बसंत
डॉ. उपासना दीक्षित
गाजियाबाद उ.प्र.
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समझो दुःखों का अंत
पढो़ नव जीवन का मंत्र
आ गया आनंद रुपी पवन
छा गया श्रृंगार का सृजन
जब बसंत छा जाये
तुम आओ द्वार हमारे
मैं दरवाजा खोलूँ
हर बन्धन को छोडूँ
तुम कुर्सी को खिसकाकर
तकिये को तनिक टिकाकर
बैठो हर चिंता छोड़े
आलस को तन पर ओढ़े
मैं भी सटकर यूँ बैठूँ
गृहकाज की चिंता छोडूँ
खिड़की को खोल सलीके
लूँ मस्त पवन के झोंके
हो चाय की प्याली रखी
यादों की भाप उड़े यूं
तुम याद करो तरुणाई
हो मेरे साथ पुरवाई
पीले फ़ूलों की आभा
है प्यार तुम्हारा जागा
तुम हौले से मुस्काओ
बसंत के दूत बन जाओ
न जागे तीव्र भावना
हो केवल प्यारी भावना
तुम समझो और मैं समझूँ
कैसा है बसंत का आना
तुम हम बनकर रह जाओ
हम तुम बनकर रह जायें
तुम मन का बसंत सम्भालो
मैं तन का बसंत सम्भालूँ
घर की दीवारें बोलें
मन के दरवाजे खोंले
अनुभव की सर्द हवाऐं
बसंत के रंग नहायें
तुम हम...