Monday, February 24राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

गद्य

शर्म
लघुकथा

शर्म

श्रीमती आभा बघेल रायपुर, छत्तीसगढ़ ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) "तुम्हें भोजन का पैकेट चाहिए क्या?" एक आवाज़ आई। रघु ने आवाज़ की ओर देखा लेकिन कुछ बोला नहीं। फिर किसी ने पूछा, "भोजन का पैकेट चाहिए क्या तुम्हें?" रघु ने शर्म भरी आवाज़ में कहा "साहब, चाहिए तो है। चार लोगों का परिवार है मेरा। घर में बच्चे खाने के लिए मेरा रास्ता देख रहे होंगे।" "तो फिर ये नखरा क्यों?"- किसी दूसरे व्यक्ति ने कहा। "साहब ! मैं मेहनत करने वाला आदमी हूँ। किसी के सामने हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता।ये तो मेरा बुरा वक्त है जो आज मेरी ये हालत है।" रघु ने उदास स्वर में कहा। "सब पता है हमें। अपने घर में भले ही ढेर लगा होगा, लेकिन फिर भी यहाँ माँगने आ जाते हैं लोग।" एक व्यंग्य भरी आवाज़ आई। "मैं उनलोगों में नहीं हूँ साहब!" रघु की आवाज़ थोड़ी ते...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** स्कूल शुरू होकर एक सप्ताह से ज्यादा हो गया था। एक दिन दियाबाती के बाद हम सब बच्चें राम मंदिर के बरामदे में झूले पर बैठकर रामरक्षास्तोत्र का पाठ कर रहे थे। पंतजी रामजी के दर्शन कर के ऊपर अपने कमरे में जा चुके थे। काकी ने मेरे लिए अब बरामदे में बैठना बंद कर दिया था। वें अधिकतर अपने कमरे में ही बैठी रामजी का जाप करती किया करती। लीला मौसी रसोईघर में शाम की रसोई बनाने में व्यस्त थी। माई भी रसोईघर में ही थी। नानाजी भी अपने कमरे में थे। रामरक्षास्तोत्र ख़त्म होने के बाद हमने समर्थ रामदास स्वामी के 'मन के श्लोक' कहना शुरू किया। 'गणाधीश जो ईश.....' मेरे मुंह से इतना ही निकला था कि इतने में हलकी सी रोशनी में एक आकृति धीरे-धीरे हमारी ओर बरामदे में आते हुए मुझे दिखाई दी। मैंने तुरंत पहचान लिया। मेरे दादा थे। मेरे पिताजी। उन्हें देखते ही मैं इतना जो...
राहत की एक सांस
लघुकथा

राहत की एक सांस

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** लगातार तीसरे वर्ष जब वर्षा तो कम थी पर बिजली का चमकना,बदल का गरजना, बारिश का गुस्सा खा-खाकर बरसना और थोड़ी देर में सब शांत हो जाना। प्रकृति का ऐसा रूप कभी नहीं देखा था, वो भी भादौ माह में!आठ दिन से बारिश बन्द थी। "अरे! ये क्या? कितने खतरनाक बदल घिर आये। अंधेरा हो गया। मीरा बोली। उसकी सखि स्कूल से घर के लिए निकलने को अपना समान सम्हाले बोली- "अभी तो चार ही बजे है, देखो बिजली और बदल कैसे गुस्से में है? जोरदार बिजली कड़की मीरा ने दोनों हाथों से कान बन्द कर लिए। छुट्टी के बाद स्कूल पूरा खाली हो चुका था, टीचर्स बस में बैठे, बस चल पड़ी। साथ ही वर्षा का रौद्र रूप पूरे रास्ते देखा, पच्चीस मिनिट में नाले पूर आ गए, सड़को पर तेजी दे पानी चढ़ गया। मोबाइल की घण्टी बजी- "हेलो बेटा, मीरा के बेटे का फोन था। मैं बस दस मिनिट में अपने घर के स्टॉप पर पहु...
भारतीय जीवन में रचा बसा है पर्यावरण
आलेख

