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गद्य

उसकी चिंता
लघुकथा

उसकी चिंता

कुणाल शर्मा अम्बाला सिटी (हरियाणा) ******************** (मौलिक एवं स्वरचित) फेसबुक पर प्रकाशित “क्या जरुरत थी इतनी ठंड में इस फ्रिज पर पैसे फूंकने की…पर यहाँ मेरी सुनता ही कौन है !" माँ चारपाई पर बैठी बड़बड़ा रही थी। माँ की बड़बड़ाहट सुनकर मँझला बेटा कमरें से बाहर निकल आया, "माँ, अब तुझे कौन समझाये, ऑफ-सीजन में बहुत कम दाम में मिला है।” "मुखत में तो नहीं मिलता। पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, पर इतना तो जानती हूँ।” "तुझे तो दिहाड़े भुगतने की आदत हो गई है माँ, कम से कम हमें तो सुख से रहने दे।” इस बार वह तल्खी से बोला। "पहले सिर पर जो कर्ज चढ़ा है वो उतर जाता। घर में क्या खा रहे हैं, कौन देखता है? पर मांगने वाले चौखट पर आये तो तमाशा बन जाता है।” माँ अधबुने स्वेटर पर सिलाइयां चलाती हुई बोली। "तमाशा तो मेरा बन गया है, छुट्टी के दिन भी चैन नहीं…तुम्हारी तो आदत हो गई है हर बात पर बड़बड़ाने की।" "चलो भई, मैंने...
माँ
लघुकथा

माँ

सतीश राठी इंदौर मध्य प्रदेश ********** बच्चा सुबह विद्यालय के लिए निकला और पढ़ाई के बाद खेल के पीरियड में ऐसा रमा कि दोपहर के तीन बज गए। मां डाटेगी डरता- डरता घर आया। मां चौके में बैठी थी। उसके लिए खाना लेकर। देरी पर नाराजगी जताई पर तुरंत थाली लगा कर भोजन कराया। भूखा बच्चा जब पेट भर भोजन कर तृप्त हो गया तो मां ने अपने लिए भी दो रोटी और सब्जी उसी थाली में लगा ली। "यह क्या माँ तू भूखी थी अब तक !" "तो क्या तेरे पहले ही खा लेती तेरी राह तकते तो बैठी थी।" अपराध बोध से ग्रस्त बच्चे ने पहली बार जाना कि माँ सबसे आखरी में ही भोजन करती है। . परिचय :-  सतीश राठी जन्म : २३ फरवरी १९५६ इंदौर शिक्षा : एम काम, एल.एल.बी लेखन : लघुकथा, कविता, हाइकु, तांका, व्यंग्य, कहानी, निबंध आदि विधाओं में समान रूप से निरंतर लेखन। देशभर की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन। सम्पादन : क्षितिज संस्था इंदौर के लिए ...
ऑनलाइन मदर्स डे
लघुकथा

ऑनलाइन मदर्स डे

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** तीन दिन से ठीक जो को मां खड़ी नहीं हो पा रही थी आज वह जल्दी-जल्दी खाना बनाने में लगी थी। आज काफी लंबे समय के बाद उसका बेटा जो आ रहा था, अब इतने समय के बाद जब आ रहा है तो वह बिस्तर पर कैसे लेटी रहती बेटा क्या सोचेगा माॅ को बेटे की कोई चिंता नहीं है.... अपनी ही तबीयत लेकर बैठी है, यही ना....नहीं वह कैसे लेटी रह सकती है उसके लिए खाना बनाना है भूखा होगा, बड़बड़ाती हुई माॅ खाना बना रही थी, वह अपनी पूरी शक्ति अंदर एकत्रित कर के काम में लगी थी। दाल चावल सब्जी रायता सलाद सब तैयार हो गया आटा भी गूंध लिया बस अब रोटी बनानी है... जब आयेगा गरम गरम रोटी बना देंगे वह खुद से ही बात कर रही थी। वह बेटे की प्रतीक्षा करने लगी कभी बाहर आती कभी अंदर जाती वह अंदर जा रही थी कि पड़ोस की राधा पूछ बैठी अब कैसी तबीयत है बुखार कम हुआ? नहीं कम तो नहीं हुआ है हो जाएगा...
रफ़्तार और मां की ममता
लघुकथा

