वहन करने, निभनेवाले हों नाते कंटकमय पथ में ही, साहस राहत खुद लाते डर के आगे जीत सूत्र, हे! मानव पनपने दो कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो। नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो। कच्ची माटी का घड़ा, या कच्ची उमर के लोग सहन_शक्ति के बाहर, प्रबल हो जाता संयोग अंतर्मन मजबूत सदैव, पड़ता पस्त शोक रोग दुख संतप्त देखकर, कुछ को खुश हो लेने दो कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो। नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो। सागर मंथन इतिहास, अमृत जहर बटवारा स्वजन संग लुटता सुख, बेबस दुख ही हारा पहचाने ही अनजाने से, कन्नी काटता बेचारा सुख खुशी के मार्ग कम, दुख राहें मचलने दो कष्ट ...
मां बिन घर
कविता

मां बिन घर

डॉ. भगवान सहाय मीना जयपुर, (राजस्थान) ******************** मां बिन घर का माहौल अजीब था। आंगन में दरार और दालान उदास था। छत से भी उदासियां टपकती दिखीं, मुंह बाए खड़ा दरवाजा सुनसान था। ओ मां! तेरी कमी इस कदर खली की, तेरे घर का तो ज़रा - ज़रा परेशान था। परिवार में बच्चों से लेकर बड़ों तक, हर एक से नेह आत्मिक लगाव था। दरवाजे बंधी गौरा गाय समझती थी, तेरे हाथों को चाटने में अमृत स्नेह था। आंगन में चहकती गौरैया जानती थी, तेरे कदमों में ममता का दाना पानी था। आप अनपढ़ होकर भी पढ़ लेती थी, बाबूजी की आंख अभावों का सागर था। बस यादें खूंटी पर टंगी ओढ़नी मां की, यही आंसू समेटता वात्सल्य भरा पल्लू था। कैसे मेरी मां के अपरिमित ममत्व से, चूल्हा चौका खेत खलिहान सरोबार था। मां जताई नहीं दुःख दर्द थकान सिकन, बस उसे परिवार की खुशियों से सरोकार था। परिचय :- डॉ. भगव...
जिन्दगी को थोड़ा आसान बनाते है
कविता

जिन्दगी को थोड़ा आसान बनाते है

कु. आरती सिरसाट बुरहानपुर (मध्यप्रदेश) ******************** जिन्दगी को थोड़ा आसान बनाते है...! आओं गमों को थोड़ा हँसना सिखाते है...!! ख्वाब एक नया सजाते है...! आओं चाँद को इशारा करके जमीन पर बुलाते है...!! मन के भीतर की छवि को आईने में दिखाते है...! आओं तुम्हें तुम्हारी शक्सियत से मिलाते है...!! दुनिया की कुछ रीतों को निभातें है...! वधू के साथ दूसरे तोल पर पिता की बेबसी को बिठाते है...!! बिखरे नातों के बीच प्रेम की एक गाँठ बाँधते है...! मन के सारे गीले शिकवे भुलाते है...!! बीना मौहब्बत के है ये दुनिया कब्र सी...! आओं मिलकर इस जगत को प्रेममय बनाते है...!! जिन्दगी को थोड़ा आसान बनाते है...! आओं इसे अपनी उँगलियों पर नचाते है...!! परिचय :- कु. आरती सुधाकर सिरसाट निवासी : ग्राम गुलई, बुरहानपुर (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि...
बहारों से कह दो
कविता

बहारों से कह दो

विवेक नीमा देवास (मध्य प्रदेश) ******************** मुदित हो रही वसुधा रानी ढल चली देखो शिशिर चली बयार बसंती कोमल गीत गाए नवल मिहिर। फागुन का आगाज है मौसम ने ली अंगड़ाई पीली सरसों भी इठलाती वासंती ऋतु आई। मुस्काकर वसुंधरा ने धरा है अदभुत रूप फिर आए है सबको रिझाने देखो! ऋतुओं के भूप। गुल से रोशन होंगे सारे गुलशन हो या आँगन प्रीत का रंग चढ़ेगा सब पर प्रियतमा हो या साजन। बहारों से कह दो तुम अब भरने दो परवाज़ जी लेने दो थोड़ी खुशियाँ बन कुदरत हमराज।। परिचय : विवेक नीमा निवासी : देवास (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी कॉम, बी.ए, एम ए (जनसंचार), एम.ए. (हिंदी साहित्य), पी.जी.डी.एफ.एम घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपन...
कैसी ये प्रीत है
कविता