भारतीय जीवन में रचा बसा है पर्यावरण

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** हमारे पूर्वज सृष्टि के आरम्भ से ही प्रकृति की लय, ताल में रहते थे। जीव जंतुओं, पेड़ पौधों से उनका इतना गहरा आत्मीय संबंध जुड़ा था कि वे उनसे संवाद कर सकते थे। उन्होंनें प्राकृतिक उपादानों को देवी देवताओं की पदवी देकर पूजा अर्चना करके सदैव उनके प्रति सम्मान दर्शाया। उपनिषद ने वृक्ष को ब्रह्म कीसंज्ञा दी है और, वृक्षो रक्षित रक्षितः, जैसा सार्थक वाक्य रचा। हमारा प्राचीन साहित्य ,अध्यात्म लोकविश्वास वृक्षों से जुड़ा है। नारियल को श्रीफल कहा गया है। वट वृक्ष की पूजा, पीपल की पूजा ,आँवले की पूजा भारतीय नारियों के जीवन का अभिन्न अंग रहा है। भारतीय चिंतन में धरा को मातृशक्ति के रूप सेंपूज्यनीय माना गया है और मनुष्य को उसका पुत्र। माता भूमि पुत्रोsहं पृथिव्याः। यजुर्वेद में कहा गया है :-                                                 ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** धीरे-धीर दिन आगे सरकते जा रहे थे। विद्यालय शुरू होने में अभी एक महीना से कुछ ज्यादा ही समय था। गर्मी अपने पूरे जोरों पर थी और उस पर गर्म हवाएं। ऐसे ही में एक दिन काकी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी। नानाजी मेरे फूफाजी रामाचार्य वैद्यजी को बुला लाए अब फूफाजी मुझे पहचानते थे। उनके काकी के कमरे में आते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने दिए चांदी के रुपये के कारण मैंने उनके पांव उत्साह से छुए थे। एक और चांदी के रूपये की अपेक्षा भी थी। वैसे अब मुझे पैसों का महत्व भी समझने लगा था। सारी जरूरतें रुपये देकर पूरी होती हैं यह मैं जान गया था। पर इस बार फूफाजी से मुझे सिर्फ कोरा आशीर्वाद ही मिला। फूफाजी ने काकी की जांच की। फिर नानाजी को बोले, 'ज्वर थोडा ज्यादा ही हैIकमजोरी भी ज्यादा है। परन्तु चिंता करने जैसा कुछ नहीं मेरे यहां से दवाई ले कर आइए।...
जुर्म
लघुकथा

जुर्म

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) अदालत लगी थी...कटघरे में खडी थी माँ, आरोप था कि 'उसने ले ली है अपने दो बच्चों की जान'। करती भी क्या ? काम न मिलने पर घर में ही फाँसी का फंदा लगा अबोध बच्चों के साथ कष्टों से मुक्ति पा जाना चाहती थी। यहाँ भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा, जाने कैसे बच गई। आत्महत्या और हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा सुना दी गई। घर, अदालत और जेल सभी की दीवारें मौन थी। सजा पूरी होने पर बाहर आई भी तो वहाँ भी मौन बाँह पसारे खड़ा था.. बदला कुछ भी नहीं बल्कि पहले से और अधिक भयानक हो गया था। मन में भय और सवालिया निशान लिये वो बोझिल कदमों से चली जा रही थी कि कहीं कोई फिर से जुर्म न कर बैठे। . परिचय :- किरण बाला पिता - श्री हेम राज पति - ठाकुर अशोक कुमार सिंह निवासी - ढकौली ज़ीरकपुर (पंजाब) शिक्षा - बी. एफ. ए., एम. ए. (पेंटिं...
इतिहास अपने आप को दोहराता है
स्मृति

