Friday, March 14राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

कविता

शरद ऋतु
कविता

शरद ऋतु

सपना दिल्ली ******************** शरद ऋतु आते ही सूरज दादा भी खेलें हमसे आँख मिचोली देर से आते जल्दी चल बनते, कभी रहते दिन भर गायब.... दिन निकलता पर होता नहीं उजाला चारों ओर रहता अंधेरा छाया ऐसा लगता मानो कोहरे का आतंक सब पर है भारी..... उस पर सर्द हवाएं, शीत लहर से कट कट करते दांत बजते रोज़ नहाना होता बेहाल पानी भी बन जाता  दुश्मन देखते ही इसे भागते सब दूर दूर... कबंल, रजाई छोड़ उठने की न अब हिम्मत होती गर्म कपड़े डालो जितना फिर भी ठंड से राहत नहीं उस पर भी जुकाम, खांसी सबको लेते अपने घेरे में होठ, पैर सब फट जाते मानो जैसे रुखापन जीवन में बस जाता... गली, मुहले  में अब न होती पहली वाली रौनक सब घर के अंदर दुबके है मिलते चारों ओर बस सन्नाटा छाया रहता..... रहम करो अब तो हम पर सूरज दादा चीर इस कोहरे को अपनी किरणों से तुम फिर से अपना परचम लहराओ ठिठुरते जीवों को आकर तुम राहत दो...! परिचय :-...
सरकारी स्कूल
कविता

सरकारी स्कूल

राम प्यारा गौड़ वडा, नण्ड सोलन (हिमाचल प्रदेश) ******************** सरकारी स्कूलां दी क्या रीस पैअलिया ते आठुंईयां तक बिल्कुल नी लगेया दी फीस। दपेहरें जेबे लगेया दी पुख आदी छुट्टिया री कन्टी बाज्जदेई खाणा देउंई एम,डी, एम री कुक। पैअलिया ते बारुंईयां तक दो-दो बरदियां एकदम मुफत। दो सौ रपईया नाल सलाई हिमाचले दी सरकारे ऐ बड़ी खरी योजना चलाई। दसुंईयां तक कताबां फ्री ऐते करिके बोलदे- सरकारी स्कूलां दी क्या रीस। बेटियां दी नी लगदी ट्युशन फीस सरकार देयादी पांति-पांति रे सकौलरसिप। खरे पढाकुआं जो मिलदे लैपटोप बोरड़ मैरिटा च आणे आलेआं जो रपईया मिलदा दस हजार। ऐते करिके हूंदी सरकारी स्कूलां दी जय-जयकार। हर बच्चे दी सेअत जांच हपते बाअद फॉलिक एसिड गोली साला च दो बार डी वर्मिंग गोली जवान बच्चियां जो सैनेटरी नेपकिन फ्री बस पास री सुबिदा खास। पैअली, तिजी, छेउंई, नउंईं कलास फ्री स्कूल चौअले मिलदे खास। ईकॉ फ...
शशि सम तेजस्विनी हिंदी
कविता

शशि सम तेजस्विनी हिंदी

डॉ. पंकजवासिनी पटना (बिहार) ******************** भाषाओं के नभ में शोभित शशि-सम तेजस्विनी हिंदी संस्कृत इसकी दिव्य जननी यशश्विनी इ दुहिता हिंदी राष्ट्र की संस्कृति-वाहक भारत की सिरमौर हिंदी सरस्वती वीणा से झंकृत देववाणी है यह हिंदी व्याकरण इस का वैज्ञानिक परिष्कृत प्रांजल है हिंदी हर अभिव्यक्ति में सक्षम सशक्त सरल संप्रेषणीय हिंदी स्वर-व्यंजनों से सुसज्जित अयोगवाह अलंकृत हिंदी रस छंद अलंकार से मंडित बह चली सुर-सरिता हिंदी विश्वस्तरीय औ कालजयी साहित्य-सृजन-सक्षम हिंदी तुलसी सूर मीरा निराला के हृदय की रानी हिंदी हिंद की साँस में बसती यह जन जन की प्यारी हिंदी कश्मीर से कन्याकुमारी श्वास-श्वास-बसी हिंदी बहुभाषा भाषी हैं हम, तो सबको मान देती हिंदी सभी भाषाओं को एक ही सूत्र में पिरोती हिंदी दोनों ही बाँहें फैलाए सभी को अपनाती हिंदी अंँग्रेजी उर्दू सब बोली को बिन दुर्भावना वरे हिंदी...
चांदनी के पैरहन
कविता

