Friday, December 27राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

गद्य

दीपावली गिफ्ट
संस्मरण

दीपावली गिफ्ट

डॉ. विनोद वर्मा "आज़ाद"  देपालपुर ********************** हेमराज वर्मा की नई-नई शादी हुई थीमोहन नागर के मकान में किराए से रहते थे। स्टेट बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत वर्मा जी, सहज और सरल व्यक्ति होने के साथ मन के साफ और नेकदिल इंसान थे।पटलन बाई ने उनको भाई बनाया था। सन्ध्या समय पटलन बाई, मोहनदादा, भाभी, शोभा, डीपी वर्मा, हरीश, सुनील हम सब वर्मा जी के कमरे पर इकट्ठा हो जाया करते थे। खूब हंसी-मजाक होती थी, अक्सर मोहन दादा को हम टारगेट करते थे। उनके और भाभी के बीच अक्सर झड़प होती रहती थी लेकिन वह भी हास्य रूप में। मोहन दादा को मावा खाने का शौक था। वो जब भी नागर मिष्ठान से मावा खरीदकर लाते तो भाभी उन्हें हमारे इकट्ठा होने के बाद छेड़ देती कहती- "विनोद भैया ई झूठ बोली के मावो लाय ने बैठी के चट करि जाय, ने इनको बहानों कय की म्हारे दस्त लगी गया।" तो तमारे खाने से मना कुण करे, खाव पर बहाना क...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २२
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २२

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बुरहानपुर में महाजनी पेठ के एक किराए के मकान में पहली मंजिल पर दो कमरों में सुशीलाबाई और उनकी माँ रहती थी। सुशीलाबाई को सब ताई और उनकी माँ को सब माँजी कहते है यह दादा मुझे उज्जैन में बता चुके थे। संडास और नहाने के लिए नीचे तल मंजिल पर जाना होता था। नल भी नीचे ही थे और पानी भी नीचे से भर कर लाना पड़ता। सुशीलाबाई ने जो दो कमरें किराए से लिए थे उन दो कमरों के बीच में थोड़ी खुली छत भी थी। एक कमरें में रसोई और दूसरे में सोना ऐसी इनकी गृहस्थी की व्यवस्था थी। बगल के एक कमरें में ही दिनकर और सुभाष नामके शाहपुर के दगडू चौधरी के दो लड़के भी पढ़ाई के लिए यहां किराये से रहते थे। ये दोनों लड़के थोड़े बड़े थे और कॉलेज में पढ़ते थे। इन मा-बेटी से मेरा कोई विशेष ज्यादा परिचय तो था नही। सिर्फ उज्जैन में हुई एक दिन की मुलाकात थी पर सुरेश का उनका अच्छा परिचय ही ...
पैकेट
लघुकथा

पैकेट

शिरीन भावसार इंदौर मध्य प्रदेश ******************** लछमी ओ लछमी पेशाब पानी कछु की जरूरत हो तो उतर आओ नीचे....अरे का सोच रही हो...इतना देर की बैठी हो...पाव मुरहा जाही...उतर आओ। सुरेश की आवाज़ सुन ट्रक पर सिमटी बैठी लछमी भय और पीड़ा से और भी ज्यादा सिमट गई। उस पूरे ट्रक में लछमी ही अकेली महिला थी इस विकट परिस्थिति में परेशानी अब वह कहे भी तो किससे और कैसे? लॉक डॉउन की घोषणा होने के बाद जल्दबाजी में अपने गांव वापस लौटने के लिए वे दोनो पहने हुए कपड़े और खाली टिफ़िन के साथ रात १० बजे इस ट्रक में चढ़े थे और अब दोपहर का १ बजने आया था। बढ़ते समय के साथ उसकी परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। अपनी गन्दी साड़ी को समेटती वह गठरी सी हो गई थी कि तभी उसे बाहर एक महिला की आवाज़ सुनाई दी. वह किसी से पूछ रही थी कि क्या तुम लोगो के साथ औरते भी है ? महिला की आवाज़ सुन लछमी ने राहत की सांस ली और गर्दन बाहर कर जब उस महि...
लाइब्रेरी
लघुकथा

