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कविता

रिश्तें
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रिश्तें

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** कभी रिश्ते बनाते है कभी उनको निभाते है। कभी रिश्ते बचाते है कभी खुदको बचाते है। इन दोनों कर चक्कर में अपनो को खो देते है। फिर न रिश्ते रहते है और न अपने रहते है।। जो रिश्तों को दिलो में संभलकर खुद रखते है। और लोगों को रिश्तों के सदा उदाहरण देते है। और रिश्तें क्या होते है परिभाषा इसकी बताते है। और रिश्तों के द्वारा ही घर परिवार बनाते है।। कई माप दण्ड होते है हमारे रिश्तों के लोगों। कही माँ बाप का तो कही बहिन भाई का। किसी किसीके तो पड़ोसी इनसे भी करीब होते है। जो सुखदुख में पहले अपना रिश्ता निभाते है।। रिश्तों का अर्थ स्नेह और मैत्री भाव से समझाते है। और रिश्तों की खातिर समान भाव रखते है। और अपने रिश्तों को अमर करके जाते है। और अमर हो जाते है।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५...
स्त्री हूं मैं
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स्त्री हूं मैं

रश्मि नेगी पौड़ी (उत्तराखंड) ******************** स्त्री हूं मैं मुझे लाचार मत समझना शक्ति का स्वरुप, मां दुर्गा का रूप हूं मैं… ममता की मूरत, स्नेह का सागर हूं मैं दो घरों की लाज हूं मैं, दो घरों की शान हूं मैं त्याग, दया, करुणा की मूरत हूं मैं गंगा जैसी तरल और स्वच्छ हूं मैं स्त्री हूं मैं, मुझे लाचार मत समझना शक्ति का स्वरुप, मां दुर्गा का रूप हूं मैं… शास्त्रार्थ जो करते, तो मैं गार्गी बन जाती आंच जब मेरे पति पर आती, तो मैं सावित्री बन जाती अस्तित्व जब मेरे खतरे में होता, तो मैं काली बन जाती जुल्म जो तुम मुझ पर करोगे उठूंगी, लडूंगी और आगे बढूंगी अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करूंगी हिम्मत को अपना साथी बना कर, अपनी हर मंजिल फतेह कर जाऊंगी और उतारो मुझे किसी भी क्षेत्र में तो मैं नाम कमा जाऊंगी अपनी एक अलग पहचान छोड़ जाऊंगी स्त्री हूं मैं, मुझे लाचार मत समझना शक्ति का स्वरूप मां दुर्ग...
ज्ञान वही… जो जागृत कर दे
कविता

ज्ञान वही… जो जागृत कर दे

ममता श्रवण अग्रवाल (अपराजिता) धवारी सतना (मध्य प्रदेश) ******************** क्या होगा गीता पढ़ पढ़ कर, जब मन में न आये कोई ज्ञान। कितना भी पढ़ पण्डित हो जाये, पर, व्यर्थ रहे, जब हो अभिमान।। ज्ञान बहे धरती पर ऐसे, ज्यों हो बादल की बरसात। पर, व्यर्थ बहें ये बूंदे कीमती, बंजर धरती न समझे औकात।। इसी तरह इस मानव मन पर, कभी न पड़ता कोई प्रभाव। चाहे जितने भी ग्रंथ वो पढले, पर मन से न जाये दुर्भाव।। प्रतिदिन होती धर्म सभायें, होता भगवत, गीता का ज्ञान। कितने जाते गुरुद्वारे, चर्च, कितने पढ़ते बैठ कुरान।। पर कभी समझ न पाते ये, अपने ईश्वर का धर्म आदेश। क्या यही सिखाया प्रभु ने हमें, क्या यही दिया था उनने उपदेश।। ईश्वर तत्व है भाव कल्याण का, जो सबका चाहें सदा कल्याण। तो, चाहो तुम यदि प्रभु को पाना, तब समझो फिर तुम उनका ज्ञान। तब समझो फिर तुम उनका ज्ञान। तब समझो फिर तुम उनका ज्ञान।। परिचय :- ममता...
आगरम… सागरम…
कविता

