पीढ़ी-दर-पीढ़ी
विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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दो पैरों की गाड़ी चलती जा रही है
अवनि अम्बरतल सब देख रही है।
कोरोना प्रकोप तांडव झेल रही है
कुरुक्षेत्र के कृष्ण पांडव टेर रही है।
जुनून था कभी जज़्बा बदल रही है
नासमझी की राहें बलवा कर रही है।
प्रदर्शन धरनों की बौछार सह रही है
आस-विश्वास की व्यथा कह रही है।
अपनों और सपनों को यूं तौल रही है
कटु प्रवचन से जिंदगी जो खौल रही है
नाटक पे नाटक के वो पट खोल रही है
ममता-समता हर युग अनमोल रही है
शिक्षा-संस्कार किस तरह संभाल रही है
परिवर्तन अब परंपरा को खंगाल रही है।
पुरखे धनपति चाहे पीढ़ी कंगाल रही है
नव पारंगत पीढ़ी अब गुरु-घंटाल रही है।
मेहनत मन्नत खिदमत की फ़िज़ा रही है
किस्मत ताकत आदत की रज़ा रही है
नेता नव-भारत के मंसूबे सजा रही है
जनता ढपली से अपना राग बजा रही है
हौसलों से अब फासलों को नाप रही है
गुजरी यादें अपने हाथों से ताप रही है
चालें ...