रफ़्तार और मां की ममता

मनीषा व्यास इंदौर म.प्र. ******************** जिंदगी बहुत ही तेज़ रफ़्तार से दौड़ रही थी। मार्च माह का अंतिम सप्ताह अपनी इस दौड़ में तीव्रता से अपनी शक्ति दिखा रहा था। तब ही अचानक २४मार्च को यह पता लगा कि इस दौड़ को यहीं थम जाना है। भारत और विश्व में एक महामारी ने अपने कदम पसार लिए हैं जिसका नाम कोरोना है। भारत में लाक डाउन का निर्णय लिया गया। अब क्या था जो जहां था वो वहीं पर रुक गया। पर धीरे-धीरे लोगों ने अपने अंदाज में अपने आप को घरों में रहकर सुरक्षित रखने का निर्णय लिया। हां इस लाक डाउन का सबसे सकारात्मक पल माताओं ने महसूस किया, मेरी एक सहेली है जिसकी दो बेटियां हैं दोनों ही नौकरी में व्यस्त थी अचानक इस दौड़ को लाक डॉउन ने रोक दिया था। दोनों की शादी जून में होने वाली थी। पर यह भी रुक गई। मां जो बेटियों की शादी की हर समय चिंता में रहती थी उसे आज सुख महसूस हुआ। क्योंकि उसे अपनी बेटियों...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग १०
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग १०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** 'क्यों आवडे, इसे लिया क्या? 'काकी ने नानी से पूछा। 'नहीं,लेने के लिए ही आयी थी।पर ये आगए थे इसलिए ठहर गयी।' 'तो फिर अब लेले।' नानी ने मुझे ले लिया। 'और क्यों री आवडे, दामादजी को कौन सा दिन याद आ रहा था? कौन सी घटना थी मुझे भी बता। 'काकी ने सहज ही नानी से पूछ लिया। -'कुछ नहीं माँ, वो समधीजी के बुरे बर्ताव के बारे में बता रहे थे।' अब क्या किया तुम्हारे समधी ने?' 'किया कुछ नहीं पर ससुरजी इनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते, इनकों कुछ भी महत्व नहीं देते और समधीजी ससुरजी के ख़ास बालसखा इसलिए वें भी इन्हें नहीं पूछते। समधी होकर भी कुछ महत्व नहीं देते।' 'ये तो हमेशा का ही है। फिर आज कौन सी नयी बात याद आयी?' 'बताती हूँ।' नानी ने बताना शुरू किया, 'क्या हुआ अक्का की शादी तय होने के पहले की बात है। एक दिन दोपहर के समय ये छत्रीबाजार से घर आ रहे थे। सर्...
मां तो बस मां होती है
आलेख

मां तो बस मां होती है

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** बच्चा जब जन्म लेता है तो सबसे पहले मां की गोद को ही अपनी दुनिया समझता है। मां बच्चे को दूध पिला देती है, और वह तृप्त हो जाता है। गोद में अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है। मां का अर्थ है ममता का भाव। मां शब्द सुनकर खुशी होती है। मां तो अपने बच्चे को तब से प्यार करती है, जब बच्चा उसकी कोख में होता है। बच्चे की हर धड़कन में मां का श्वास होता है। बच्चा मां का स्पर्श पहचानता है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनुपम कृति उपहार है मां ईश्वर नहीं तो ईश्वर ने अपनी जगह मां को ही भेज दिया। मां मामता और वात्सल्य से परिपूर्ण होती है। मां परिवार के नींव का पत्थर होती है, जिस पर परिवार रूपी महल मजबूती से खड़ा रहता है। मां बच्चे को सभ्यता और संस्कृति की घुट्टी पिला-पिला कर बड़ा करती है। मां मैं विनम्रता, दया, त्याग, करुणा क्षमा इत्यादि गुण विद्यमान होते...
माता भूमि:पुत्रो अहं पृथिव्या:
आलेख

माता भूमि:पुत्रो अहं पृथिव्या:

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************ जहाँ जाने के बाद वापस आने का मन ना करे जितना भी घूम लो वहाँ पर कभी मन ना भरे हरियाली, व स्वच्छ हवा भरमार रहती है जहाँ सच में वही तो असली प्रकृति कहलाती है। जहाँ पर चलती गाड़ियों की शोर नही गूंजती जिस जगह की हवा कभी प्रदूषित नही रहती सारे जानवरों की आवाजें सदा गूंजती है जहाँ सच में वही तो असली प्रकृति कहलाती है। जहाँ नदियों व झड़नों का पानी पिया जाता है जहाँ जानवरों के बच्चों के साथ खेला जाता है बिना डर के जानवर विचरण करते हैं जहाँ सच में वही तो असली प्रकृति कहलाती है। पहाड़ जहाँ सदा शोभा बढ़ाते हैं धरती की नदियाँ जहाँ सदा शीतल करती हैं मिट्टी को वातावरण अपने आप में संतुलित रहता है जहाँ सच में वही तो असली प्रकृति कहलाती है। . परिचय :- डॉ. ओम प्रकाश चौधरी निवासी : वाराणसी, काशी शिक्षा : एम ए; पी एच डी (मनोविज...
संयुक्त परिवार
लघुकथा

संयुक्त परिवार

जितेंद्र शिवहरे महू, इंदौर ******************** सुनैना अभी-अभी छाछ की हाण्डी रखने आयी थी। तीनों भाभीयां ने सुनैना को देख लिया। उसे रोककर वे तीनों उससे बातें करने लगी। तीनों भाभीयां चूपके से अनिल को शरारात भरी आंखों से देख रही थी। अनिल शरमा के यहाँ-वहां हो जाता। सौमती का पुरा परिवार आज उसके साथ था। लाॅकडाउन चल रहा था। दोनों बेटे अपने परिवार सहित विधवा मां सौमती के यहां पैतृक गांव आये थे। उन दोनों बेटों के चार बेटे और तीन बेटों की पत्नीयां तथा इन तीन जोड़ों के कुल पांच बच्चों से सौमती का सुना घर खुशियों से भर उठा था। सौमती का छोटा बेटा रामचंद्र अपनी मां के साथ ही था। उसकी पांच बेटीयां थी। सौमती के मंझले बेटे दयाराम का पुत्र अनिल विवाह योग्य हो चला था। सौमती ने उसी गांव की सुनैना की बात अनिल के लिए चलाई थी। मगर दयाराम अपने पढ़े- लिखे अनिल के लिए वैसी ही बहु चाहते थे ताकी समय आने पर वह नौक...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ०९
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ०९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** धीरे-धीरे दिन गुजर रहे थे। रोजमर्रा की दिनचर्या किसी के लिए नहीं रूकती। काकी का सारा समय मेरी देखभाल में ही व्यतीत होने लगा था। वैसे भी उनकों घर में विशेष ऐसा कोई काम करने को नहीं होता और नाहि उन्हें कोई कुछ करने को कहता। काकी का पूजापाठ, हर एक दो दिन के बाद के उपवास और विशेष कर माला लेकर हमेशा रामजी का जाप। इन सब में वे नियम की पक्की थी और बस यही उनका विश्व था। रोज का भोजन भी वे दोपहर बाद एक ही समय करती थी। शाम का भोजन तो उन्होंने कई वर्षों से छोड़ रखा था। कोई भी उनसे ज्यादा बातचीत भी नहीं करता था और इस घर में कोई उनके आड़े भी नहीं आता था। कुल मिलाकर उनसे किसी को भी परेशानी नहीं थी और नाहि वे किसी को परेशान करती या कोई काम कहती। काकी की एक अलग ऐसी अलिप्त सी दुनिया थी और उनके अपने विश्व में वें नितांत अकेली थी। अब मेरे आने से उनकी दुनिया...
आखरी चाय
कहानी