आगरम… सागरम…

ओंकार नाथ सिंह गोशंदेपुर (गाजीपुर) ******************** आगरम सागरम बुद्धि के नागरम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम हर समय लीन तुझ में सदा मैं रहूं अपनी विपदा कभी ना किसी से कहूं हो एके कर्म करते जाए धर्म कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम है तुम में सब सब तुम में है पर्वत सागर सब तुम में है कोई कुछ भी कहे ना कोई भरम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम ओंकार कहता हे दिव्य दयानिधिम ना क्षमता मेरी कहुं मैं केहि बिधिम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम आगरम सागरम बुद्धि के नागरम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम परिचय :-  ओंकार नाथ सिंह निवासी : गोशंदेपुर (गाजीपुर) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं,...
मौन
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मौन

धैर्यशील येवले इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मैं एकांत में संवादहीन बैठा हूँ सबसे दूर अलग हो परिलक्षित भर हो रहा मौन। विचारों का सुप्त ज्वालामुखी फुट पड़ा है दहकता बहता लावा लगता है मुझे भस्म कर देगा भीतर क्या क्या नही भर रखा था मैंने काश की बह जाने देता समय समय पर किंतु मैं दबाता रहा विचारों को आज जब धारण किये बैठा हूँ मौन सत्य की प्रथम सीढ़ी पर ही बह निकला है मेरा सच। कितना कठिन हो रहा है स्वयं को खाली करना यम नियम संयम की राह पर चल पड़ा हूँ धारणा मजबूत हो रही है अब दूर नही है समाधि। परिचय :- धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानपुर म. प्र. से सम्प्रति : १९८७ बैच के सीधी भर्ती के पुलिस उप निरीक्षक वर्तमान में पुलिस निरीक्षक के पद पर पीटीसी इंदौर में पदस्थ। सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर hindirakshak.com द्वारा हिंदी रक्षक २०२...
कभी बारिश की नमी थी
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कभी बारिश की नमी थी

सुभाष बालकृष्ण सप्रे भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** धरा पर कभी बारिश की नमी थी, वन विकास की गति अब थमी थी, शहरीकरण ने उजाडे आवास हमारे, पेडो के आशियाने हमारी सर जमी थी, गर्मी से निजात दिलाता, न है अब कोई, सर छ्पाने सघन छाया की, बेहद कमी थी, दाने-दाने को तलाशना, मज़बूरी है, हमारी, पानी के बिना हलक में, बची न नमी थी, याद आते हैं, जंगल के, वो हरे भरे, नज़ारे, क्या यही, वो, हमारी सस्य श्यामला जमीं थी. परिचय :- सुभाष बालकृष्ण सप्रे शिक्षा :- एम॰कॉम, सी.ए.आई.आई.बी, पार्ट वन प्रकाशित कृतियां :- लघु कथायें, कहानियां, मुक्तक, कविता, व्यंग लेख, आदि हिन्दी एवं, मराठी दोनों भाषा की पत्रीकाओं में, तथा, फेस बूक के अन्य हिन्दी ग्रूप्स में प्रकाशित, दोहे, मुक्तक लोक की, तन दोहा, मन मुक्तिका (दोहा-मुक्तक संकलन) में प्रकाशित, ३ गीत॰ मुक्तक लोक व्दारा, प्रकाशित पुस्तक गीत सिंदुरी हुये (गीत सँकलन...
ज़िंदगी… “अनछुए लम्हें”
कविता

ज़िंदगी… “अनछुए लम्हें”