इतिहास अपने आप को दोहराता है

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** श्यामल वर्ण, गुलाबी उभरे गाल, आकर्षित करती बड़ी-बड़ी कटीली आंखों के ऊपर लंबी-लंबी ऊपर को उठी पलकें, धनुष के समान गाढ़ी भौहों के ऊपर बीच की लंबी मांग और मांग के दोनों तरफ घने काले बाल और सजी हुई स्वेदन पंक्तियां। मानो ईश्वर ने उसे अलग से गढ़ा था। मेरे घर से मुख्य मार्ग तक जाने का बस वही एक छोटा रास्ता था जो उसके आंगन से होकर गुजरता था। मैं जब भी उस रास्ते का उपयोग मुख्य मार्ग पर जाने के लिए करती, हमेशा सोचती वह एक बार दिख जाए। मेरे लिए भी उसके मन में शायद यही भाव थे, क्योंकि जब भी मैं उसकी आंगन से गुजरती वह लंबे-लंबे कदमों से अपने दालान में आकर खड़ी हो जाती और मुझे ओझल होते तक निहारती। उसे देखकर अनायास ही मन सोचता ईश्वर की बनाई आकृति इतनी मोहक तो स्वयं कितना सुंदर होगा। इस बार काफी समय बाद वहां से गुजरना हुआ। वह लगभग दौड़ते हुए दाला...
मेरी साइकिल, मेरा भविष्य
संस्मरण

मेरी साइकिल, मेरा भविष्य

डॉ.आभा माथुर उन्नाव (कानपुर) ******************** मैंने जिस शहर में बचपन व्यतीत किया वहाँ पर उन दिनों इण्टरमीडिएट तक ही विद्यालय थे। आगे की शिक्षा के लिये या तो प्राइवेट विद्यार्थी के तौर पर परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी या छात्रावास में रह कर अध्ययन करना होता था। मेरी बड़ी बहनों ने प्राइवेट बी.ए. किया था, शायद मैं भी वही करती परन्तु हाई स्कूल और इण्टरमीडियेट में मेरे अंक बहुत अच्छे होने के कारण यह निश्चय किया गया कि मुझे किसी संस्था से बी.ए. करवाया जाये। लखनऊ में मेरी एक बहन रहती थीं अत: लखनऊ में मेरी शिक्षा जारी रखने का निश्चय हुआ। लखनऊ जा कर वि.वि. में प्रवेश तो ले लिया पर बहन के घर से वि.वि. बहुत दूर था। पहले दो किलोमीटर तक रिक्शा से दूरी तय करने के बाद दो बसें बदलनी पड़ती थीं तब जा कर वि.वि. पहुँचा जा सकता था। इस सब में बहुत समय नष्ट होता था अतः साइकिल लेने का निश्चय किया गया। सा...
चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना
आलेख

चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                                     कभी यह गाना हमारे बहुत ही अजीज अच्छू बाबू (श्री अच्छेलाल राजभर) प्रायः गुनगुनाया करते थे। आज सुबह-सुबह अच्छू बाबू की याद आयी और यह गीत अनायास ही मेरी जुबान पर आ गया। मन बड़ा बोझिल हुआ। आज इस कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई महामारी के कारण जो पूरे देश में भारतीय गरीब मजदूरों का देश के कोने-कोने से पलायन हो रहा है यह काफी दर्द भरा एवं खौफनाक मंज़र है। यह मंजर कभी हमारे पुरनियों ने १९४७ में भारत विभाजन के दौर में अपने आंखों से देखा था। उसमें से श्री लालकृष्ण आडवाणी जी जैसे महानुभाव भी अभी हैं, जो विभाजन में यहां आ गए थे। उस खौफनाक मंज़र को हमलोगों ने तो फिल्मों में ही देखा या सुना है। वह मंज़र देख कर दिल दहल जाता है। आज वही मंज़र जब भारत स्वतंत्र है तब देखने को मिल रहा है। बस अंतर यही है कि...
हिन्दू साम्राज्य दिनोत्सव
आलेख