आखरी चाय

 दीपक कुमार दिवाकर मधेपुरा (बिहार) ******************** आज सुबह सुबह मोहल्ले के लोग अपनी-अपनी बालकनियों से चेहरे पर उदासी और दिलो में डर लिए बस राजीव के दरवाजे की तरफ नज़र टिकाये हुए उस एम्बुलेंस को देख रहे थे, जिसमे राजीव को बिठाया जा रहा था। उसने अपने पत्नी रीमा की और देखते हुए कहा क्या तुम फिर से अपनी हाथो की चाय पिलाओगी ना? यह पूछते वक़्त उसकी लाल खुश्क आंखों पे आंसू थे,शायद उनकी आंखों की उम्मीदे टूटती हुई नजर आ रही हो। दिलासा देते हुए रीमा कहती हैं, "हाँ राजीव हम फिर से साथ बैठकर चाय पियेंगे" ये कहते हुए मानो उनका दिल बैठा जा रहा हो। तभी पीपीइ किट पहने हुए चिकित्साकर्मी एम्बुलेंस का दरवाजा बंद कर अस्पताल की ओर चल पड़े। तीव्र ज्वर से तड़पते राजीव की साँसें उखड़ सी रहीं थी, ऑक्सिजन नली के सहारे मिल रही उधार की साँसों ने मानो उसका जीवन कुछ पल के लिये थाम रखा हो। उधर दूसरी ...
एक भावनात्मक पत्र
आलेख

एक भावनात्मक पत्र

डॉ. विनोद वर्मा "आज़ाद"  देपालपुर ********************** प्रियवर, आप और घर पर सब कैसे है? अपना और परिवार का ध्यान रखे। इस वैश्विक महामारी के दौर में घर मे ही रहे, सुरक्षित रहे। इस सदी में पहला ऐसा मौका आया है की घर-परिवार के बीच लम्बे अरसे तक साथ रह सके। अतः प्रतिदिन पकवान बनाएँ, नई-नई डिश, रेसिपी बनाकर, बनवाकर खाएं और प्रेम पूर्वक, आदर सम्मान के साथ खिलाएं, स्वास्थ्य रक्षकों, सफाई कामगारों, पुलिस प्रशासन आदि का सम्मान, सत्कार करें। यही हमारी आप सबकी सांस्कृतिक पहचान और पुरातन संस्कार है। कहावत है - १. धन तो हाथों का मेल है २. रुपया-पैसा तो नाचने - गाने वाले भी कमा लेते है। ३. भिक्षावृत्ति भी धन दिला देती है। क्यों कहा जाता है धन हाथों का मेल है? क्यों कहते है रुपया-पैसा तो नाचने गाने वाले भी कमा लेते है? क्यों कहा गया है - भीख मांगकर भी धन जोड़ा जा सकता है? जब हम स्नान करते है तब साबुन क...
पतंग
लघुकथा

पतंग

मनीषा शर्मा इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मुझे आज भी याद है संक्रांति का वह दिन जब मैं और मां छत पर पतंग के देख रहे थे खुले आसमान में उड़ती रंग बिरंगी पतंगों को देखकर मन आनंदित हो गया। मैंने मां से कहा काश मै भी एक पतंग होती नीले आसमान की सैर करती, रंग-बिरंगे चटक रंगों से अपने आप को सजाती संवारती। तब मां ने कहा गुड़िया औरत भी तो एक पतंग ही है जो सजती है, संवरती है और अपने अरमानों से उड़ान भरती है पर पतंग की डोर हमेशा किसी और के हाथ में होती है और डोर थामने वाला पिता, भाई, पति और पुत्र है जो हमेशा अपनी इच्छा से पतंग की उड़ान तय करता है और अपनी उंगलियों पर पतंग को नचाता है पर बिटिया अब जमाना बदल रहा है हर चीज ऑटोमेटिक हो रही है तो तुम भी स्वतंत्र पतंग बनना अपनी उड़ान अपनी शर्तों पर उड़ना। मां की वही बात आज भी जीवन में प्रेरणा देती है....। . परिचय :-  मनीषा शर्मा जन्म ...
कैंसर के कारक
आलेख