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** अधखुले लबों में छूपी, अनकही, कहानियां, हर्फ़ों को हैं, तरस रही, अनजानी, मजबूरियां... कहने को तो, हैं बहूत, लब, लरज जाते मगर, ढल नही पाते, शब्दों में, बह जाते, पाती पे मगर... बिखरें, भीगे, उन हर्फ़ों को, क्यो ना, मोती सा, सहेज ले, खो ना जाये, पाती भीगीं, उसे वक्त से, समेट ले... बैठ, मिल हम, उन पलों को, ख़ुद में, क्यो ना, टटोल ले, अनछुए, लम्हों को, क्यो ना, आओ फिर, उकेर ले... उत्कीर्ण करे, दास्तां नई, अधर पँखुरी, जरा खोल दो, उर छुपे, भावों को फिर, सहज, प्रेम स्याही, से घोल दो... धर दो, अधरों को, अधर पर, शब्द, सांसो में, घुल जाएंगे, लब लरज़ते, गर, कह ना पाये, धड़कनो से, लिख हम जाएंगे... सत्य सँग, वो सुंदर भी होगा वही भावों की, गँगा बहेगी, सहेजेंगे, प्रतीति जटा में, चेतना, "निर्मल" शिव सी होंगी... होगी ना कोई, दास्तां अधूरी, स्वरुप इसक...
उजाला
कविता

उजाला

मईनुदीन कोहरी बीकानेर (राजस्थान) ******************** उजाले के लिए बचा कर रखना अपनत्व की बाती प्यार के तेल में सींच कर, फिर स्नेह का उजाला करना। बुराई की आंधी बुझा ना पाए किसी के दिल का दिया प्यार के आंसुओं से, फिर अंधेरे में उजाला करना। बचपन और जवानी उतार-चढ़ाव की है कहानी इसे सहज कर रखना किसी गरीब की अभिलाषा में, फिर उम्मीद का उजाला करना।। नफरत के इस दौर में घर में भी डर लगता है कोलाहल से भरी हवाओं में प्रदूषण को पर्यावरण में बदलने, फिर आशा की किरण से उजाला करना। वैष्विक महामारी के वायरस को अलविदा करने की मुहिम में सवा करोड़ देशवासियों मुश्किल की घड़ी में, फिर हौसलों के चिराग से उजाला करना। परिचय :- मईनुदीन कोहरी उपनाम : नाचीज बीकानेरी निवासी - बीकानेर राजस्थान घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहान...
रिश्ते सब अनजान हो रहे
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रिश्ते सब अनजान हो रहे

प्रो. आर.एन. सिंह ‘साहिल’ जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** रिश्ते सब अनजान हो रहे गिरगिट सा इंसान हो रहे अब कैसी उम्मीद किसी से दिल से जब बेजान हो रहे दौर कठिन है वक़्त बुरा है स्वार्थ का सिर पे भूत चढ़ा है झूँठ की है चौतरफ़ा चाँदी सत्यव्रती हलकान हो रहे शासन में धृतराष्ट्र है बैठे हैं मदमस्त नशे में ऐंठें ये परिदृश्य अशुभ लगते हैं धूमिल सब प्रतिमान हो रहे किस पर करें यक़ीन बताओ दुविधा में कुछ राह दिखाओ बहुरूपियों का दौर है जैसे रूप बदल भगवान हो रहे बगुला भगत सभी लगते हैं छिप छिप स्वाद मधुर चखते हैं साहिल क्रमशः विमुख हो गए खंड खंड अरमान हो रहे परिचय :- प्रोफ़ेसर आर.एन. सिंह ‘साहिल’ निवासी : जौनपुर उत्तर प्रदेश सम्प्रति : मनोविज्ञान विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश रुचि : पुस्तक लेखन, सम्पादन, कविता, ग़ज़ल, १०० शोध पत्र प्रकाशित, मनोविज्ञ...
कवि का जीवन
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कवि का जीवन

अख्तर अली शाह "अनन्त" नीमच (मध्य प्रदेश) ******************** कवि का जीवन संस्कारित पथ, तारणहार कवि है। कुरीतियाँ हैं व्याधि अगर तो, बस उपचार कवि है।। गुरु है वो जो "अनंत" कहता, उसकी कथनी मानें। जिसपे टिकी सभ्यता की छत, वो दीवार कवि है।। अंधकार में रहकर के कवि, करे उजाला घर-घर। भले हलाहल पीले वो पर, बनता सच्चा रहबर।। "अनन्त" धुन का मालिक है वो, निर्देशित है खुद से। उसका जीना उसका मरना, कब होता है डरकर।। खिला कमल है कवि कीचड़ में, सबकी करे भलाई। तुम बारूदी कर लो खुद को, वो है दियासलाई।। "अनन्त" नम भूमि में ही तो, जीवन नित फलता है। बिना प्रयासों के कब मिलती, लोगों दूध मलाई।। कवि वही जो संप्रभु शक्ति, से ताकत पाता है। दरबारों में नहीं उठाता, हाथ न यश गाता है।। आती-जाती सरकारों के, क्यों "अनंत" गुणगाए। सेवक बनकर बंदो का जो, ऊपर से आता है।। परिचय :- अख्तर अली शाह "अनन्त" पिता : क...
रंगो से प्रेम करके देखो
कविता