लाइब्रेरी

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजिट अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) शेफाली लाइब्रेरी में कुछ किताबें ढूंढ रही थी। उसने जो कल किताब पढ़ी थी वो इसी जगह रखी थी। लेकिन अब उसे उसी जगह पर वो किताब मिल नहीं रही थी। उसने उसी विषय की दूसरी किताब उठा ली।यह सोच कर कि हो सकता इसमें वो चैप्टर उसे मिल जाए वो किताब लेकर टेबल पर बैठ गई।  तभी .....उसने वही किताब सामने वाले टेबल पर देखी। वह पहचान गई कि यह वही किताब थी उसके कवर पर पीला रंग -सा लगा हुआ था। वह पहचान गई इससे पहले वे देखती कि किताब किसके पास है वह लड़का किताब उठाकर लाइब्रेरी से निकल गया। वह उसका चेहरा भी नहीं देख पाई। मन में यह सोच कर कि चलो, वह पढ़ के किताब रख देगा। लाइब्रेरी से वह आज नहीं तो कल किताब ले लेगी। अगले दिन वह फिर किताब ढूंढने गई क्योंकि जो किताब उसन...
श्रापित गुड़िया
कहानी

श्रापित गुड़िया

आदर्श उपाध्याय अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश ******************** वह ७ जुलाई २०१७ का दिन था, जब मैं पहली बार किसी शहर के लिए रवाना होने वाला थ। जैसा कि हमारे गांवों की रीति है कि जब कोई अपने घर से दूर प्रवास के लिए जाता है तो जाने से पहले मां, बहन, बुआ, भाभी आदि लोग रास्ते में खाने पीने के लिए कुछ ना कुछ तल भुनकर दे देती हैं ताकि मेरा बेटा, भाई, भतीजा, देवर रास्ते में भूखा ना रहे। ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। जब मैं नहा धोकर तैयार हो गया तो मम्मी और भाभी ढेर सारी पकौड़ी तैयारी मेरे लिए रख दिया लेकिन मेरी इन सब चीजों को साथ ले जाने की बिल्कुल भी रुचि नहीं थी और मेरी पलकें भीगी हुई थी क्योंकि पहली बार जन्म देने वाली मां और जीवन प्रदान करने वाली जन्मभूमि को छोड़कर कहीं दूर जा रहा था। जैसे तैसे मैं अकबरपुर रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। भैया ने ट्रेन का समय बता दिया था लेकिन जब मैं स्टेशन पर पहुंच...
निर्दयी
लघुकथा

निर्दयी

डॉ. चंद्रा सायता इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************                गांव के एक स्कूल में टीचर पांचवी कक्षा को पर्यावरण का पाठ पढ़ा रहे थीं। सभी बच्चे शांत भाव से सुन रहे थे, किंतु पलाश कुछ ज्यादा ज्यादा ही उत्साही लग रहा था। टीचर जी मेरी दादी भी पेड़ पौधों और पशु पक्षियों की सुंदर-सुंदर कहानियां सुनाती है। मुझे ऐसी कहानियां सुनना बेहद पसंद है। "बहुत बढ़िया बेटा।" दादी की कहानियां सुनते समय आस पड़ोस के बच्चों को भी बुला लिया करो।" टीचर ने पलाश से कहा। इतने में प्यूयू ने आकर टीचर को संदेश दिया "मैडम जी। आपको प्रिंसिपल साहब बुला रहे हैं।" अंतिम पीरियड की समाप्ति में अभी पाँच मिनट बाकी थे अतः बच्चों की छुट्टी कर दी गई वे अपने अपने बसते बंद कर खेल के मैदान की ओर चल दिए। स्कूल से बाहर का रास्ता खेल के मैदान से होकर ही गुजरता था सभी बच्चे घर जाने की खुशी में भागे जा रहे थे पलाश थोड़...
मानवता
लघुकथा