हिन्दू साम्राज्य दिनोत्सव

मंगलेश सोनी मनावर जिला धार (मध्यप्रदेश) ********************** हिंदू साम्राज्य दिनोत्सवम ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी का यह दिन कोई सामान्य दिन नहीं था। मुगलों अफगान तुर्कों के अत्याचार भरे शासन के कई दशक बीत जाने के बाद एक हिंदू सम्राट के राज्याभिषेक का स्वर्णिम अवसर है ऐसा समय जब तुर्कों से युद्ध का विचार भी करना, देश में अपराध माना जाता था। राज्य धन संपदा को समाप्त करने वाला माना जाता था। राज्य के वैभव और यश व कीर्ति से समझौता करना माना जाता था। ऐसे प्रतिकूल समय में छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक, मुगलों व तुर्कों के शासन के कब्र में अंतिम कील ठोकने के समान था। देश में यह दिन अनन्य उत्साह से मनाया जा रहा था, कई दशकों बाद एक हिंदू राजा अपने स्वाभिमान से एक बड़े भूभाग पर राज्य कर रहा था, उसका क्षेत्र तो महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश तक सीमित था किंतु शिवाजी राजे की नजरें दिल्ली पर टिकी थी, कई मर...
आपदा और प्रेम
आलेख

आपदा और प्रेम

कोरोना ने दिखा दिया कि हम भारतीय सच में प्रेम की परिभाषा ठीक से समझते हैं। दया, करुणा, फ़र्ज़, लगभग हर जगह दिखे। नाम की चाह रखने वालों ने दान खूब किया और तस्वीरों के जरिये दिखाना चाहा कि वो मानवतावादी हैं। होड़ लग गई थी प्रदर्शन करने में। कुछ तो दान लेकर दान देते दिखे। पैकेट किसी के वाहबाही कोई दूसरा ले गया। लेकिन काम तो जोरदार हुआ। जरूरतमंद वंचित तो नहीं रहे। कुछ धूर्त भी निकले। ज़रूरत से ज़्यादा मुफ्त का माल जमा कर लिया। समूचे देश में एकता दिखी। लॉक डाउन में तमाम महानुभाव बोर होते दिखे, उबासी लेते दिखे, छटपटाते दिखे, ग़मगीन दिखे, मलीन दिखे। क्योंकि उनके अंदर प्रेम नहीं था। क्रोध, ईर्ष्या, घमंड, ईगो, के कारण ऐसे लोग प्रेम न कर सके। माँ, पत्नी, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, मित्रों से दिल खोलकर बातें न कर सके। घर में कार्य करने वालों के प्रति दयालु न बन सके। प्रेमी प्रेमिकाओं ने अपार दुख झेले। मोबाइल...
कड़वे अंगूर
लघुकथा

कड़वे अंगूर

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजिट अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) कोरोना के चलते अभी-अभी लॉक डाउन खुला ही था कि एक फेरी वाला अपनी ठेला गाड़ी लेकर फल बेचने निकला। उसे रोकते हुए मैंने आवाज लगाई भइया अंगूर है क्या? मुंह पर मास्क लगाए, हाथो में दस्ताने पहने फेरी वाला बोला हां है बाबू जी। मै उसकी ठेला गाड़ी के करीब पहुंचा ही था कि उसने झट से सेनिटाइजर की बॉटल आगे करते हुए मेरे हाथ धुलवाकर बोला अब आप अंगूर आपकी पसंद से छांट लो। मीठे तो है ना, मेरे सवाल के जवाब में वह बोला आप अंगूर धो के चख लो बाबूजी। ठीक है भाई, क्या भाव लगाओगे। ₹ ३५ के एक किलो वो बोला। ₹३५ देकर ठीक है एक किलो दे दो भाई। अंगूर लेकर मैंने श्रीमती को दिए, उसने अंगूर लेकर धो कर फ्रिज में रख दिए। दोपहर में जब थोड़े अंगूर खाने के लिए फ्रिज से निकाले, श्रीमती ने अंगूर का पहला दाना खाते ही, ये क्या ? कड़वे अंगूर ...
नैसर्गिक सुख
लघुकथा