रंगो से प्रेम करके देखो

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** प्रेम मोहब्बत से भरा, ये रंगों त्यौहार है। जिसमें राधा कृष्ण का जिक्र बेसुमार है। तभी तो आज तक अपनो में स्नेह प्यार है। इसलिए रंगों के त्यौहार को, हर मजहब के लोग मनाते है।। होली आपसी भाईचारे और प्रेमभाव को दर्शाती है। और सात रंगों की फुहार से, 7-फेरो का रिश्ता निभाती है। साथ ही ऊँच नीच का भेद मिटाती है। और हृदय में सभी के भाईचारे का रंग चढ़ती है।। सात रंगो के ये रबिरंगे रंग सभी को भाते है। और अपनो के दिलो से कड़वाहट मिटाते है। रंगो में रंग मिलकर नये रंग बन जाते है। आपस में रंग लगाकर नये नये दोस्त बनाते है। और नये भारत का निर्माण मिल जुलकर करते है।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५ वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री जैन शौक से लेखन में सक्र...
माँ कौशल्या ने राम जी से पूछा
कविता

माँ कौशल्या ने राम जी से पूछा

प्रेम नारायण मेहरोत्रा जानकीपुरम (लखनऊ) ******************** जब प्रभु राम १४ वर्ष के बनवास के बाद वापस आये और माँ कौशल्या से मिलने गए तो अत्यन्त दुखी होने के कारण उन्होंने अपनी कोख को ही अभागिन कह देखे प्रभु राम कितनी शालीनता से उनकी पीड़ा को हर लिया और माँ कैकेयी, हनुमान जी, भरत जी और लक्ष्मण जी का मान बढ़ाया। माँ कौशल्या ने राम जी से पूछा राम क्यों दुःख भोगने को इस अभागिन कोख आया, राज्य छुटा, वन गया, चौदह वर्ष तक कष्ट पाया। राम जी ने मुस्करा कर उत्तर दिया हूँ परम सौभग्यशाली मातु तेरी कोख पाया, शीश धर आज्ञा पिता की, मैंने जग में मान पाया। जग को कुछ आदर्श देने आया है माँ राम तेरा, तप के कंचन सा निखरना, मातु था उद्देश्य मेरा। कैकेयी माता ने अपजस सह मुझे कंचन बनाया। हूँ परम सौभग्यशाली... यदि न जाता वन तो हनुमत और लेखन सेवा न पाते, त्याग की प्रतिमूर्ति मेरे भरत भैया बन न पाते। में बंधा था ...
प्रीत कान्हा से
कविता

प्रीत कान्हा से

विमल राव भोपाल मध्य प्रदेश ******************** कान्हा तुम संग प्रीत लगाई मन हीं मन पछताई मैं। विरह अगनी में ऐसी उलझी आपही रास रचाई मैं॥ भूल गई मैं सांझ सवेरा द्वार द्वार फिर आई मैं। कहाँ गयो चितचौर कन्हैया नैयनन ढूंढ ना पाई मैं॥ गोपियन संग जो रास रचायों मोहे कन्हैया नाच नचायों। घैर लयी पनघट कान्हा नें प्रेम रंग कों राग बजायों॥ मैं आगे कान्हा पीछे बृज की गलियन, दौड़ाई मैं। हिय में ऐसो, बसो नंदलला याहे एक क्षण भूल ना पाई मैं॥ सखी श्याम सलोनों कितै गयो याकि बंशी चुरा ल्ये आई मैं। काऊ देखो हैं कुँज गलिन कान्हा यासों प्रीत भुला ना पाई मैं॥ परिचय :- विमल राव "भोपाल" पिता - श्री प्रेमनारायण राव लेखक, एवं संगीतकार हैं इन्ही से प्रेरणा लेकर लिखना प्रारम्भ किया। निवास - भोजपाल की नगरी (भोपाल म.प्र) विशेष : कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं प्रदेश सचिव - अ.भा.वंशावली संरक्षण एवं संवर्द्धन संस्था...
मन में कोई दुविधा मत रखो
कविता