चांदनी के पैरहन

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** चांदनी के पैरहन लेकर ज़मीं पर, ये तुहिन कण इस तरह पहना रहे हैं। पत्ते पत्ते पर नयी लिखकर कहानी, लग रहा है गम सभी दफना रहे हैं। हर तरफ लगती धवल चादर बिछी कालिमा नज़रें चुरा जाने लगी है। अनसुनी सी थाप पर सरगम जगी पाज़बें नूपुर संग गाने लगी है। एकटक नीहार रश्मि को निरखते, ये खिला मन तो हुआ जाता भ्रमर सा। टहनियां यूं झुक गयीं अभिसार में, आचमन ज्यों हो रहा प्यासे अधर का। यह नज़ाकत ही न बन पायी जो आदत, बर्फ का ही रूप ले लेंगे तुहिन कण। अहम का कोहरा घना हो जायेगा, ठहर कर जमते चले जायेंगे हिम कण। परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमें...
देश मालामाल है
कविता

देश मालामाल है

अख्तर अली शाह "अनन्त" नीमच ******************** क्यों फिक्र तुम्हें देश की है क्या मलाल है। क्या देखते नहीं हो देश मालामाल है।। स्टेचू गगन चुंबी यहां हैं हमारे पास। आश्चर्य जहां का है ताज हमारी मिरास।। किले बड़े-बड़े हैं ऐसे किसके हैं निवास। संसदभवन अब औरनया बन रहा हैखास।। दुनिया के साथ हमने मिलाए कदम सदा। हरअपना कदम इस जहां में बेमिसाल है।। क्यों फिक्र तुम्हें देश की है क्या मलाल है। क्या देखते नहीं हो देश मालामाल है।। अब माल हैं बड़े-बड़े करोड़ों के गोदाम। आश्वस्त हैं इसओर चल रहा हैऔर काम।। महंगाई तरक्की की शक्लहै करो सलाम। मदिरा सरे बाजार बिक रही है सरे आम।। हरहाथ मेंअब काम है दुनिया का ज्ञान है। घर बैठे पूंछ लेते हैं क्या हाल-चाल है।। क्योंफिक्र तुम्हें देश की है क्या मलाल है। क्या देखते नहीं हो देश मालामाल है।। अब देखिए रेलों की ही रफ़्तार देखिए। मेट्रो का कितना हो रहा विस्ता...
सत्संग
कविता

सत्संग

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** मुझे मेरे होने पर अहंकार है राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध मेरे अलंकार है। करू हर काम मे मनमानी मैं जो ठहरा अभिमानी देख दुसरो का दुःख मुझे अच्छा लगता है दुसरो को दुःख देना मुझे अच्छा लगता है परपीड़ा में आता मुझे आनंद है हँसते हँसाते चेहरे मुझे नापसंद है हम प्रजा हम ही सरकार है राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध मेरे अलंकार है। दुसरो की बात मैं क्यों मानु अपराध बोध मैं न जानु स्वार्थसिद्धि मेरा लक्ष व धाम है मुझे दुसरो से नही कोई काम है पर निंदा में आता मुझे रस है दुसरो को दबाने में ही जस है ब्रह्मांड सा मेरा विस्तार है राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध मेरे अलंकार है। कर ले तू मन मानी चाहे जितनी मार ठोकर दुनिया को चाहे जितनी समय का पहिया रहा है घूम आज तू मद में चाहे जितना झूम दब जाएगा मिट्टी में जल जाएगा भट्टी में कर ले तू अभिमान मूढ़ तू क्या जाने जीवन के ग...
सजल-जरुरी तो नहीं
कविता