कैंसर के कारक

योगी मनोज गर्ग इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** साथियों, पिछले दो दिनों में लगातार भारतीय सिनेमा के दो सितारों का कैंसर से असमय ही देहांत हो गया है। बिगड़ी हुई जीवनशैली में पिछले वर्षों में कैंसर रोग बहुत तेज़ी से पूरे विश्व मे बढ़ते जा रहा है। भारत मे प्रतिवर्ष लगभग १०-१२ लाख लोग कैंसर से ग्रस्त हो जाते है। पंजाब में तो कैंसर के इतने पेशेंट है कि वहाँ से चलने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर ट्रेन रख दिया गया है। हर कुछ घर छोड़कर मिलते जाते कैंसर रोगियों की बढ़ती संख्या भयावह स्थिति की और इशारा करती है। क्या कारण है इस भयानक रोग के ....??? क्या सिर्फ तम्बाखू और शराब से ही कैंसर होता है? भारत मे तो बहुत कम महिलाएं इनका सेवन करती है फिर फीमेल कैंसर पेशेंट की संख्या पुरुषों के बराबर क्यों?? एग्रीकल्चर में घातक केमिकल्स का बढ़ता उपयोग बिना केमिकल के अब फल, सब्ज़ी, अनाज की खेती होती ही नह...
तुम कब जाओगे…! अतिथि…!
आलेख

तुम कब जाओगे…! अतिथि…!

अर्चना मंडलोई इंदौर म.प्र. ******************** अतिथि! तुम्हारा जब आगमन हुआ था, तो हम सबने यही सोचा था कि मेहमान हो कुछ दिन ठहर कर चले जाओगे। लेकिन अब तो बार-बार पूछना पड रहा है.... अतिथि तुम कब जाओगे? तारीख पर तारीख और फिर तारीख! लेकिन तुम तो बेशर्म की तरह यहाँ पैर पसारे जमने की कोशिश कर रहे हो। तुम अपने खौफनाक डरावने चेहरे की छाप मेरी जमीन पर डाल तो चुके हो पर तुम ये भी जान लो कि तुम मेरी जमी और मेरे अपनों को बहुत आहत कर चुके। क्या तुम नहीं जानते ये हौसलो की जमी है, तुम्हे मूँह की खानी ही होगी। जब तुमने अपने आने की आहट दी थी, तब मेरा मन अज्ञात आशंका से धडक उठा था। अंदर ही अंदर मै मेरे अपनो के लिए काँप गई थी। हम सतर्क भी थे, हमने वितृष्णा से तुम्हारा तिरस्कार भी कर दिया था। फिर भी तुम न जाने कैसे बेदर्दी से मेरे अपनो को लील गए। मेरी आशंका निर्मूल नही थी ! तुम नहीं गए ! तुम्हें भगाने के ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०८
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दोपहर एक बजे के लगभग उज्जैन से इस घर के दामाद और मेरे पिताजी पंढरीनाथ उनके घर छत्रीबाजार न जाते हुए सीधे इधर इस बाड़े में ही आ गए। पुत्र प्राप्ति का तार मिलने के बाद तुरंत यहां आते हुए रास्ते भर वे प्रसन्नचित्त ही होंगे। लेकिन यहां इस बाड़े में सर्वत्र ख़ामोशी का माहौल था। उन्हें विचित्र लगा। पर उन्हें अन्दर आंगन में आते देख एक बार फिर से औरतों का जोर से रोना शुरू हो गया। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। पर अगले ही क्षण उनकी नजर मंदिर से सटे बरामदे में रखी मृत देह पर पड़ी। आशंकित मन से, हाथ की थैली एक ओर फेंक कर वें तुरंत उस ओर तेज कदमों से चल कर गए। देखा तो उनके होश उड़ गए। उनकी पत्नी की मृत देह जमीन पर रखी थी। 'शा ..लि...नी ...! 'उन्होंने जोर से चिल्लाने का प्रयास किया, परन्तु सदमे से उनके शब्द गले में ही अटक गए। वें नीचे जमीन पर बैठ गए। मृतद...
हक़ीक़त
लघुकथा