कैसी ये प्रीत है

प्रमेशदीप मानिकपुरी भोथीडीह, धमतरी (छतीसगढ़) ******************** प्रीत की बड़ी अनोखी बंधन है रब की बनाई कैसी आबंधन है जग से निराली कैसे ये रीत है दो अनजानों मे कैसी ये प्रीत है क्या अहसास और इम्तिहान है रब से की दुआ की पहचान है दिलों मे बजती कैसी संगीत है दो अनजानों मे कैसी ये प्रीत है जाति, धर्म से भी ऊँचा नाम है स्व बंधन, जग से क्या काम है मर मिटे एक दूजे पर ये रीत है दो अनजानों मे कैसी ये प्रीत है दूर रहकर भी आसपास लगे हर पल दिल को जो खास लगे प्यासे दिलो मे अनबुझी प्रीत है दो अनजानों मे कैसी ये प्रीत है सबसे ऊपर है मुहब्बत का नाम जिसकी लगा ना सके कोई दाम मुहब्बत तो पूर्व जन्म की प्रीत है दो अनजानों मे कैसी ये प्रीत है परिचय :- प्रमेशदीप मानिकपुरी पिता : श्री लीलूदास मानिकपुरी जन्म : २५/११/१९७८ निवासी : आमाचानी पोस्ट- भोथीडीह जिला- धमतरी (छतीसगढ़) संप्रति...
वसंत की बहार
कविता

वसंत की बहार

संजय कुमार नेमा भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** वसंत की बहार, रंगो की फुहार, गुलाल की वर्षा खुशियों की बौछार। चंदन की खुशबू , अपनों का प्यार होली का त्योहार। होली के रंगों में रंगे हम। खुशियों का त्योहार है, अपनत्व पन के गीतों से रिश्तौं में, घुल जाये प्यार का गुलाल। चारों और गुलाल उड़े, कभी प्रेम का रंग न छूटे। दिलों से मिलने का त्योहार आया। सदा खुश रहें अपनों के संग। प्यार के रंग से भरो पिचकारी। रंग न जाने जात पात की होली। हर गालों में गुलाल लगे गुजिया पकवानों संग थाल सजे। गली-गली भांग घुटे अपनों का प्यार देख, चांद से चांदनी बोली, खुशियों से भरी रहे सबकी होली। दिलों को मिलाकर गले से लगाकर बसंत की बयार चले अपनों के प्यार को प्यार से रंग दो यही है होली। दूरियां, नाराजगी मिटाने की यही है होली। परिचय :- संजय कुमार नेमा निवासी : भोपाल (मध्...
नव चेतना का गीत
कविता

नव चेतना का गीत

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** जागो अब तो सारे लोगो, उजियारा वर लो। बीती बातें दूर करो अब, तिमिर सकल हर लो।। नए सोच को धारण कर लो, मन को अब मोड़ो। अंधी बातें, विश्वासों की, जंज़ीरें तोड़ो।। रुग्ण सोच से कुछ ना होगा, अच्छे को भर लो। बीती दूर करो अब, तिमिर सकल हर लो।। जाति, धर्म के बंधन तोड़ो, जागो सब जागो। नए सोच से नया सवेरा, सच से ना भागो।। सभी कुरीति तज दो अब तो, पावनता भीतर लो। बीती बातें दूर करो अब, तिमिर सकल हर लो।। पतन बहुत होता आया है, अब बढ़ना होगा। रूढ़ि हर अभिशाप बनी है, अब लड़ना होगा।। कर्मकांड, पाखंड सभी जो, तजकर सुख भर लो। बीती बातें दूर करो अब, तिमिर सकल हर लो।। थोथी बातें, परंपराएँ, सबको दूर हटाओ। झांसे बहुत मिले हैं हमको, अब धोखा ना खाओ। दूषित है परिवेश आज तो, उड़ने को पर लो। बीती बातें दूर क...
यों इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं
कविता