सजल-जरुरी तो नहीं

विकाश बैनीवाल मुन्सरी, हनुमानगढ़ (राजस्थान) ******************** तुझसे सुबह शाम मिलूँ, जरूरी तो नहीं, तेरे नाम पे गजलें कहूँ, जरूरी तो नहीं। बेशक बेइंतहा है प्यार, तुझसे जानेमन, मैं इसका दिखावा करूँ, जरूरी तो नहीं। जीना पड़ता है, परिवार-समाज देखकर, बस प्यार ही सर पर धरूँ, जरूरी तो नहीं। जग से छुपा हुआ, पवित्र रिश्ता है अपना, इस बात का हल्ला करूँ, जरूरी तो नहीं। एक बार कह दिया, अनूठा प्रेम है हमारा, जानू-जानू कहता फिरूँ, जरूरी तो नहीं। हमारी बातें तो हो जाती है, चिट्ठियों में, तेरी गली में आता रहूँ, जरूरी तो नहीं। दिल से याद करता है तुझे ये "विकाश" बस हिचकियों में ही रहूँ, जरूरी तो नहीं। परिचय :- विकाश बैनीवाल पिता : श्री मांगेराम बैनीवाल निवासी : गांव-मुन्सरी, तहसील-भादरा जिला हनुमानगढ़ (राजस्थान) शिक्षा : स्नातक पास, बी.एड जारी है घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार ...
लाचार नहीं है नारी
कविता

लाचार नहीं है नारी

दुर्गादत्त पाण्डेय वाराणसी ******************** कभी सुना है, आपने? उस देवी के बारे में जो हर -वक़्त, जिम्मेदारीयों तले खुद को, समर्पित किए है, टूटी झोपड़ी को, लिपना ताकि, झोपडी की दीवारें जल्दी फट न जाए. कम ही खाती है, वो कहीं खाना, मेरे बच्चों को घट न जाये, कम ही सोती है, वो आराम, उसके लिए अपराध है मजबूरियों की चक्की में खुद को पीसना यही उसकी, अनोखी याद है, कभी देखा है, आपने? खेतों में काम करते, उस माँ को हाथों में हंसिया लिए चिलचिलाती धुप में, जलते हुए अपनी किस्मत की, लकीरों को देखते हुए.. उन्हें देखकर, कभी हसते हुए कभी रोते हुए, कभी खुद ही सम्भलते हुए, क्या देखा है, आपने? उस माँ के नन्हें, उस बच्चे को जो खेतों के, मेड़ पर. माँ बसुंधरा के गोद में, ख़ुशी से उछल रहा हो बड़े -बड़े, महलों के गद्दे फीके सा लग रहें, उस मिट्टी के सामने, क्या समझा है, आपने?...
बोलती खिड़कियाँ
कविता

बोलती खिड़कियाँ

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** एक वो भी वक़्त था जब, खिड़कियाँ भी बोलती थी। खुशबू खाने की,पकवानों की, अपनापन जब घोलती थी, दौड़े आते थे पडौसी बच्चे, काकी जब चौका खोलती थी। रिश्ते खून के ना होते थे पर, मन से मन को जो जोड़ती थी। एक वो भी वक़्त था जब, खिड़कियाँ भी बोलती थी। आवाजें हँसने की, रोने की, होले- से सब कह देती थी। उमड़ पड़ते थे सब रिश्ते जब, बेटियाँ पीहर में डोलती थी। आस-पास के दो घरों को, जज्बातों से वो जोड़ती थी। एक वो भी वक़्त था जब, खिड़कियाँ भी बोलती थी। रौनक तीज की, त्यौहार की, जब गलियों-चौबारों में होती। घर-घर बतियाने लगते जब, मुस्कान हर चेहरे पर बोलती। फुहारें हँसी के वो छोड़ती थी, दिलों में खुशियाँ घोलती थी। एक वो भी वक़्त था जब, खिड़कियाँ भी बोलती थी। अब वो दिन कहाँ रहे जो, दो घरों को फिर जोड़ पाए। कीकर उगे है मनके भीतर, खिड़की कैसे खोली जाएँ। परायों में भी अपन...
मानव तेरा ऐसा स्वभाव होता
कविता