मन में कोई दुविधा मत रखो

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** हँसो, खेलो, कूदो, मुस्कुराओ, सुख दुख हरदम स्वाद चखो, दूसरों की सहायता कर देना, मन में कोई दुविधा मत रखो। काम करो सदा सोच समझ, वरना पड़ जाता है पछताना, जो रूठकर जाना चाहते हो, बस उन्हें प्यार से समझाना। राह चलना सदा हँसते गाते, देश विकास का एक तराना, आगे बढऩे की ललक रखो, एक दिन याद करेगा जमाना। पाप कर्म जो करता जगत में, हो जाता जन का जरूर नाश, आजादी मिली हमको प्यारी, बनकर नहीं रहना कभी दास। संसार में कुछ करने को आये, पाप कर्म में कभी नहीं गंवाये, दाता का निर्मित किया संसार, होठों पर ये खुशियां गुनगुनाये। सरस,रसधार मन में रखना है, पाप, नीच, अधम मत बनना, खुद भी बढ़ों औरों को बढ़ाए, बस दिल में ताना बाना बुनना। सिकंदर जैसे कितने ही आये, एक दिन उनका सूर्य भी अंत, बस चार दिनों की जिंदगी है, कह गये कितने ही साधु संत। मन में कोई भी...
एक अभिलाषा
कविता

एक अभिलाषा

मनोरमा जोशी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जीवन का अंतिम पहर, चहुँ और बरस रहा कहर। क्षण भंगुर है जीवन, कब पंक्षी सा उड़ जाये, सोच मन अतीत, में खो जाता है। कभी वर्तमान, कभी भूतकाल, मैं खो जाता है। भरता हैं उडा़न, तोड़ बंधन, झरनों सा बहता। गंगा की लहरों, सा लहराता, हिलोर लेता, बन पतंगा उड़ता, कभी थमता नहीं। कुछ कर गुजरने, की प्रबल जिज्ञासा, कुछ आशा अभिलाषा। शब्दों से बुनता जाल, आता है ख्याल, अपनी यादें अमिट छाप, जिससें सार्थक हो जीवन यादों के झरोखें जहाँ हो, भूलीं बिसरी सुनहरी, यादें अपनी बातें अपनी बातें। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्मतिथि १९ दिसम्बर १९५३ और जन्मस्थान नरसिंहगढ़ है। शिक्षा - स्नातकोत्तर और संगीत है। कार्यक्षेत्र - सामाजिक क्षेत्र-इन्दौर शहर ही है। लेखन विधा में कविता और लेख लिखती हैं। ...
रूपगर्विता
कविता

रूपगर्विता

धैर्यशील येवले इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** तुम शताब्दी एक्सप्रैस गर्व से भरी सुख सुविधा संपन्न नित्य गुजर जाती हो मुझ पर से। मैं एक छोटा सा गुमनाम सा रेलवेस्टेशन तनिक भी कभी देखा नही तूने मेरी और मैं नित्य तुझ रूपगर्विता को निहारता हूँ अनगिनत भावो के साथ तुम मुझ में प्रतिदिन लघु होने का भाव तीव्रता से जगा जाती हो आज कुछ आतताई यो ने तेरे पथ पर अवरोध उत्पन्न कर दिया है, तू खड़ी है मुझ पर मजबूरी वश मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा अपलक तुझे निहार रहा हूँ कभी तुझे तो कभी स्वयं को देख रहा हूँ आनंदविभोर हो इस क्षण को अक्षुण्य रखूंगा ह्रदय में जीवन भर मुझे पता है कुछ ही क्षणों में तुम चली जाओगी और नित्य गुजरोगी मेरे ऊपर से मुझे देखे बगैर। तुम रूपगर्विता दर्प से भरी मैं अकिंचन छोटा गुमनाम सा रेलवेस्टेशन। परिचय :- धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानप...
बादल रुक जा
कविता