मानवता

रोशन कुमार झा झोंझी, मधुबनी (बिहार) ******************** मानवता मतलब मानव जो अपने घर परिवार समाज के लिए जो भलाई करता, इसके प्रमुख रूप दया, प्रेम, सहनशीलता, संघर्ष आदि है। यहाँ हम मानवता से सम्बंधित रचना प्रस्तुत किये है। :- बात हम बग़ल वाली की ही कर रहा हूँ, वही कोमल, बेबी, मीना की, उसकी नहीं उसकी मानवता की, वह तीनों मानव सेवा को पूजा पाठ और अपना धर्म मानती, तीनों अंधेरा में रोशन, दुख में सुख करके आनंद करने वाली, कुछ देकर तो कुछ अपनी मधुर वचन से वह कैसे तो जानिए, उन तीनों की घर की आस पास राखी नाम की ग़रीब लड़की रहती रही, बेचारी पढ़ना चाहती पर कैसे पढ़ती, लेकिन पढ़ी भी वह कैसे? तो वही कोमल, बेबी, मीना, राहुल, राजन के सहयोग से, पांचों मिलकर राखी की विद्यालय की शुल्क जमा करते, उसे किताब कॉपी खरीदकर देते और अरुण निःशुल्क ही पढ़ाते, इस तरह राखी बारहवीं तक पढ़ी, उन लोगों के सहयोग से। तो इस लघु कथा से ...
चाय
लघुकथा

चाय

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** कलेक्टर बेटा आफिस से लौटा तो देखा, माँ जमीन पर पालथी मारे, इतमीनान से प्लेट में चाय डालकर सुड़क सुड़क की आवाज के साथ पी रही थी। आसपास नौकरों का मजमा जमा है और सबके हाथ में चाय की प्याली है। माँ का चेहरा खुशी से दमक रहा है। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया, उसे देख सारे नौकर नौ दो ग्यारह हो गये। माँ से पूछा- "जमीन पर क्यों बैठी हो जवाब मिला- नहीं आसन पर बैठे हैं। बेटे ने फिर प्रश्न उछाला और ये प्लेट में चाय क्यों डालकर पीती हो माँ बोली जिंदगी गुजर गई बस्सी (चीनी की प्लेट) में ही चाय डालकर पी, कोप (कप) में बहुत गरम रहती है।और यह सुड़क-सुड़क की आवाज ? माँ खुशी से किलकती हुई बोली-" तू भी एक दिन बस्सी में चाय डालकर पी, सुड़क-सुड़क की आवाज से ही चाय पीने की तृप्ति होती है। बचपन में तू भी ऐसे ही चाय पीता था। भूल गया?" बड़ी मनुहार के ब...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २१
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २१

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** महाकाल मंदिर का अहाता चारों ओर से बहुत बड़ा और बहुत बड़ा कच्चा सा विशाल प्रांगण। दिन भर प्रांगण में धूल होती। मंदिर प्रागंण में दिन भर इक्का दुक्का लोग ही दिखाई देते। सुबह शाम ज्यादा लोग होते। रोज भीड़ नहीं होती। हां श्रावण मास में और हर सोमवार एवं महाशिवरात्रि समेत अन्य तीज-त्यौहारों पर भीड़ होती थी। महाकाल के दर्शन और पूजा अभिषेक हेतु आते रोज दो चार भक्त अपने-अपने पुरोहित के साथ दिखाई दे जाते। जब मंदिर में भीड़ नहीं होती उन दिनों हम उधमी बच्चों को महाकाल का विशाल प्रांगण धिंगामस्ती करने के लिए मिल जाता। पाठशाला में बीच के अवकाश में या पाठशाला छूटने के बाद हम बच्चें मंदिर प्रांगण में खूब खेलते। अब मेरे मित्र भी बढ़ गए थे। राजाभाऊ का वीनू, कृष्णाचार्य गुरूजी का मुकुंदा। कुलकर्णी का विजय। पुरोहित मास्टरजी के दोनों बेटे दिनकर और अरुण। खेर चाची...
वेलकम कोरोना
लघुकथा