मानव तेरा ऐसा स्वभाव होता

कालूराम अर्जुन सिंह अहिरवार ग्राम जगमेरी तह. बैरसिया (भोपाल) ******************** काश मानव तेरा ऐसा स्वभाव होता हम इसके जीवन यह प्रकृति हमारी काया होती निस्वार्थ भाव से स्वयं देना प्रकृति का वरदान है निस्वार्थ भाव से सेवा करना मानव तेरा स्वभाव होता फिर ना शिक्षा व्यापार बनती प्राकृतिक वह प्राणी के लिए मन में दया का भाव होता हम इसके जीवन यह प्रकृति हमारी काया होती फिर ना यह कोरोना होता ना यह मास्क ना सैनिटाइजर होता फिर ना तू मुझसे दूर होता ना मैं तुझसे दूर होता दिल में दया का भाव होता तू भी आजाद में भी आजाद होता प्रकृति पर है सबका अधिकार ऐसा तेरा स्वभाव होता ना मैं तेरा दुश्मन ना तू मेरा दुश्मन होता हम सब मिलकर रहते हम सब मिलकर रहते तू धरती पर मैं पंछी मैं आकाश में उड़ता हम इसके जीवन यह प्रकृति हमारी काया होती फिर ना तू मुझसे दूर ना मैं तुझसे दूर होता काश मानव तेरा ऐसा स्वभाव होता परि...
भूख
कविता

भूख

सूरज सिंह राजपूत जमशेदपुर, झारखंड ******************** मुझे बेशक गुनहगार लिखना साथ लिखना मेरे गुनाह, हक की रोटी छीनना। मैंने मांगा था, किंतु, मिला तो बस, अपमान, संदेश, उपदेश, उपहास, और बहुत कुछ। जिद भूख की थी, वह मरती मेरे मरने के बाद। इन, अपमानो, संदेशों, उपदेशो, उपहासो, से पेट न भरा, गुनाह न करता तो मर जाता मैं, मेरे भूख से पहले। मुझे बेशक गुनहगार लिखना लिखना, मैं गुनहगार था, या बना दिया गया। हो सके तो, लिखना, उस कलम की, मक्कारी, असंवेदना, चाटुकारिता, जिसकी नजर पड़ी थी, मुझ पर मेरे गुनाहगार बनने से पहले लेकिन, उसने लिखा मुझे, गुनहगार बनने के बाद। परिचय : सूरज सिंह राजपूत निवासी : जमशेदपुर, झारखंड सम्प्रति : संपादक- राष्ट्रीय चेतना पत्रिका, मीडिया प्रभारी- अखिल भारतीय साहित्य परिषद जमशेदपुर घोषणा : मैं सूरज सिंह राजपूत यह घोषित करता हूं...
आंखें बोलती है
कविता

आंखें बोलती है

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** मुंह से ज्यादा आंखें बोलती है दिल के सारे राज खोलती है किसी के प्रति उमड़ती है घृणा किसी के प्रति होता है प्यार आंख हर चीज बयां करती है मेरे यार उनकी आंखों की गहराई हम आज तक नाप न पाये जितना अंदर जाने की कोशिश की इसका कोई अंत न पाये आंखें काली या भूरी इन आंखों के बिना दुनियाँ है अघूरी किसी को दुखी देखकर भर आती है आंखें आंसुओं को समेटकर लाती है आंखें तुम्हारी आंखों से ज्यादा नशा नहीं मिलता मयखाने में बस तू मेरी हो जाय फिर क्या रखा है जमाने में आंखें हमारी होती है सपने किसी और के होते है किसी के प्यार में अक्सर हम यूं ही खोये होते है परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : चिनार-२ ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करता हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलि...
नया साल
कविता

नया साल

रश्मि श्रीवास्तव “सुकून” पदमनाभपुर दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** चलो फिर से एक नया साल आ गया उम्मीदें जगाने जैसे ख्वाब आ गया गुजरे हुए कल का जवाब आ गया ये साल कैसा होगा ये सवाल आ गया गये साल में जो नाकाम हुये थे उनके लिए उम्मीदों का सैलाब आ गया वक्त की मार से जो लहू-लुहान है उनके लिए जैसे ईलाज आ गया दो वक्त की रोटी जिनको नहीं नसीब जैसे पुराना वैसा नया साल आ गया रुपयों और पैसों का बिछौना हो जहाँ जैसा पुराना वैसा नया साल आ गया जिसका जैसा दिन था वैसा साल आ गया नया कुछ नहीं फिर भी नया साल आ गया लिखा है जो किस्मत में वो मिलेगा 'सुकून' नये साल का तो बस नाम आ गया चलो फिर से एक नया साल आ गया उम्मीदें जगाने जैसे ख्व़ाब आ गया परिचय : रश्मि श्रीवास्तव “सुकून” निवासी : मुक्तनगर, पदमनाभपुर दुर्ग (छत्तीसगढ़) घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करती हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी ...
किसान का हाल
कविता