हक़ीक़त

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** गीजर खराब हो जाने से मधु ने रॉड लगाकर बाल्टी में पानी गरम करने रखा, कचरा गाड़ी आ जाने से फ्लेट की सीढ़ियों से उतरकर कचरा डालने नीचे सड़क तक गई। सीमित समय मे बहुत से काम निपटाने की हड़बड़ी से घबराई हुई मधु पुनः सीढ़िया चढ़कर ऊपर पहुँची तो देखती है सीढ़िया विभाजित है। नीचे उतरकर दूसरी तरफ से सीढ़ियां चढ़ती है फिर वही मंजर! तीसरे फ्लेट की तरफ भागती है फिर चौथे फ्लेट.....इसी तरह हर सीढ़ी गन्तव्य तक पहुँचने से पहले टूट चुकी हैं। जहाँ पहुँचना है वो जगह हर बार दिखाई दे रही है पर रास्ता नहीं सूझ रहा। याद आया उसे पानी गरम करने रखा था, बेटा उठकर वॉशरूम में कहीं अनजाने हाथ ना लगा ले! सोच कर रूह काँप गई। मधु पूरी तरह पसीने में लथपथ, ठंडी पड़ गई। धड़कन बढ़ी हुई, बोलने की कोशिश में जबान लड़खड़ाई। बेचैन, उद्विग्न, चीख कर लगभग रोती हुई उठ बैठी। ओ..ह!! ये सपना ...
आत्मविश्वास
लघुकथा

आत्मविश्वास

रीतु देवी "प्रज्ञा" (दरभंगा बिहार) ******************** किसान दीनालाल के खेत में रबी की फसल पक गयी है। कोरोनावायरस के कारण पूरे राष्ट्र में लाकडाउन लगा है। एक सच्चे देशभक्त होने के कारण मजदूरों को फसल काटने के लिए नहीं कह रहे हैं। फसल कटाई के लिए बहुत चिंतित है। "दादाजी आप सवेरे-सवेरे क्यों चिंतित हैं? आपके चेहरे पर बारह बज रहे हैं।" उनका बारह वर्ष का पोता रोहन पूछा। "खेत में रबी की फसलें सूख गयी है। अगर इसको यूं ही कुछ दिन छोड़ देंगे तो सारी मेहनत पर पानी फेर जाएगी। क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मजदूरों से कटवा नहीं सकता। मैंनें कभी फसल काटी नहीं है। "दीनालाल उदासी स्वर में बोले। "ओहो दादा जी! रोहन के रहते हुए आप क्यों चिंतित हो जाते हैं। चलिए खेत, हमलोग स्वयं फसलें काटकर ले आएं। मैंनें मजदूर चाचा जी सबको फसल काटते ध्यान से देखता रहता। "राहुल आत्मविश्वास के साथ बोला। "पर रोहन त...
कुत्‍ते की पूँछ
कहानी

कुत्‍ते की पूँछ

राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव सीहोर, (म.प्र.) ******************** ''मैंने क्‍या किया.....?'' सदा की तरह यह आश्‍चर्य मिश्रित प्रश्‍न दागकर इतराते हुये, शरीर को गठीली रस्‍सी की भाँति ऐंठते दूसरे रूम में बुदबुदाते चली गई वह। मैं विचारों के दलदल में सिर धुनता हुआ छटपटाता रह गया। अपनी औलाद की जि़न्‍दगी के महत्‍वपूर्ण फैसले में सहायता के वजाय अड़ंगा डालकर उसे तनिक भी अफसोस नहीं। मैं उस क्षण को कोस रहा हूँ, जब ऊपरवाले ने किसी प्रायश्चितके तहत हमारी जोडी़ मिलाई! लगभग पैंतीस सालों में फैले दाम्‍पत्‍य जीवन का सम्‍भवत: ऐसा कोई पल नहीं है, जब मन-माफिक पत्नि-पति का एहसास हुआ हो। ‘’तो फिर बच्‍चों का जन्‍म.......?’’ यह प्रश्‍न कोई भी पूछ सकता है। ‘’जोरजवरजस्‍ती में भी तो......।‘’ जब कभी रिश्‍तों में असन्‍तुलन आता है। कुछ परस्‍पर विरोधाभाषी स्थिति निर्मित होती है। तो उसके निराकरण के लिये, एक-दूसरे को सम...
कलम लेखन से संवरते अक्षर, उदय होते नए विचार
आलेख