यों इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं

रामेश्वर दास भांन करनाल (हरियाणा) ******************** तेरा हमें यों अपनी, बेरूख़ी दिखाना ठीक नहीं, हमारी फ़िक्र में अपना, दिल जलाना ठीक नहीं, हमनें झेले हैं रास्तों पर कांटे, अब दर्द नहीं होता, हमें गिराने में, तेरा खुद गिर जाना ठीक नहीं, क्यों अकड़ते हो तुम, किस बात को लेकर, फिर अपनी सफाई भी, बताना ठीक नहीं, हमें बेपरवाह रखा ख़ुदा ने, अनजान रास्तों पर भी, बेकसूर को तेरा, इतना भी सताना ठीक नहीं, माना की तुम खास हो, खुद के ही आईने में, हम पर तेरा, यों इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं, परिचय :-  रामेश्वर दास भांन निवासी : करनाल (हरियाणा) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित कर...
अभी
कविता

अभी

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** बिखर चुका है बहुत कुछ मगर कुछ यादें समेटना बाकी है अभी। बहुत गम है जिंदगी में मगर चेहरे पर मुस्कुराहट बाकी है अभी। खत्म हो चला है भले जीवन का सफर मगर फिर भी कुछ करने के इरादे बाकी है अभी। बहुत जान चुका हूं जीवन-मृत्यु का भेद बस खुद को जाना-पहचाना बाकी है अभी। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाश...
नाले में बहती है
कविता

नाले में बहती है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** आस्था के नाम पर कब तक दूध बहाओगे, भूख से तड़पते नौनिहालों को क्या कभी नहीं दूध पिलाओगे, दूध जो बह जाती है नालियों में, करुण रुदन की शोर दब जाती है जयकारों और तालियों में, तब नजर आती है मुझे बहती हुई डिग्रियां और तालीम, जो चीख-चीख कर पूछती है क्यों आस्था के चक्कर में बहाते हुए क्षीर उन मासूमों की नजरों में महसूस होने लगता है वो जालिम, हां मैं भी मानता हूं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, मगर लोग क्यों चाहते हैं पाखंडों में डूबे रहना, आंखों में नीर लिए निहारे जा रहा हूं जीवनदायिनी क्षीर को बहते हुए नालियों में, नालियों में। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
आ गया बसंत है
कविता

आ गया बसंत है

शैलेश यादव "शैल" प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) ******************** विटपों के पुराने पत्ते जब मिलने लगे धूल, वसुधा भर के वृक्षों में जब लगने लगे फूल, आम की मंजरी जन जन का मन मोहने लगे, सेमर पलाश वन लाल सुमनों से सोहने लगे, तो समझ लीजिए आस-पास आ गया बसंत है। कलघोष सुमधुर कंठों‌ से जब प्रिय बोलने लगे, अपनी मधुरता को मनुज के मन में घोलने लगे, सहजन का तरु जब श्वेत पुष्पों से भर रहा हो, बरगद जब कूचों को लाल लाल कर रहा हो, तो समझ लीजिए आस-पास आ गया बसंत है । बैरों के वृक्षों में भी जब लालिमा छा गई हो, जामुन के वृक्ष में भी जब नई पत्ती आ गई‌ हो, जब कटहल के छोटे फल वृक्ष में लटक रहे हों, जब अपने पराए सब यहाॅं-वहाॅं भटक रहे हों, तो समझ लीजिए आस-पास आ गया बसंत है। महुए में भी छाई एक अलग ही मुस्कान हो, सुमनोहर सुगंध से भरा जब सारा वितान हो, जब चारों तरफ खुशियों की छाई बहार हो, ...
ठौर कहां
कविता