वेलकम कोरोना

अमोघ अग्रवाल गढ़ाकोटा, सागर (मध्य प्रदेश) ******************** आज सुबह लगभग सात बजे की बात है। एक छोटा सा लड़का चौराहे पर सफेद रंग से कुछ लिख रहा था। जैसे उसका लिखना खत्म हुआ वहाँ भीड़ लग गई और कुछ लोग उस लड़के को डाँटने लगे। डाँट के कारण वह लड़का वहाँ से भाग गया साथ में सफेद रंग भी ले गया। मैंने भी उसका पीछा किया और देखा वही कार्य उसने दूसरे चौराहे पर भी किया। मैं उसके पास गया और पूछा कि "क्या मैं तुम्हारी मदद करूँ और तुम यह वेलकम कोरोना क्यों लिख रहे हो?" वह गुस्से से मुझे घूरता देखता है और फिर कहने लगा कि लोगों को समझ नहीं आ रहा है, इतने समय से नेता, अभिनेता, पुलिस सब परेशान है, सब हाथ जोड़कर निवेदन करते है। और अपने गाँव के लोग सबकी मेहनत पर पानी फेरते है। न मास्क लगाते है और न ही बीड़ी, गुटखा, पान मसाला, सोशल डिस्टेंस आदि के बारे में कुछ जानकारी रखते हैं। इसलिए मैंने सोचा कि...
प्रवासी मजदूर और बरसात का कहर
आलेख

प्रवासी मजदूर और बरसात का कहर

गोवर्धन लाल डांगी चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) ******************** आज सारे संसार के सामने कोरोना महामारी का प्रकोप पांव पसार खडा़ है, मानव को झंकजोर कर रख दिया है। एक दूसरे की संवेदना शून्य सी जान पडती है। विश्व की सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक ढांचे में अचानक बदलाव आया है, इन सब का शिकार मजदूर वर्ग हुआ है। भारत में प्रवासी मजदूरों के साथ एक राज्य ने दूसरे राज्य के साथ जो व्यवहार किया है, वह भयावह रुप है। शहर से अपने पितामह के घर पहुचे पहुंचे ग्रीष्म ऋतु से वर्षा ऋतु तक का हम सफर रहा है। रास्ते चलते जिस माँ ने अपने नवजात शिशु को जन्म देते ही मीलों दूरी तय की हो, ऐसी माँ को सलाम, जब वह घर पहुची होगी तब दरवाजे पर घड़ी भर खुब रोयी होगी, घर खण्ड पडा है, ऊपर से बादल मेहरबान है.वहाँ एक रात नही महिने गुजारने है, ऊपर खुला आसमान नीचे पैरों में बहता पानी। इन दोनों पाटों के बीच पिसता मेरे ...
इतिहास के क्षितिज में विलीन कविता
आलेख

इतिहास के क्षितिज में विलीन कविता

योगेश्वर स्वामी झुंझनू, राजस्थान ******************** कविता किसी पेड़ से अलग हुआ पत्ता नहीं जिसे हवा अपनी झाड़ू से बुहार दे.... कविता समुद्र भी नहीं जिसपे जहाज़ लंगर डाल ले.... कविता किसी मेहनती किसान की बनियान का स्वेद नहीं, जिसे निचोड़ा जा सके ... बल्कि कविता तो दुनिया के हृदय में गड़ा हुआ एक खूंटा है.... जिसके इर्द गिर्द देहाती जीवन छोटे बच्चे की तरह अठखेलियां खेलता, शरारतों को परवान चढ़ाता नजर आता है। और यही देहाती क्षेत्र, शहरी क्षेत्र को परस्पर जोड़ता है सड़कों के माध्यम से, जिसपे ना जाने कितनी ही कविताएं कवियों के रूप में अपनी कलम के साथ दम तोड़ देती है। कविता किसी जल - लिपि से लिखित उस आसमान की तरह है जो अपने मर्मस्पर्शी और भावमयी बादलों के सहारे धरा के साथ साथ सूर्य को भी सिंचित करती है कुछ बुज़ुर्ग व्यक्तियों के सुबह के अर्घ्य -जल के सहारे। कविता शब्दों के समूह ...
विश्वास
कहानी