किसान का हाल

संजय जैन मुंबई ******************** सारे देश को जो अन्न देता खुद लेकिन भूखा सोता। फिर भी किसी से कुछ कभी नहीं वो कहता। क्या हालत कर दी उनकी देश की सरकार ने। कठ पुतली सरकार बन बैठी देश के पूंजीपतियों की। तभी उसे समझ न आ रही तकलीफे खेतिहर किसानो की।। सारे देश को जो अन्न देता खुद लेकिन भूखा सोता..।। जब भी विपत्ति देश पर आती अपना सब कुछ वो लगा देते है। भले ही तन पर न हो कपड़ा पर खेत को बोता है। सब कुछ गिरवी रख देता पर फर्ज न अपना भूलता। और सभी की भूख को खुद भूखा रहकर मिटता। ऐसे होते है अपने देश के सारे ये किसानगण।। सारे देश को जो अन्न देता खुद लेकिन भूखा सोता..।। बहिन बेटी और बीबी के सारे गहने रख जाते है। लाला साहूकार के पास और कभी-२ भूमि भी गिरवी रखी जाती किसान की। और नहीं छोड़ता हल चलाना अपने वो खेतो में। और छोड़ता देता अपने खेतो को ईश्वर के आशीष पर। फिर चाहे कुछ भी पैदा हो उस ईश्वर की...
नया वर्ष मुबारक हो
कविता

नया वर्ष मुबारक हो

अख्तर अली शाह "अनन्त" नीमच ******************** नये वर्ष का नया सूर्य यूं किरणे नई बिखेरे। गमके अंधियारे मिट जाएं खुशियां डाले डेरे।। सुख सागर में जीवन नौका बढे निरंतर आगे। बगियामें गुल खिलने वाले रहें न कोई अभागे।। समृद्धि की अमर बेल फिर जीवन पे छा जाये। फिरअभावकी असि नकोई जख्मकभी देपाये।। नूतन स्वर सुख के फूटे कानों में अमृत घोलें। जीवन कानन में अवसर के मोर पपीहे बोलें।। प्यारमिले सागर से गहरा मीत मिले सुखदायी। दूर रहे तन मन से दर्दों की काली परछाई।। इतनीमिले संपदा निशदिन घर छोटापड़ जाये। पांव उठानेसे पहले मंजिल चलकर खुद आये।। नवगतिनवलय अवचेतन मनको करदें स्पंदित। मनवीणा की मधुररागिनी तनकरदेआल्हादित।। आराधन करते करते आराध्य बने आराधक। फर्क मिटे दोनों में दाता कौन, कौन है याचक।। पीकर अमर प्रेम की हाला देह अमर हो जाये। जीवन मरण चक्र से जीवन ऊपर हो मुस्काये।। परिचय :- अख्तर अली ...
सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में
कविता

सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** तन में हो उत्साह और आशाएँ मन में। सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में। बाधाओं से हार न मानें। पथ की कठिनाई पहचानें। आवश्यकताओं को जानें। जो करना है मन में ठानें। विजय पताका फहराएं फिर नील गगन में। सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में। कवच सुरक्षा का हो सक्षम। रहें नहीं आशंका या भ्रम। न हो आक्रमण कोई निर्मम। चाहे कैसा भी हो मौसम। रहें सुरक्षित सभी विश्व रूपी उपवन में। सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में। हो कोई धनवान या निर्धन। आबादी हो या हो कानन। बाहर हो अथवा घर-आँगन। करें सभी नियमों का पालन। रहें मनुज सब अपने-अपने अनुशासन में। सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में। नारी हो अथवा वह नर हो। सतत् सत्य ही का सहचर हो। जो अंदर हो वह बाहर हो। सदा ध्यान में परमेश्वर हो। नित्य आचरण में, वचनों में अथवा मन में। सकारात्मक सोच रहे सबके जीवन में। भावशून्यता ...
नागरिक की अभिलाषा
कविता

