उम्मीदों की भोर
भीमराव झरबड़े 'जीवन'
बैतूल मध्य प्रदेश
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निगल रहा अब
अंधकार जग,
होकर आदमखोर।
क्षितिज परे
जाकर दुबकी है,
उम्मीदों की भोर।।
जंगी ताले
ने जकड़ा है,
दुनिया का चिंतन।
शुष्क कूप में
करते मेंढक,
सरहद पर मंथन।।
हर बैठक का
फल खा जाता,
छली केमरा चोर।।
क्षितिज परे
जाकर दुबकी है,
उम्मीदों की भोर।।१
निर्जन में
सम्पन्न भेड़िए,
करते हैं कसरत।
कम्बल ओढ़े
चरती हैं अब,
कुछ भेड़ें आहत।।
शून्य कौर के
आगे लगकर,
करे पेट में शोर।
क्षितिज परे
जाकर दुबकी है,
उम्मीदों की भोर।।२
भगा दिए हैं
दर से शिल्पी,
इन बाजारों ने।
वस्त्र जंग के
पहन लिए हैं,
अब औजारों ने।।
'जीवन' का हर
उत्सव भूला,
इस जंगल का मोर।
क्षितिज परे
जाकर दुबकी है,
उम्मीदों की भोर।।३
परिचय :- भीमराव झरबड़े 'जीवन'
निवासी- बैतूल मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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