नैसर्गिक सुख

(हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) ‘’कल्‍लो....कल्‍लो...।‘’ चिल्‍लाते-चिल्‍लाते, मेरी पत्नि धड़धड़ाते हुई, मेरे पास आकर पूछने लगी, ‘’कहॉं है कल्‍लो!ˆ मेरे उत्‍तर की परवाह किये बिना वह घर में ही भड़-भड़ाकर ढूँढने लगी, ‘’किधर हो कल्लो-कल्‍लो!’’’ ‘’...यहाँ हूँ... मेम साब!’’ करता हुआ काम छोड़कर ‘’ हाँ मेम साब...? ‘’मेरे लिये दूघ गरम कर के, लाओ।‘’ आदेशात्‍मक लहजे में, ‘’बैडरूम में हूँ।‘’ ‘’पहले डिनर लगाऊँ; मेमसाब ?’’ ‘’नहीं! पार्टी में खा चुकी हूँ।‘’ कुछ नरम होकर कहा, ‘’बहुत नींद आ रही है, जल्‍दी ला।‘’ .....ये है, श्ष्टिाचारी, संस्‍कारी, सम्‍पन्‍न, सम्‍पूर्ण अर्धान्‍गिनी! ....मैंने पैग भरा। बैठ गया खिड़की खोलकर। आज कुछ ठण्‍डक है। शायद वर्षा होने वाली है। बाहर देखा, पानी गिरने लगा। थोड़ी देर में जोर की बरसात होने लगी। सामने बीरान खण्‍डहर पड़ी...
मानवता
लघुकथा

मानवता

उस समय की बात है जब संदीप ओर उसके दोस्त गुजराती कार्मस महाविधालय इन्दौर में वर्ष २००६ में बी.कॉम द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत थे, संदीप ओर साथी दोस्त अधीकतर रेल परिवहन से देवास से इन्दौर अध्ययन हेतु प्रतिदीन आना जाना किया करते थे, उनको घर से कभी जरुरत पड़ने व नाशते पर खर्च हेतु ३० रु. दीये जाते थे। महाविधालय में परीक्षा के नामांकन प्रपत्र जमा होने के कारण रेल अपने नियत समय से स्टेशन से निकल चुकी थी, व दूसरी रेल २ घण्टे बाद चलने वाली थी, संदीप ओर उसके दोस्तों द्वारा बस परिवाहन से इन्दौर से देवास जाने का निश्चय किया, बस में पुरी सीट भर जाने के कारण खड़े खड़े जाना पड़ा, जहॉ संदीप खड़े थे उसके समीप वाली सीट पर एक बुजुर्ग बैठे थे, मुख पर निराशा के भाव व चिंता की लकीर अलग ही प्रतीत हो रही थी। बस अपने गंतव्य स्थान देवास के लिये निकल गई, करीब १०-१२ किलोमीटर के सफर तय करने के बाद बस कंडक्टर का बस किरा...
नया ठिकाना
लघुकथा

नया ठिकाना

आज सुबह से बच्चे के जोर-जोर से रोने की आवाज से मीरा बहुत बेचैन थी आखिर बाहर आकर देखा। नए मकान के चौकीदार की झोपड़ी के बाहर टूटी खटिया पर उसका ९ वर्षीय बेटा गब्बू बिलख-बिलख कर रो रहा था। क्यों गब्बू इतनी जोर-जोर से क्यों रो रहे हो? कब से रोए जा रहे हो, क्या हुआ? गब्बू और जोर से क्रंदन करने लगा। उसके माता-पिता अपना बोरिया-बिस्तर बांधने में भिड़े हुए थे। माँ बोली- "का करे मैडमजी इहा अब मजूरी नाही सो गाँव जा रहे हैं। ई गब्बू कहत है इस्कूल जावेगा, गाँव मे पड़ई छूट जावेगी देख लेव कईसा रो रवा है। मीरा बोली - "तो मत जाओ ना! कुछ समय की बात है सब ठीक हो जायेगा। इतने में पिता झुंझलाया- "पेट की आग नाही रुक सके है बेनजी। मीरा बोली- "पर बच्चा कब से रो रहा है मुझे घबराहट होने लगी तुम पिता होकर.....इत्ताई घबराट है तो रख लेव इका। पढ़ाया करियो। मूक होकर मीरा घर मे चली गई। पेपर पढ़ रहे पति को दुखी होकर सब बात बता...
हम सबका भला होगा
लघुकथा