बादल रुक जा

भारमल गर्ग जालोर (राजस्थान) ******************** बादल रुक जा क्यों घटा छाई है, परवाने घूम रहे हैं, क्यों छाया दिखाई है। नवोद्भिद् एहसास कृशानु रोहिताश्व दिखाई है, संकेत प्रपंचरंध्रा होंगी छद्मी आवेश नहीं बना विवेक रह जा चरित्रता के संग पहचान होगी तेरी भी जब होगा तेरा अचल रंग बिखरे नहीं तू ढंग तेरा होगा अग्निशिखा के सम्मान रुख बदल दे अपना भी स्वयं पर आजमा सम्मान। दैवयोगा दैवयोगा हैं, परिणिता पार्थ को दिखाई है, सुरभोग कलयुग में अनर्ह के साथ सजी है, सहस्रार्जुन अब तिरस्कार हो रहा मेरा इस तमीचर ने विगत अदक्ष वल्कफल कि भांति शब्दों में ढाल सजाई है। सुखवनिता नहीं रह पाती सुजात बनकर, दर्प लोग अब मिथ्याभिमान आक्षेप लगाते हैं, पुनरावृत्ति अब कराने लगे धनाढ्य अनश्वर की प्रतीक्षा में अवबोधक का अनुदेशक अलग-अलग अन्तर्ध्यान भी अशुचि अशिष्ट पराश्रित प्रज्ञाचक्षु के बनकर बैठे हैं यह बादल यह कैसी घटा छ...
रंगीला राजस्थान
कविता

रंगीला राजस्थान

प्रियंका पाराशर भीलवाडा (राजस्थान) ******************** सभ्यता, संस्कृति, मान्यता, विश्वास है यहाँ विद्यमान भिन्न-भिन्न रंगों से सुशोभित मेरा रंगीला राजस्थान धरातल का एक भाग रेतीला तो दूसरा भाग हरा-भरा इतिहास यहाँ के लोगों की वीरता के किस्सों से भरा पद्मिनी का जौहर, मीरा की भक्ति, पन्ना का बलिदान प्रताप, चेतक, राणा सांगा के रण कौशल पर अभिमान महल, मंदिर, दुर्ग, हवेलियों की है अद्भुत शिल्पकारी घूमर, कालबेलिया जैसा लोकनृत्य, बणीठणी की चित्रकारी संत, सत्तियों, कवियों और भगतो की है आन-बान यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर पर देश को है अभिमान आकर्षक पर्यटन स्थल, मेले और हाट बाजार रंगीले राजस्थान का सजीला है श्रृंगार त्यौहारो का संगम, अतिथि का सम्मान लोकगीतो की गूँज संग तानपुरे की तान घूंघट की मर्यादा और पगड़ी की शान शौर्य, साहित्य, कला, संगीत की है यहाँ खान मेरे रंगीले राजस्थान का अनंत है गुणगान ...
कहने को सब कुछ है अपना
कविता

कहने को सब कुछ है अपना

प्रो. आर.एन. सिंह ‘साहिल’ जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** रहा अधूरा सारा सपना कहने को सब कुछ है अपना किया समर्पित सब कुछ लेकिन सूना है पर मन का अंगना सिमट चुके हैं रिश्ते सारे हैं अतीत अब सभी सहारे फंसे तिमिर के चक्रव्यूह में सम्भव लगता नहीं निकलना गूँगा बहरा हुआ ज़माना सच हो जाता यहाँ फ़साना न्याय यहाँ गूँगा बहरा है क्या अनशन क्या देना धरना सावन भी पतझड सदृश है मन अधीर तन निःशेषित है मन ही अगर अशान्त रहे तो कैसा सजना और संवरना दुनिया का दस्तूर अजब है सही झूँठ में फ़र्क़ खतम है कौन रक़ीब है कौन है साहिल दुष्कर अब हो रहा परखना परिचय :- प्रोफ़ेसर आर.एन. सिंह ‘साहिल’ निवासी : जौनपुर उत्तर प्रदेश सम्प्रति : मनोविज्ञान विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश रुचि : पुस्तक लेखन, सम्पादन, कविता, ग़ज़ल, १०० शोध पत्र प्रकाशित, मनोविज्ञान पर १२ पुस्तकें प्रका...
मोक्ष पथ के सूत्र
कविता