ठौर कहां

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** समंदर के सैलाब का है साहिल यादों के सैलाब का साहिल कहां आसमां ठौर मेहताब आफताब का चमकते सितारों का ठौर कहां। नदियों के कल-कल में स्वर हैं जल में पडती किरणों के प्रतिबिंब का ठौर कहां शून्य आकाश में उड़ते पक्षी की फुनगी है ठौर वृक्ष से गिरे पत्ते का ठौर है कहां। सूरज की किरणों का ठौर है धरती आकाश, धरती के क्षितिज का ठौर कहां। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती रही आकाशवाणी इंदौर से भी रचनाएं प्रसारित होती रहती हैं व वर्तम...
आलिंगन
कविता

आलिंगन

प्रतिभा दुबे ग्वालियर (मध्य प्रदेश) ******************** होता जब आलिंगन तब, प्रेम से जीवन लेता जन्म ! नव शिशु की धड़कन सुन हुआ मधुर सा आलिंगन।। प्रेम से भरा स्पर्श हमें प्राप्त, आलिंगन से ही हुआ सदैव। जैसे धरती और गगन के, आलिंगन से बहती हैं पवन।। स्नेह से भरे आलिंगन ही, हमें सहानभूति प्रदान करता। हम बचपन की दहलीज में, आलिंगन की भाषा प्रेम समझते।। भटकते नहीं है फिर यह कदम जब मिल जाता प्रेम का आलिंगन। जब बढ़े ज्ञान की ओर कदम होता परम आत्मा से आलिंगन।। प्रेम, दया, क्षमा से भरा हृदय सत्य का करता सुंदर आलिंगन।। परिचय :-  श्रीमती प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका) निवासी : ग्वालियर (मध्य प्रदेश) उद्घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कह...
मातृभाषा दिवस
कविता

मातृभाषा दिवस

गायत्री ठाकुर "सक्षम" नरसिंहपुर, (मध्य प्रदेश) ******************** माता होती है सबको प्यारी, भाषा होती है सबकी न्यारी। हर क्षेत्र की होती अलग भाषा, मातृभाषा होती सबकी दुलारी। संपूर्ण विश्व में प्रायः हर जगह, मातृभाषा में वार्तालाप होता है। माता से भी अधिक महत्व देते, अपनेपन का एहसास होता है। शैशवावस्था से सुनते जिसको, प्रेम प्रगाढ़ता बढ़ती ही जाती है। उम्र दराज होते होते मातृभाषा, तन मन में सबके बस जाती है। स्वाभिमान का प्रतीक वो बनती, क्षेत्रीयता का प्रतिनिधित्व करती। दिवस विशेष क्या है उसके लिए, सदा ही 'सक्षम' चहेती बनी रहती। परिचय :- गायत्री ठाकुर "सक्षम" निवासी : नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अ...
माँ केवल माँ जैसी होती
कविता

माँ केवल माँ जैसी होती

डॉ. अवधेश कुमार "अवध" भानगढ़, गुवाहाटी, (असम) ******************** चाहता हूँ वक्त को, मुट्ठी में अपने बंद कर लूँ, ज़िंदगी की दौड़ में अब, माँ न मेरी दौड़ पाती। *** जंग लड़ती ही रही माँ, ज़िंदगी भर ज़िंदगी से, वक्त ने धोखा दिया है, ज़िंदगी के साथ मिलकर। **** माता ने फिर भाँप लिया है, बेटे की नादानी को, किंतु न बेटा समझ सका है, कुर्बानी अपने माँ की। **** माँ को अपने छोड़ गया है, बेटा एक अनाथालय में, वर्षों पहले उस बच्चे को, उसी जगह से गोद लिया था। ***** माँ - बापू को छोड़ अनाथालय में, बेटा भागा है, शायद उसके तीर्थाटन की, ट्रेन छूटने वाली है। ***** पढ़ी- लिखी वह नहीं किंतु बेटे का मन पढ़ लेती है, जाने कब, किन स्कूलों में, माँ ने ये भाषा सीखी? ***** माँ केवल माँ जैसी होती, गुरु, ईश्वर सब पीछे हैं, जग में ऐसा बैंक नहीं, जो उसके ऋण को चुका सके। ***** परिचय :- डॉ. अवधेश कुमा...
मानवता देखो शरमाई
कविता