विश्वास

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ********************     मैं अक्सर पुस्तक लेकर जाम के पेड़ पर बने वाय आकार पर चढ़कर पढ़ाई करती। इस बार दो-तीन दिन बाद जाना हुआ। इस बात से अनजान की जाम के पेड़ पर मधुमक्खी ने घर बना लिया है। मेरी चीज निकलते ही पापा दौड़े-दौड़े आए माजरा समझते देर न लगी। लकड़ी में रूई लपेटकर मिट्टी तेल में डूबा कर धुआं से मधुमक्खियों को यह कहते हुए भगा दिया कि- "तुमने मेरी टुकटुक को काटा" और मैं हंस दी। मेरे चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए कितनी जादूगरी दिखाते। हर प्रकार की छोटी बड़ी बात व्यावहारिकता से चरितार्थ करके मुझ में स्वाभाविक तौर पर भर देते। मित्रवत व्यवहार करके जीवन के हर पहलू से अवगत कराते मुझे परिपक्व बनाने प्रयासरत रहते। वह दिन भी आ गया जब मेरी विदाई को दूर किसी कोने से खड़े हुए देख रहे थे। हम दोनों ही एक दूसरे की आंखों में आसूं नहीं देख सकते थे। शायद पापा ऐसे ...
मेरे पिताजी
संस्मरण

मेरे पिताजी

डॉ. भवानी प्रधान रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** जिस तरह माँ को परिभाषित करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं वैसे ही पिताजी की अहमियत को समझना आसान नहीं है। बात उन दिनों की है, जब मेरी शादी हो गई थी, और मैं एक बच्चे की माँ बन गई थी। मम्मी -पापा मुझसे मिलने हॉस्पिटल आये थे। बगल के सोफ़े में बैठे मम्मी-पापाजी बातें कर रहे थे। कह रहे थे- बिटिया जब छोटी थी और जब इसकी तबियत ख़राब रहती, तब एक इंजेक्शन लगवाने के लिए भी तैयार नहीं होती थी। बोलती थी डॉ. अंकल मुझे जितना गोली देना है दे दीजिए पर इंजेक्शन मत लगाइयेगा, और आज इतने बड़े आपरेशन के लिए कैसे तैयार हो गई। माँ बोली अब हमारी बेटी बड़ी हो गई है और आज तो हमारी बिटिया को दुनिया का सबसे बड़ा सुख मातृत्व सुख मिला है, तो भला आपरेशन के लिए कैसे मना करती। सच में वह बातें सुनकर मैं भावविभोर हो गई थी। पिताजी सब जानते थे, पर कभी बोलते नहीं थे। ह...
सोच
लघुकथा

सोच

श्रीमती अंजू निगम जाखन, (देहरादून) ******************** मन में प्रचंड उथल-पुथल मची हैं। ऑफिस के माहौल में राजनीति पैठ रही हैं। इसी मनोदशा में, अंधेरे से घिरते कमरे में वह अपने बिस्तर में औधें मुँह पड़ी थी। दीदी ने आकर केवल उसका हाल-चल ही तो लेना चाहा था। पर नेहा को यह दीदी की, अपने जीवन में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी लगी और उसने बड़े-छोटे का लिहाज छोड़ दी को खुब खरी-खोटी सुना दी। तबसे दोनो के बीच अबोला ठना था। आज नेहा जब इसी मनोस्थिति में घी दानी में घी उलीचने लगी तो काफी घी बाहर फैल गया। उसे ध्यान आया कि दीदी हमेशा कहती कि घी या तेल उलीचते समय नीचे परात लगा लिया करो ताकि घी स्लैब में न फैले और परात में सिमटा रहे। उस दिन अगर वो भी अपने बहते मन के नीचे सब्र की परात लगा लेती..... . परिचय :- श्रीमती अंजू निगम जन्म : २० अगस्त १९६८ निवासी : जाखन, देहरादून आप भी अपनी कविताएं, कहानिया...
पिता
संस्मरण

पिता

ममता रथ रायपुर ******************** हम सभी ने नारियल देखा है, ऊपर से सख्त पर अंदर से नरम और मुलायम, एक पिता भी ऐसे ही होते हैं, ऊपर से सख्त और कठोर पर अंदर से नरम। ज्यादातर हम मां के बारे में ही लिखते हैं पर पिता के बारे में लिखना भूल जाते हैं। पिता के द्वारा अपने परिवार, रिश्तेदार और समाज के लिए किया गया संघर्ष कोई नहीं जानता। हर दुख और कठिनाई को सहकर भी हमें खुश रखने की कोशिश करते हैं वो पिता ही होते हैं। ‌‌पिता का ह्रदय बहुत बड़ा होता है वह हर गलती को सरलता से माफ कर देते हैं। मां की लोरी सुनकर हम बड़े होते है और जीवन की कठोर राह में अपने ऊंगली पकड़कर चलाने वाले पिता ही होते हैं। वो पिता ही होते हैं जो जिंदगी की ठोकर लगने पर दर्द को सहना सिखाते हैं। पिता जीवन भर अपनी सारी इच्छाओं को मारकर हमारे उज्जवल भविष्य के लिए संघर्ष करते रहते हैं। मां का आंचल अगर ठंडी छांव हमे देती है तो उस आं...
भटकन ही भटकन
आलेख