हम सबका भला होगा

डॉ. अपराजिता सुजॉय नंदी रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** आज सुबह ही खबर मिला कि रमा की मौसी अब नहीं रही। मां के जाने के बाद रमा के लिए एक मौसी ही तो थी उसकी पूरी दुनिया, उसके अलावा रमा के पास था ही कौन। रमा का तो रो-रो कर बुरा हाल हो गया। खबर मिलते ही सीमा भी पहुंची, जाकर देखी कि लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। एक ओर कुछ लोग दुखी भाव से कह रहे थे कि रमा की मौसी को हार्टअटैक आया था, घर में तनाव भी था, बीपी का दवाई भी तो लेती थी। तो दूसरी ओर कुछ लोग अर्थी सजाने की तैयारी में थे, वहां एक पंडित भी अर्थी के पास खड़े होकर कुछ समझा-बुझा रहा था। एक और पंडित पंचांग निकालकर कुछ देख रहा था गणना कर रहा था। पैर के पास परिवार के कुछ लोग बैठे थे। पंडित जी ने कहा मौसी को कोई दोष लगा है जो घर के लिए अपशगुन होगा। इससे बचने के लिए पूजा-अर्चना करवानी पड़ेगी करीब ११००० रुपए तो दक्षिणा ही होगी। पूज...
आधुनिकता
लघुकथा

आधुनिकता

ममता रथ निवासी : रायपुर ******************** सीमा का मन आज बहुत उदास है, पति राजेश के बार-बार समझाने पर भी वो समझ नही रही की उसकी इकलौती बेटी उसे तुक्ष्छ मानती है । आज सीमा की बेटी मिताली के दोस्त घर आए थे। सीमा के व्यवस्थित घर व खाने की सभी ने खूब तारीफ की, सीमा ने भी कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी ,पर बात जब अंग्रेजी भाषा बोलने की आई तो सीमा मात खा गई। दोस्तों के जाते ही मिताली मां पर बरस पड़ी, पता नहीं आज के ज़माने में आप जैसे पिछड़े लोग कहा से आ गए हैं, मेरे दोस्त क्या सोच रहे होंगे। मन्नतो के बाद मिली बेटी पर नये जमाने का रंग चढ़ गया था। रात कटनी थी कट गई। मिताली अपने विश्वविद्यालय जल्दी चली गईं, सीमा भी काम में व्यस्त हो गई। मीताली कल की बात से दुखी हो सभी से नजरें चुरा रही थी। आज विश्वविद्यालय में बहुत भीड़ थी, आज कवि सम्मेलन था। सभी मंच के पास पहुंच गए। मंच पर अपनी मां को देख कर मिताल...
नदी
लघुकथा

नदी

रंजना फतेपुरकर इंदौर (म.प्र.) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में पंचम विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा गुनगुनाती, छलछलाती नदी की अथाह जलराशि की एक-एक बूंद उमंग से थिरक रही थी। नदी की धाराओं में संगीत और नृत्य का अद्भुत मेल था। सागर में अपना अस्तित्व विलीन करने की सुखद अनुभूति से वह अभिभूत थी। कभी वह किनारे के सुगंधित, रंगबिरंगे पुष्पों की कोमल पंखुरियों को और कभी विशाल वृक्षों से लिपटी लताओं को अपनी फुहारों से भिगो रही थी। प्राची की अरुणिमा ने अपने प्रतिबिम्ब से जैसे नव-वधु सी नदी को लाल चूनर ओढ़ा दी थी। आज नदी सारी बाधाओं को पार कर अपने आराध्य प्रियतम, सागर से मिलना चाहती थी।कभी इस मोड़ पर झूमती, कभी उस मोड़ पर नाचती नदी बही जा रही थी। लेकिन नदी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, उसकी काया क्षीण होने लगी। नदी की धड़कनों की गति धीमी होने...
घर वापसी
लघुकथा

घर वापसी

जितेन्द्र गुप्ता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में चतुर्थ विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा "अरे चलो, चलो जल्दी!" हंसते खिलखिलाते वे किशोर फटाफट अपने बेग्स लेकर उस एसी बस में चढ़ने लगे! सबके सब दुसरे स्टेट के रहने वाले थे और पढ़ाई के लिए इस शहर में रह रहे थे मगर महामारी के कारण लगे लॉक डॉउन में फंस गये थे। इनकी सुरक्षित घर वापसी हेतु एसी बसें लगाई गई थी। उनको रास्ते में खाने हेतु लंच पैकेट और पानी बोतलें भी थी। सभी हंसते, बतियाते, जा रहे थे। "अरे, देखो, देखो जरा!" सुमित ने जोर से कहा। पचासों पुरूष, महिलाएं सामान उठाये और बच्चों को गोद में या कंधे पर बैठाये सड़क किनारे-किनारे चले जा रहे थे। पसीने से लथपथ, थके-थके...। "बेचारे......." उनमें से एक किशोर अकड़ से बोला, "अरे मेरे पापा ने तो अपनी युनियन के द्वारा एड़ी च...
समीकरण
लघुकथा