मानवता देखो शरमाई

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** मानवता का छेद, जात पात का भेद, कभी ना बुर पाई, वोट बैंक की रोटी सेके जात पात के चूल्हे पर, मानवता में घृणा पैदा कर, छेद और भेद बुद्धि में भर देवें, आज का मानव शिक्षित और समझदार ! छेद और भेद का फर्क है समझे, वह हे पढ़ा लिखा इंसान। छेद और भेद की परिभाषा है देखो उसके पास, कम पढ़े (अनपढ़) और बुद्धिहीन करते जाति भेद की बात, आदर्श राम तो शबरी और केवट को गले लगाते, प्रेम के साथ, विभीषण का भेद नहीं लेते हैं श्री राम, राम-राज्य में छेद करें, देखो मंथरा दासी बात, वन जाते श्री राम प्रभु छेद भेद की नही बात। राजनीति में चलती है छेद-भेद की बात, भारत में सब मिलजूल कर रहते हे हर पंथ, छेद-भेद की बात तो अशोभनीय देती अपने मुहँ, वसुदेव कुटुंबकम् का भाव रहा हरदम, जात पात का जहर क्यों? घोलो मानव तन, जह...
क्यूँकि मैं नारी हूॅ
कविता

क्यूँकि मैं नारी हूॅ

नीलेश व्यास इन्दौर (मध्य प्रदेश)  ******************** इन्दौर मे महिला प्रोफेसर के प्रति किये गए जघन्य अपराध, से उपजी मेरी कविता ”क्यूँकि मैं नारी हूॅ, क्या मेरे दर्द बस मेरे ही है, क्या समाज, क्या नेता, क्या संविधान का चैथा स्तंभ, सब चुप है, सब मौन खड़े है, आँखे भी सब मोड़ लिये है, मुझे सताया मुझे रुलाया और मुझे यूँ जला दिया, नारी उत्थान के कानुन, राष्ट्रपति सिंहासन तक दिये, मेरे नाम के सम्मान झेलते और आश्रम भी खोलते, क्या तुमको लज्जा आती नही, क्यूँ गली, चैराहे से नशा करते, यूँ सरेराह मुझे छेड़ते, यूँ तेज चलाते वाहनों से कभी हाॅर्न मारकर कभी कट मारकर वो नालायकी कर जाते है, कभी विरोध किया तो कार से घसीटी ओर जला दी जाती हूँ, मेरे प्रति घृणा लिये, क्यूँ ये लोग तुम्हे दिखते नही, कितना सहूँ, ओर किससे कहूँ, भेदभाव का, जातिवाद का दंश झेलती, लगता है मैं सबला नही, ...
अकादमिक आत्महत्या
कविता

अकादमिक आत्महत्या

नवनीत सेमवाल सरनौल बड़कोट, उत्तरकाशी, (उत्तराखंड) ******************** हे! अतिमानव नहीं समाधान आत्महत्या का तुम्हारा कदम सपना टूटे नहीं टूटना तुम मिलेगी काया बड़ा है भरम। विफल हो रहें कृतसंकल्प में सृजन करें अद्भुत आशा क्षणिकावेश में लिया जो निर्णय आलम कहेगा तुमको हताशा। आत्मघाती न समझे कुछ भी होती वेदना एक ही बार सुन परितापी हृतपीड़ा से परिजन मरते बारम्बार। सहानुभूति के तुम अभिलाषी मार्गी से पूछना हर एक बार पीछे छोड़ दो अतीतगत को सुखद बने जीवन का सार। यदि हो केंद्रित धीर अवस्था प्रदीप्त करेगा लक्ष्य तुम्हारा अन्तर्ज्वाला को बाधित रखना निजता में तू कुल का है तारा।। परिचय :-  नवनीत सेमवाल निवास : सरनौल बड़कोट, उत्तरकाशी, (उत्तराखंड) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्...
दुलार तो लीजिए
कविता