मोक्ष पथ के सूत्र

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** दर-दर का मारा भी प्रभु भक्ति से बन गया। सभी की आंखों का तारा। और प्रभु भक्त कहलाया।। सवाल यह नहीं है कि भगवान है या नहीं ? अपितु सवाल यह है कि तुम्हारे हृदय में भगवान को। विराजमान के लिये क्या कुछ स्थान है या नहीं।। दुराग्रह एवं आलस्य से मूर्खता तथा दुर्भाग्य का जन्म होता है। गुरुभक्ति और प्रभुभक्ति से शुभफल का उदय होता है। तभी घर में सुखशांति और धर्म की प्रभावना बहती है। और घर का वातावरण फिर स्वर्ग जैसा बन जाता है।। सीखना कभी न छोड़िये, क्योंकि जिंदगी में हमेशा। परीक्षा देना पड़ती है इसलिए स्वाध्यावी बने। विध्दमानों के प्रवचन सुने और नियमित मंदिर जाये। आपका पुण्य उदय बढ़ेगा और जीवन सफल बनेगा। जो पाप से संचित किया जाता है वह परिग्रह है और। जो पुण्योदय से प्राप्त होता है वह सम्पदा है। इसलिए पाप से बचे और पुण्य के लिए परिग्रह को त्यागे। और ...
सजल
कविता

सजल

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** धरती पर कुछ लोग अभागे मारे-मारे फिरते हैं। शरण नहीं मिल पाती उनको बिना सहारे फिरते हैं। परिणय बंधन के शुभ अवसर कहाँ सभी को मिल पाते यहाँ-वहाँ जग में कितने ही युवा कुआँरे फिरते हैं। नहीं विश्व में साध सभी की पूरी होने पाती है अगणित नर-नारी मन में अभिलाषा धारे फिरते हैं। माता-पिता दुखी होते हैं वे छिप-छिपकर हैं रोते इधर-उधर जग में नित भूखे उनके प्यारे फिरते हैं। एक इंदु है फिर भी उसका मान बहुत है सब कहते गगन पटल पर यूँ तो प्रति क्षण अगणित तारे फिरते हैं। अब असत्य की बाढ़ धरा पर सभी ओर आ पहुंची है सत्य खोजने दिशा-दिशा में नयन हमारे फिरते हैं। 'रशीद' अविरल पूछ रहा है तनिक आप उत्तर तो दें "सकल धरा पर युगों-युगों से क्यों बंजारे फिरते हैं?" परिचय -  रशीद अहमद शेख 'रशीद' साहित्यिक उपनाम ~ ‘रशीद’ जन्मतिथि~ ०१/०४/१९५१ जन्म स्थान ~ महू ज़...
उड़ी रे पतंग
कविता

उड़ी रे पतंग

रीतु देवी "प्रज्ञा" (दरभंगा बिहार) ******************** उड़ी रे पतंग, मेरी उड़ी रे। हुए डोर पर सवार, उड़ी रे।। इठलाती, बलखाती है झूमती संग पवन हंसी ठिठौली है करती। उड़ी रे पतंग, मेरी उड़ी रे। हुए डोर पर सवार, उड़ी रे।। पहन चटकीले रंग के परिधान, बनाती उड़ी हसीन रंगीन निशान। उड़ी रे पतंग, मेरी उड़ी रे। हुए डोर पर सवार, उड़ी रे।। लायी है मस्ती का आलम छांटी है काले घनेरे बादल। उड़ी रे पतंग, मेरी उड़ी रे। हुए डोर पर सवार, उड़ी रे।। परिचय  रीतु देवी (शिक्षिका) मध्य विद्यालय करजापट्टी, केवटी दरभंगा, बिहार घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवा...
अबकी बार होली ऐसे
कविता