समीकरण

प्रेम प्रकाश चौबे "प्रेम" विदिशा म.प्र. ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में तृतीय विजेता रही लघुकथा "मां, मैं भी कॉलेज जाऊंगी, मैं आगे पढ़ना चाहती हूं" बेटी ने अपना निर्णय सुना दिया। "नहीं, जितना पढ़ना था, पढ़ चुकीं" मां ने कहा। "इसे कौन सा डॉक्टर या इंजीनियर बनना है, शादी के बाद, चूल्हा ही तो फूंकना है, उस के लिए १२ वीं तक कि पढ़ाई काफी है", भैया ने अपनी समझदारी झाड़ी, जो सोफे पर मां के पास ही बैठा था। "क्यों, मैं इंजीनयर क्यों नहीं बन सकती? मैं ने गणित विषय लिया है। मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत शौक है" बेटी ने रुआंसे से स्वर में कहा। "और आप लोग हैं कि मुझे पढ़ने देना ही नहीं चाहते। मां तो पुरानी पीढ़ी की हैं, उन का ऐसा सोचना स्वभाविक है, भैया, पर तू तो नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है, फिर भी तू उन्हीं के पक्ष का समर्थन करता ह...
मजदूर दिवस
लघुकथा

मजदूर दिवस

ललित समतानी इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में द्वीतीय रही लघुकथा पूरे देश में लाक डाउन के कारण आज भी मजदूर चौक पर अभूतपूर्व सन्नाटा पसरा हुआ है। शहर में चारों और श्मशान जैसी शान्ती पसरी हुई है। न कोई ठेकेदार मजदूरों को लेने के लिए आया है और न कोई कारीगर मजदूरी के लिए आया हुआ है। दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं है कि, इस माह भी लाॅकडाउन समाप्त होगा। दूरदर्शन पर आज मुख्यमंत्री का एक मई 'मजदूर दिवस' पर सन्देश प्रसारित हो रहा था। मुख्यमंत्री कह रहे थे कि, 'कोई मजदूर उनके राज्य में भूखा नहीं रहेगा। सरकार सभी की देखभाल कर रही है।' राम सिंह ने जब मुख्यमंत्री का यह भाषण सुना तो, वह मन ही मन बड़बड़ाने लगा, "सरकार तो यह सोच रही है कि, मजदूरों के घर में खजाना गड़ा है। यह नहीं जानते कि दिन भर मेहनत करने पर शाम की रोटी आती ...
पुरवाई
लघुकथा

पुरवाई

श्रीमती अंजू निगम जाखन, (देहरादून) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रथम विजेता रही लघुकथा "अरे !!! रमेसी!! कब आया सहर से?" काका की आवाज खुशी से चमक रही थी। "आये तो पंद्रह दिनो से ऊपर हो गये। पर यहाँ आये के पहले, वो नजदीक का अस्पताल वाले धर लिये। वही चौहद दिनो का वनवास काट के कल ही गाँव आये गये रहेन। सोचे खेतो की तनिक सुध ले लूँ।" "अच्छा हुआ भईया, जो खेत बेच के न गये। कौनो ठौर तो रही अब। बढ़िया किये जो वापसी कर ली।" "हाँ कक्का!! खाने रहने सब का जुगाड़ खतम हो गया था। परदेस में कोई हाथ थामने वाला न बचा। सोचे, मरना ही हैं तो अपनो के बीच मरे। कोई मिट्टी देने वाला तो हो।" "ऐसा असुभ न निकालो रमेसी। तुमको मालूम, तुम्हारे बाद कितना लड़कन सहर की ओर भाग गये रहे। आधा गाँव खाली हुई गया था। तुम भी तो पलट कभी गाँव का सुध न लियो। चलो, अब धीमे...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६
उपन्यास

उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरी दूसरी कक्षा की परिक्षाएं ख़त्म हो चुकी थी। कक्षा में मेरा पहला क्रमांक आया था और मैं पढाई में एक पायदान ऊपर तीसरी कक्षा में पहुच चुका था। अब मैं सिर्फ अपने पिता के ग्वालियर आने का इन्तजार कर रहा था। इसी बारे में सोचता रहता। इसके अलावा कही भी मेरा मन ही नहीं लगता। यहां इस घर में मेरी नानी कई दिनों से मेरे नाना के पीछे लगी थी कि उन्हें परीन्छा की यात्रा करने की बहुत इच्छा है। वहां निम्बालकर की गोठ में स्थित अन्ना महाराज के गुरु सरभंगनाथ महाराज का मंदिर था और हर वर्ष चैत्र महीने में वहां होने वाले उत्सव में सैकड़ो भक्त श्रध्दा और भक्ति से दर्शन हेतु जाते। काकी ने बताया मुझे कि एक बार नानाजी की तबियत बहुत खराब हो गयी थी, बचने की उम्मीद नहीं थी उस वक्त नानी ने मन्नत मांगी थी और प्रण किया था कि नानाजी की तबियत ठीक होने के बाद एक बार वह पर...
आवश्यक कार्य
लघुकथा

आवश्यक कार्य

नीलेश व्यास इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** ”रुको भैया”..... ! यह आवाज सुनकर मुक्तिधाम के कर्मचारी उस समय ठिठक गये जब वह कोराना की वजह से मरने वाली एक महिला का अन्तिम संस्कार करने जा ही रहे थे, चारों व्यक्तियों ने पास आकर बताया कि यह उनकी माँ है। ”हम समय पर आ गये” चारों के मुख से बोल फुटे। फिर उन्होंने यह कहकर कि हमें अति आवश्यक कार्य करना है मृतक के पास जाने की अनुमति प्राप्त कर ली, उन्हें अत्यन्त दुखी देख, कर्मचारी भी भावुक हो गये ओर यह विचार कर की कोरोना पीड़ित को छुना तो दुर कोई देखना भी पसंद नहीं करते, यह माँ कितनी भाग्यशाली कि चारों पुत्र श्रद्धाजंली देने, मुख में जल डालने के लिये अपनी जान पर खेल कर आये है, पर यह क्या उन चारों ने फटाफट शव का कव्हर खोलकर शव के पहने गहने उतार लिये, फिर कर्मचारीयों से कहा कि ”भैया हमारा काम तो हो गया, अब आप...
बदनाम गली
लघुकथा

बदनाम गली

जीत जांगिड़ सिवाणा (राजस्थान) ******************** हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित लघुकथा लेखन प्रतियोगिता हेतु प्रेषित की गई लघुकथा "अरे यार। मतलब हद है मुर्खता की। तुम वहां गये हो।" "गया तो कोई बात नहीं मगर इतना रिस्क कौन लेता है।, " सभी जाते हैं। तुम नहीं जाते क्या?" "जाता हूँ मगर इन महाशय की तरह पैसे बाँटने नहीं।" "खैर इनको दस बीस हजार से क्या फर्क पड़ता है? महीने भर की ही तो सेलेरी थी।" "और जब तुमको साथ चलने को कहा था तब तो तुम्हें बड़ी शराफत चढ़ रही थी।" दोस्तों द्वारा की जा रही सवालों की इस बारिश के बीच रणजीत सहमा हुआ खड़ा था। "तुम लोगों को साथ चलना हैं तो चलो वरना मना कर दो और वैसे भी मुझे कोई शौक तो है नहीं पैसे बाँटने का। उसने कहा कि मुसीबत में हूँ, कल तक लौटा दूंगी। और उसके चेहरे से और उसके आंसुओ से पता चल रहा था कि वो जरुर किसी मुसीबत में है" रणजीत ने टोकते हुए कहा। "अच्छा। तुम्ह...