नागरिक की अभिलाषा

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** अखबारों में न हो कोई सनसनीखेज खबर टी वी चैनलों पर न हो अनावश्यक मुद्दों पर निरर्थक बहस। हर सवार चलता रहे रोड पर नियमानुसार बाएं पैदल चले फुटपाथ पर सायकल दौड़े उसके ट्रेक पर हो खड़े रेहड़ी ठेले वाले अपने नियत स्थान पर निगम कर्मी ट्रैफिक कर्मी हो सच्चे जन सेवक नागरिक करे उनका अभिवादन हस हस। नेताजी के कार्यक्रम न हो सड़क पर न मने भाई साहब का जन्मदिन सड़क पर न हो दुल्हेराजा कि बारात हावी सड़क पर बे वजह न बजाए कोई हॉर्न कचरा न फेंके सड़क पर खाके पॉपकॉर्न हो जाये बंद दस बजे रात्रि में बजता जो डीजे ज्यास्ति में शहर के हर कोने में हो अनुशासन के दरस हर कोई बोल पड़े वाह वाह बरबस। सरकारी कार्यालय हो सुविधा के साथ सहयोग पूर्ण नागरिको का कार्य हो चुटकियों में पूर्ण सुशासन का सपना हो सम्पूर्ण हर हाथ को काम हो हर पेट मे अन्न हो बुझे सभी की प्यास जन जन की बस य...
अमर शब्द
कविता

अमर शब्द

अमोघ अग्रवाल गढ़ाकोटा, सागर (मध्य प्रदेश) ******************** एक घर घर का एक कमरा कमरे की दीवार दीवार जिस पर टंगी है एक बड़ी तस्वीर तस्वीर में कोई मानव नहीं बस चार शब्द दिख रहे है जिसमें लिखने वाले ने लिखा है शब्द अमर रहेंगे इंतज़ार परिचय :- अमोघ अग्रवाल साहित्यिक नाम : "इंतज़ार" पिता : स्व. बी. के. अग्रवाल माता : श्रीमती आशा अग्रवाल जन्म : ०५ सितंबर १९९१ निवासी : गढ़ाकोटा, सागर (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी.ई. कार्यरत : निजी व्यवसाय लेखन : शांत, करुण, श्रृंगार रस, कविता, कहानी, हाइकू, टांका और अन्य सम्मान : "शतकवीर" सम्मान, "काव्य कृष्ण" सम्मान, निरंतर १२ घंटे काव्य में सम्मान, राष्ट्र कवि गुरु सत्त नारायण सत्तन जी द्वारा दो बार सम्मानित। रंजनकलश इंदौर ईकाई मीडिया प्रभारी, कई पत्र पत्रिकाओं में रचना प्रकाशित। और अन्य सम्मान। साहित्यिक गतिविधियां : वर्ष २०१२ से ...
वे सब नारी थीं
कविता

वे सब नारी थीं

मित्रा शर्मा महू - इंदौर ******************** वे सब नारी थीं फिर भी मर्दानी कहलाई कभी लक्ष्मीबाई कभी दुर्गावती के रूप में शत्रुओं को मुँह की खिलाई। तलवार लेकर खड़ी हो गई कोई भय उसे बाँध न पाया रणचंडी कहो या दुर्गा कहो कोई राक्षस बच न पाया। पन्ना धाय बन जन्मी तो पुत्र का बलिदान किया कोई क्या उससे छीनता पद्मावती ने जौहर किया। स्वतंत्रता की वीरांगना चलती रही बलि पथ पर गाती रही आग के गीत लाठी गोली से ना घबराई। भारत भूमि की वीर बेटियाँ आसमान से टक्कर लेती हैं आंधी, तूफान से खेलती देश की आन पर मरती हैं। परिचय :- मित्रा शर्मा - महू (मूल निवासी नेपाल) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, ह...
हिलोरे ले रहा हर्ष… आया नववर्ष…
कविता