अबकी बार होली ऐसे

मईनुदीन कोहरी बीकानेर (राजस्थान) ******************** इन आस्था की लकड़ियों से वर्षों से जलती आई है होली सच भी है ,और सचाई भी है लकड़ियां जल राख हो जाती है। कब तक लकड़ियां जलाएंगे जंगल भी उदास हो जाएंगे संकल्प लें,वृक्ष अबकी नहीं काटेंगे अब तो प्रतीकात्मक होली मनाएंगे। हमारे मन का कल्मष जलाएं। अबकी बार होली ऐसे मनाएं।। वर्षों से खेल रहे हैं पानी से हम होली न जाने कितना पानी व्यर्थ ही कर देते हैं। पानी की एक-एक बूंद से किसी की जान बच सकती है इस बार हम होली ऐसे खेलें एक - एक बूंद पानी बचाएं। पानी की हम कीमत जाने। अबकी बार होली ऐसे मनाएं।। भौतिकता की दौड़ में पीछे छूट रहे हैं रिश्ते रिश्तों में आई कड़वाहट को आपसी सद्भाव से बचाएं। स्नेह की गुलाल लगा कर आपसी बैर भाव को भुलाएं समाज में बढ़ते तमस को आपसी प्रेम की ज्योत से हटाएं। अपनों के इत्र की खुशबू लगा। अबकी बार होली ऐसे मनाएं।। सत्य का बोलबाला हो...
कहां चल दिए
कविता

कहां चल दिए

अनूप कुमार श्रीवास्तव "सहर" इंदौर मध्य प्रदेश ******************** अभी घर में रह लेनें की हिदायत है, कहां जाएंगे वो अभी जो रास्तें में है। किसी तरह से न सोनें देंगी, आज की यें तस्वीर भी कहीं । गुजार सका ना कुनबा मजूर का एक रात शहर के किसी कोनें में। दावे बड़े दिल के सब धरें रह ग‌एं जो दिल्ली बनातें कहां चल दिएं। है जेब खाली खाली है पेट खाली, ये ठहरा हुआ वक्त कितना मवाली। प्यास कैसी कैसी प्रार्थनाएं भी कैसी चलें संग परिवार, सड़क है बिछौनें। गुजार सका ना कुनबा मजूर का एक रात शहर के किसी कोनें में। परिचय :- अनूप कुमार श्रीवास्तव "सहर" निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच ...
तू सुकून थी
कविता

तू सुकून थी

पूनम शर्मा मेरठ ******************** मां ! तू तो सारे सुकून लेकर फुर्र से उड़ गई, अब वो सुकून नहीं मिलता जो तुझसे जिद करके, लड़ के मिलता था, मुझे जिताने को तू हार जाती थी, पर मैं विजया कहां हुई तू तो मुझे जिताने के लिए हारती थी ना, मेरी झूठी मां, हर अच्छी चीज मेरी तरफ सरका देती थी, "मुझे पसंद नहीं है" ये कहकर, ये कैसा लाड़ था तेरा जो तू अपने साथ ले गयी, अपना वो दुलार, अपने झुर्रियों पड़े गिलगिले हाथों में समोसा दबाए रखना, कहना, "मिर्च बहुत है", मुझे तब समोसा बहुत पसन्द था, अब समझी तेरी चालाकियां, तू मेरा स्वाद ले गयी, स्वाद तो तेरे झुर्रियों भरे हाथों का और प्यार के कसीदों का था, समोसे तो आज हर नुक्कड़ पर मुंह तिकोना किए राह ताकते हैं, तू रोज धमकाती थी "मैं चली जाऊंगी" पर ये मेरी सोच से परे था, तू चली गई, मैं घर की चौखट पर आज भी तुझे खड़ा पाती हूं अपनी राह तकते, मनुहार भरी आंखों से इंत...