कलम लेखन से संवरते अक्षर, उदय होते नए विचार

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जरिए लेखन भले ही सरल प्रक्रिया हो गई हो। कलम के माध्यम से जो विचार और अक्षर निखरते है उसकी बात ही कुछ और होती है। इस और ध्यान ना देने से हैंडराइटिंग ख़राब होने की वजह भी यही रही है। व्याकरण त्रुटि ना के बराबर रहती है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल के साथ -साथ हैंडराइटिंग को भी जारी रखें। क्योकि कलम से कागज पर लिखी जाने वाले लेखन विधा कम्प्यूटर युग में खो सी जाने लगी। सुन्दर अक्षरों की लिखावट के पहले अंक मिलते थे। साथ ही सुन्दर लेखन की तारीफे होती थी जो जीवन पर्यन्त तक साथ रहती थी, स्कूलों, विभिन्न संस्थाओं द्धारा सुन्दर लेखन प्रतियोगिता भी होती थी। अब ये विधा शायद विलुप्ति की कगार पर जा पहुंची। लेखन विधा को विलुप्त होने से बचाने हेतु लेखन विधा के प्रति अनुराग को हमें जारी रखना होगा। ये लेखन एक सागर के सामान...
उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७
उपन्यास

उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** जैसे तैसे पहाड़ सी लम्बी रात बीत गयी। कोई भी नहीं सोया था। दुसरे दिन की सुबह अपने समय से ही होना थी सो हुई। परन्तु ये सुबह इस घर के लिए रोज जैसे नहीं थी। मानो ये सुबह खामोशी से दस्तक देते हुए दु:खो का पहाड़ ही लेकर आयी थी। मेरे लिए तो अँधेरा ही लेकर आयी थी। मेरा आगे का प्रवास संकट भरे रास्तों पर अँधेरे में ही मुझे करना था। इस घर में मायके आयी हुई एक सुहागन पर दुर्दैवी काल ही चढ़ कर आया था। नियति के मन में आगे क्या है? यह सवाल यहाँ पर सभी के मन में था और अनेक आशंकाए और कई सारे उलझे प्रश्न लिए भी था। सभी आठ बजे कर्फ्यू ख़त्म होने का इन्तजार कर रहे थे। आठ बजते ही पंतजी ने माँ के मृत्यु की खबर सबको देने के लिए किरायेदार खोले को भेजा। पंतजी के आज्ञाकारी खोले तुरंत निकल पड़े। जन्म की वृद्धी और मृत्यु का सूतक इन दोनों की खबर एक साथ ही सब को मिल...
आत्म-मूल्याँकन
लघुकथा

आत्म-मूल्याँकन

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह शिमला, हिमाचल प्रदेश ************************ प्रतिभा ने एक प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय में भौतिकी विषय में प्रवक्ता पद के लिए आवेदन किया। उसने पीएच.डी. कर ली थी और कुछ संस्थानों में अतिथि संकाय में शिक्षण का अनुभव भी अर्जित किया था। साथ में कुछ शोधपत्र भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के चर्चित जर्नलों में प्रकाशित करा लिए थे। उक्त पद के लिए प्रतिभा को साक्षात्कार के लिए बुला लिया गया। उसकी प्रस्तुति से प्रसन्न होकर इंटरव्यू बोर्ड की अध्यक्षता कर रहे कुलपति ने पूछा, "आप वेतन कितना चाहते हो?" "जी, आपने नियत किया ही होगा इस पद के लिए ..." "नहीं, हमारे वेतन सरकारी वेतनमान से अधिक भी होते हैं; यह व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करता है। हमें तो आउटपुट अच्छी चाहिए, बस... कहिए आप स्वयं को कितने वेतन के योग्य मानती हैं?" प्रतिभा ने थोड़ा झिझक कर, रुक-रुक कर कह दिया, "जी, स...
आश्चर्य
लघुकथा