हिलोरे ले रहा हर्ष… आया नववर्ष…

प्रियंका पाराशर भीलवाडा (राजस्थान) ******************** आया नववर्ष हिलोरे ले रहा हर्ष जो बीत गया कुछ खास नहीं अब कुछ अच्छा होने की आस नई कुछ दूर हुए तो कुछ है पास बीता कल है यादों का एहसास कुछ बिगड़ा तो कुछ गया सँवर फिर से सुख दुःख का वही भँवर नए वर्ष के नए संकल्प योजनाओं के कई विकल्प आकांक्षाओं की तुलना में समय है अल्प नववर्ष की नई सुबह मन के सारे विवादों की सुलह नये साल के आगमन पर मुरझाया मन भी जाए खिल क्योंकि समय तो है परिवर्तनशील नववर्ष का प्रथम दिवस जैसे सूखी धरती पर पावस जीवन में भर आए मधुरस सी मिठास आगाज है नए साल का पाए फतह हर क्षेत्र मे कमाल का नववर्ष का प्रथम प्रभात लाए सर्व जन के लिए खुशियों की सौगात नववर्ष का है हार्दिक अभिनंदन स्वागत परिचय :- प्रियंका पाराशर शिक्षा : एम.एस.सी (सूचना प्रौद्योगिकी) पिता : राजेन्द्र पाराशर पति : पंकज पाराशर निवासी : भीलवाडा (राजस्थान)...
दिलों में रहने का रास्ता ढूंढ
कविता

दिलों में रहने का रास्ता ढूंढ

कालूराम अर्जुन सिंह अहिरवार ग्राम जगमेरी तह. बैरसिया (भोपाल) ******************** दिलों में रहने का रास्ता ढूंढ पास तो पराए भी बैठ जाते हैं खुशबू बनकर कर महक ने की कोशिश कर फूल तो कागज के भी खिल जाते हैं ताउम्र साथ चलने की कोशिश कर हमसफ़र एक मिल चलने वाले तो हजारों मिल जाते हैं दो कदम चल कर मंजिल तक पहुंच मुश्किलों से हार कर बैठे जाने वाले तो हजारों मिल जाते किताबों से दिल लगा कर देखो यार लोग तो दिल लगाने वाले लाखो मिल जाते हैं अपने सपनों को पूरा कर सपने देखने वाले तो हजारों मिल जाएंगे प्रकृति की तरह कुछ देना सीख बाहे फैलाकर लेने वाले तो हजारों मिल जाएंगे स्वयं खुश रहकर औरों को हंसाने की कोशिश कर बेवजह रुलाने वाले तो हजारों मिल जाते हैं खुशबू बनकर महक गुलाब की तरह फूल तो कागज के भी खिल जाते हैं हो सके तो सच्चा प्यार कर साथी बेवजह धोखा देने वाले तो लाखों मिल जाते नदी की तरह ताउम्र चल मु...
सत्कर्म
कविता

सत्कर्म

रेखा दवे "विशाखा" इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** द्वन्द भरे इस जीवन में, कुछ पाया, कुछ ना पाया। जो पाया वह प्रसाद बना, ना पाया वह अवसाद बना। द्वन्द भरे इस जीवन में, कुछ पाया, कुछ ना पाया। कभी राग मिला, कभी विराग मिला। कभी जीत मिली, कभी हार मिली। जब जीत मिली तब प्रीति मिली। जब हार मिली, तब रिक्त रही। जब रिक्त रही, तब सत्कर्मो कि सुध मिली। जब सुध मिली, तब दृढ हुई। दृढ़ हुई, संकल्प लिए। संकल्प लिए, कटिबद्ध हुई। सत्कर्म को स्वीकार किया। स्वीकार किया, सत्कर्म किये। यही जीवन का आधार बने। आधार बने, अविराम रहे। अविराम रहे, अनुराग बढ़े। अनुराग बढ़े, आनंद मिले। आनंद जीवन का ध्येय बने। द्वन्द भरे इस जीवन में, कुछ पाया, कुछ ना पाया। परिचय :- श्रीमती रेखा दवे "विशाखा" शिक्षा : एम.कॉम. (लेखांकन) एम.ए. (प्राचीन इतिहास एवं अर्थ शास्त्र) निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) वर्तमान में : श्री माधव ...
सलाम लिखता है शायर तुझे
कविता