दुलार तो लीजिए

वीरेन्द्र कुमार साहू मंदिरपारा, सूरजपुर (छत्तीसगढ़) ******************** मैं कब से यही पड़ा हूं, सिरहाने के नीचे जमीन पर जरा नजरों से उठा तो लीजिए। चांद कब का ठहरा है, सरोवर में कुमुदनी के बीच में जरा हाथो से रास्ता बना तो दीजिए। देखिए तो वो तारा जरा मधीम हो चला है जरा धूल को हटा तो दीजिए। कुछ परिंदे भूखे ही लौट जाते हैं दरवाजे से थोड़े और दाने बिखेर तो दीजिए। कब तक कोई निराश जीवन काटेगा, जरा बाहों में भर कर दुलार तो लीजिए।। परिचय :- वीरेन्द्र कुमार साहू निवास : भैयाथान रोड, मंदिरपारा, जिला सूरजपुर (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी...
चल-चल
कविता

चल-चल

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जब मैंने शुरू किया अपनी ओर से कुछ हलचल, तुरंत लोगों ने कहना शुरू किया यहां से चल चल, हां बिल्कुल चलना तो है, इस सड़ांध भरे माहौल से निकलना तो है, अभी तक हमें कोई और चलाता था, पल पल हमारे अहम को चोट पहुंचाता था, ले दे के चलके कुछ आगे आ पाये हैं, कुछ अपनों को सच्चा इतिहास बता पाये हैं, तुम्हारी अगुवाई में अब तक केवल लानत, मनालत, जहालत ही झेलते आये हैं, खुद से खुद को ढंग से नहीं मिला पाये हैं, अब खुद को जान रहे हैं तब भी तुम्हें परेशानी है, ये तुम्हारी सोची समझी साजिश है नहीं कोई अनायास वाली नादानी है, अब जब तक अपनों के अंदर न आ पाये आग, अपने जब तक न जाये जाग, तब तक आप बोलते रहो चल चल, हम अपने हक़ हुक़ूक़ के लिए चलते रहेंगे पल पल, तो जागृति पहल जारी है, ये हमारे भविष्य के लिए तैयारी है। ...
काश! मैं भी स्कूल जा पाती…
कविता

काश! मैं भी स्कूल जा पाती…

सोनल सिंह "सोनू" कोलिहापुरी दुर्ग (छतीसगढ़) ******************** स्कूल जाते हम उम्र बच्चों को, अपलक निहारती बर्तन माँजती मुनिया, मन ही मन ये सोचे, काश! मैं भी स्कूल जा पाती ... होते जो मेरे अम्मा-बाबा, न होती आज ये लाचारी। मैं भी जा पाती स्कूल, लिए किताबें पहने ड्रेस प्यारी। रोज नया कुछ सीख जाती, सखियों से भी मिल पाती। मन लगाकर मैं पढ़ती, आगे-आगे मैं बढ़ती। पढ़-लिखकर कुछ बन जाती, जीवन बेहतर कर पाती। मिलता जो मुझको मौका, अंबर को भी छू जाती। काश! मैं भी स्कूल जा पाती... परिचय - सोनल सिंह "सोनू" निवासी : कोलिहापुरी दुर्ग (छतीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं,...
हमारा भी जमाना था
कविता

हमारा भी जमाना था

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** पीढ़ी देखे चरम बदलाव, चिंता बिन अफसाना था। भला-बुरा का ज्ञान नहीं पर, हमारा भी जमाना था। बिन शर्म संकोच बचपन में, पैदल साइकल जो हुआ। दूर-पास विचार नहीं संग, मां पिता गुरु ईश दुआ। चला करते पीढ़ी के रिश्ते, चाचा मामा बहन बुआ। ढपोरशंख पदवी से दूर, प्रतिशत उच्च अंक छुआ। बिना शरम इगो पुस्तकों का, क्रय विक्रय ठिकाना था। परिवार सहयोग में कितनी, लाइन में लग जाना था। अपनी पीढ़ी चरम बदलाव, बिन चिंता अफसाना था। भला-बुरा का ज्ञान नहीं पर, हमारा भी जमाना था। प्रभु प्रलोभन मिठाई का, कम मेहनत विनय करते। पढ़ाई खर्च का बोझ वहन, कभी उजागर ना करते। सिलवटी ड्रेस सस्ते खेल से, जमकर खुशियां पा लेते। कंचा भौंरा पिट्टुल कौंडी, लूडो चेस चला करते। जरा सी पॉकेट मनी बचे, अन्य शौक भी पाना था। घर का मुरमुरा चूड़ा भेल, अपना शौक पुराना था। अपनी पी...
खुद को, खुद से ही समझाया जाए
कविता