आश्चर्य

सौरभ कुमार ठाकुर मुजफ्फरपुर, बिहार ************************ आज सुबह जितेश का फ़ोन आया, हिमांशु ने फ़ोन रिसीव किया बोला: हेल्लो, क्या हालचाल जितेश, कैसे हो? जितेश बोला, क्या भाई तबियत खराब है? "भाई जितेश तुम अब बार-बार बिमार कैसे हो जाते हो?" हिमांशु ने पूछा ! "भाई याद है मुझे आज भी वह दिन जब मै बच्चा था, और गाँव में रहता था। कोई डर नही,कोई गम नही। जो मन में आया खाया, खेला! कभी बिमार नही होता था। पर आज शहर में रहता हूँ, हर पंद्रह दिन पर बिमार हो जाता हूँ। आज भी वही खाना खाता हूँ, जो गाँव में खाता था। गाँव में कुएँ और चापाकल का पानी पीता था आज मिनिरल वॉटर पीता हूँ। फिर भी मैं बिमार हो जाता हूँ। "एक बात समझ नही आता गाँव के मुकाबले शहर में सेहत का ध्यान अच्छे से रखता हूँ, फिर भी यार हर पंद्रह-बीस दिन पर बिमार हो जाता हूँ। जितेश बोला। "हिमांशु उसकी बातों को सुनकर आश्चर्य में पड़ा रह ग...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था  भाग – ०६
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग – ०६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** रात आठ बजे से कर्फ्यू फिर से लगने वाला था। सब अपने अपने घरों की ओर जल्दी ही निकले गए। सांझ की दिया बाती भी हो गयी। सब का खाना भी हो गया। माँ को होश आया ही नहीं था। सब काम निपटा कर नानी कमरे में आयी। काकी तो मुझे लेकर ही बैठी थी। उनका क्या, वह थी गंगाभागीरथी (विधवा-केश वपन किये हुई)। एक ही समय खाना खाती थी। रात को कुछ भी नहीं लेती थी। नानी आकर माँ के सिरहाने बैठ गयी। माँ की हालत देख रह रह कर नानी की आँखे भर आ रही थी। काकी नानी से बोली, 'आवडे, ऐसी खामोश क्यों है तू?' 'माँ मुझे खूब रोने की इच्छा हो रही है।' 'फिर जी भर के रो ले। आ, मेरे पास में आ कर बैठ। मुझे तेरे मन की हालत समझ रही है। तुझे तेरी बिटिया की चिंता है पर मुझसे भी तो अपनी बिटियाँ की हालत नहीं देखी जाती। तू बता मै क्या करू? और रो कर क्या होगा?' 'क्यों क्या हुआ?' नानी ने प...
एक टुकड़ा डबल रोटी का
लघुकथा

एक टुकड़ा डबल रोटी का

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** उन मासूम सी आंखों में दर्द के कतरे स्पष्ट झलक रहे थे। हाथों की हथेलियों में नीली लाल लकीरों का जाल बना था। चाय के दुकान के मालिक के हाथ की लपलपाती छड़ी अभी भी उसकी हथेली चूमने को बेताब थी। किंतु लोगों के जमघट ने उसे रोक रखा था। उस मासूम की दस साल की तजुर्बेकार आंखों में एक संबाल तैर गया।क्या भूख से निढाल हुई बीमार कराहती मां के एक निवाले की खातिर, ग्राहक की प्लेट में बचा डबलरोटी का एक टुकड़ा उठाकर जेब में रख लेना जघन्य अपराध है....? शायद हां....। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्...
एक घूँट भंग
कहानी

एक घूँट भंग

राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव सीहोर, (म.प्र.) ******************** जब कोई अपनी चाहत की वस्‍तु पा जाता है, तब वह उसके उपयोग में तन-मन से जुट जाता है। हेमन्‍त की निजी डायरी पाकर जैसे रेखा की दिली मुराद पूरी हो गई। यह अत्‍यन्‍त प्रफुल्‍लता व जिज्ञासा पूर्वक उसे पढ़ने में तल्‍लीन हो गई......। ........मैं वह दिन नहीं भूल सकता, जिस दिन मैंने गोरे-गोरे, सलोने हाथों की प्‍यारी-प्‍यारी, पतली-पतली नाजुक-नाजुक ऊॅंगलियों से प्‍याला लेकर नशीला घूँट कंठ से उतारा था। आँखें उस दिन का अनुपम द़ृश्‍य नहीं भूल सकती, जिस दिन उन्‍होंने, पानी की बूँदों के मोतियों से सुसज्जित तौलिये से झॉंकता हुआ सुन्‍दर सोने समान शरीर आँखों ने निहारा था। होली की खुमारी और मस्‍ती, अपने मदहोश रंगों की छटा लिये सम्‍पूर्ण वातावरण में मादकता घोल चुकी थी। मन में खुशियों की रंगीन तरंगें दौड् रही है। जब मेरी नज़रें तुम्‍हारे लावण्‍यमयी...