सलाम लिखता है शायर तुझे

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** सलाम लिखता है शायर तुझे, तुम्हारे हौसले रखेंगे सदा याद, महामारी २०२० की झेली मार, फिर भी ना की कोई फरियाद। सलाम लिखता है शायर तुझे, युद्ध के नायक तुम कहाते हो, दुश्मन का सीना तुमने चीरा है, तुम दुश्मन का खून बहाते हो। सलाम लिखता है शायर तुझे, तुमने काव्य लिख डाला बड़ा, सुनकर दुश्मन हौसले है पस्त, दुश्मन के इरादे हुये है ध्वस्त। सलाम लिखता है शायर तुझे, तुम्हारी मेहनत रंग लाई जगत, कोरोना की खोज डाली दवाई, कितने लोगों की जान बचाई। सलाम लिखता है शायर तुझे, तुमने जन में अलख वो जगाई, दिन रात सेवा कर की भलाई, भूखे नंगों की कई जान बचाई। सलाम लिखता है शायर तुझे, युद्ध में तुमने न पीठ दिखाई, मारे दुश्मन एक एक हजारों, दिखा डाली जग की सच्चाई। सलाम लिखता है शायर तुझे, खेतों में करता रहता है काम, मेहनत के आगे कायल नाम, किसान को मिले सच्...
यह जिन्दगी है जनाब
कविता

यह जिन्दगी है जनाब

रमेश चौधरी पाली (राजस्थान) ******************** यह जिन्दगी है जनाब, ऐसे ही नहीं महकेगी, इन फूलों की खुशबू से फूलों की खुशबू से, महक सकता है वातावरण पर जिंदगी तो महकेगी इन काटो की सूलो से, यह जिन्दगी है जनाब तन मन को प्रसन्न कर देगे, यह फूलो की सुंदरता पर जिंदगी को प्रसन्न नहीं कर पाएंगे यह फूलो की कोमलता यह जिंदगी है जनाब इसे फूलों की शया से नहीं सवारी जा सकती है, इन्हें तो काटो की शया से सजाना होगा, यह जिन्दगी है जनाब, कभी तो खुशियां समाई नहीं जाती, कभी तो खुशियां मनाई नहीं जाती, यह जिन्दगी है जनाब, झाड़े की रजाई छोड़ के, सूर्य की गर्मी तोड़ के, खड़े हो जावो अपने सपनों पर, जब तक ना झुको तब तक सपने अपने न हो जाएं। यह जिन्दगी है जनाब, कभी अपनों की तनहाई सताएगी कभी इश्क के लम्हें तड़पपाएंगे, यह जिन्दगी है जनाब, यह रीट के ख़्वाब बोहत बड़े है, इसे पाने के लिए बोहत खड़े है, छोड़ दो अपनी...
वर्ष २०२०- कुछ खोया, कुछ पाया
कविता

वर्ष २०२०- कुछ खोया, कुछ पाया

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** वर्ष २०२०- कुछ खोया, कुछ पाया। कहते हैं बड़ा बुरा था ये साल। लोग घरों में बंद, आवाजाही पर, पार्टी पर, घूमने-घुमाने पर व्यर्थ के दिखावे में बर्बाद होती जिंदगानी पर रोक। यार ऐसे भी कोई जीता है? सच में बड़ा बुरा था ये साल। सच में बुरा तो था पर गरीबों के लिए, यतीमों के लिए उन रोज कमाकर खाने वालों के लिए। क्योंकि रोजगार बंद, रोजगार के साधन बंद। जिंदगी उनकी उलझकर रह गई थी। लेकिन सच पूछिए तो यही वह साल भी था जब परिंदे जी भर कर बिना डर आसमान में उड़े। न धुआं, न शोर। पशु भी आदमी नामक प्राणी से कुछ समय के लिए मुक्ति पाए। प्रकृति ने नई दुल्हन-सा श्रृंगार किया। नदियां नहाई, स्वच्छ हुई। पेड़-पौधे जैसे नवजीवन पाए, धरा ने फिर अपना धवल रूप धरा। मनुष्य भी मनुष्य के करीब आया, न जाने कितने हाथों ने दूसरों के घर आशा का दीप जलाया। घर गुलज़ार हुए, ...