खुद को, खुद से ही समझाया जाए

रामेश्वर दास भांन करनाल (हरियाणा) ******************** रख कर दिल में, जज़्बात अपने, ना किसी और को, बताया जाए, दर्द जो उसने दिया, दिल को मेरे, अब खुद ही इसे, तड़पाया जाए, वादे तो हमसे, हसीन किए थे उसने, मगर उन सबको, अब भुलाया जाए, दिया है ग़म उसने, तो ग़म ही सही, अपने दर्द को अब, दिल में समाया जाए, ज़माने से कह, हसीं उड़वानी है अपनी, ज़ख्म जो मिले, खुद ही मरहम लगाया जाए, उसने तो जो किया, समझ है उसकी, अब खुद को, खुद से ही समझाया जाए, बड़ा दर्द दिल में, दे जाता है प्यार करना, आंसुओं को अब, ज़माने से छिपाया जाए परिचय :-  रामेश्वर दास भांन निवासी : करनाल (हरियाणा) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अप...
हाँ ! मैं लड़की हूँ
कविता

हाँ ! मैं लड़की हूँ

शैलेश यादव "शैल" प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) ******************** हाँ! मैं लड़की हूँ। हमारे जन्म लेते ही, घरवाले हो जाते हैं मायूस, सोहर नहीं होता हमारे जन्म पर, नहीं बाँटी जाती मिठाइयाँ, कभी तो इस जहाँ में आने से पहले ही, भेज दी जाती हूँ दूसरे जहाँ में, हमें अपनो द्वारा ही बोझ समझा जाता है, अपनों के द्वारा ही सुनती बहुत घुड़की हूँ, छोटी हूँ, मझली हूँ या मैं बड़की हूँ, हाँ ! मैं लड़की हूँ, हाँ! मैं लड़की हूँ। संसार के श्वानों की आंखों में गड़ती हूँ, दिन-रात गिद्धों से लड़ती झगड़ती हूँ, सारा काम घर का मैं ही तो करती हूँ, फिर भी दुनिया से मैं ही डरती हूँ, जहाँ देखें वहीं, खाती मैं झिड़की हूँ हाँ ! मैं लड़की हूँ, हाँ ! मैं लड़की हूँ। मुझे पराया धन माना जाता है, मुझे दान किया जाता है, कभी सारी सभा के बीच में अपमान किया जाता है, कभी सौंदर्य का कभी पीड़ा का गुणगान किया जात...
शब्दांजलि
कविता

शब्दांजलि

संजय कुमार नेमा भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** मां तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा तस्वीर में ही रहा। तस्वीर में छलकते चेहरे को निहारता।। अब अपने मन को समझाता। तस्वीर की झूलती माला को असहाय से देखता ।। भूली बिसरी यादों को अपनी यादों से जोड़ता। मां के आशीषों एवं आंचल को खोजता।। यादों में खोकर बीते कल को खोजता। अब तुम्हारी यादों में आंसुओं को बहाता।। अपनी नई-नई बातों को तुमसे जोड़ता। बीते कल को तुमसे जोड़ता।। अब तुम्हारे बिना अपनी ख्वाहिश किसको बताऊं। अपनी मुश्किलों और दुख किसको सुनवाऊं।। मां तुम्हारे बिना अपना वजूद बचा ना सका। अब अपनी जिद्द किसी से पूरी करवा न सका।। अपने नए नए सपने, खुशियां किसी को बतला ना सका।। अब मुझे घर में गले से लगाने वाला ना रहा। मेरी आवाज को सुनने वाला कोई ना रहा।। अपनी सफलता का जश्न मनाने वाला, कोई ना रहा। अब तुम्हारा मुस्क...