भटकन ही भटकन

रामनारायण सुनगरिया भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) ******************** यह ऐसी स्थिति होती है कि कोई भी मृगमरीचिका की तरह दिग्‍भ्रमित होकर इधर-उधर डोलता रहता है। कुछ भी निर्णय लेने में अपने आपको अक्षम पाता है। किसी भी स्थिति में उसे विश्‍वास अपने घेरे में नहीं ले पाता। हर जगह अनिश्‍चय ही अनिश्‍चय प्रतीत होता है। किसी भी व्‍यक्ति, किसी भी सिद्धान्‍त, किसी भी परम्‍परा, किसी भी हालात इत्‍यादि पर वह स्‍पष्‍ट स्थिरता नहीं रख पाता है। इन अदृश्‍य बन्धनों में हम ऐसे जकड़ते चले गए। उन कारणों को ज्ञात करना आज अत्‍यावश्‍यक प्रतीत होता है तथा उन पर अंकुश लगाना हर विचारवान नागरिक का सामाजिक दायित्‍व हो गया है। आज जहॉं-जहॉं छोटे-बड़े स्‍वार्थपरक समूह गठित हो गए है, जो स्‍वलाभ के लिए समाज के शाश्‍वत मूल्‍यों को दीमक की तरह चाट रहे हैं। इनकी सक्रियता हर क्षेत्र में व्‍याप्‍त होती जा रही है। धर्मो के विशेषज...
पलायन
लघुकथा

पलायन

डॉ. अलका पांडेय मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** आज दसवाँ दिन था किरण के कारख़ाने को बंद हुऐ, लाकडाऊन के कारण कारख़ाने के कारीगर भी बहुत परेशान थे किरण ने सबको बहुत समझाय बहार कोई व्यवस्था नहीं है, तुम लोगों को यही रहना है तभी कोरोना से बच पाओगें गाँव जाओगें भी कैसे कोई साधन नहीं तुम लोग ज़ब तक यहाँ रहोगे मेरी जवाब दारी है खाना वग़ैरा देने की एक बार बहार गये मेरी कोई जवाबदारी नहीं मेरी बात समझ में आई..... पर कोई सुन नहीं रहा था दो घंटे मिटींग लेकर सबको सेनेटाईज मास्क देकर सारे निर्देश अच्छे से समझा कर बस घर आकर बैठी ही थी कि कारख़ाने से फ़ोन आता है मेडम छ: लोग भाग गये जो पलायन कर गये उन्हें जाने दो पर तुम लोग बहार, मत जाना और वो लोग आये तो अब वापस नहीं लेना क्योंकि तुम्हें भी बिमार पड़ने का ख़तरा हो सकता है, ठीक है मेमसाहेब, किरण ने नौकरानी को आवाज़ दी बेटा चाय पिला कितना समझा कर ...
भयंकर बाढ़
लघुकथा

भयंकर बाढ़

विनोद वर्मा 'दुर्गेश' तोशाम (हरियाणा) ******************** रात भर लगातार मूसलाधार बारिश हो रही थी। गाँव और शहर भयंकर बाढ़ की चपेट में आ चुके थे। चारों ओर पानी ही पानी का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। गाँव के गाँव बाढ़ की भेंट चढ़ चुके थे। असंख्य मवेशी और पंछी भी बाढ़ के पानी में बह गए थे। रघु काका गाँव से दूर उजड़ी बस्ती में एक ऊँचे टीले पर बनी अपनी झोपड़ी में अकेले ही थे। बाढ़ का पानी वहाँ तक नहीं पहुँच पाया था। परंतु बारिश के कारण उसकी झोपड़ी से पानी टपक-टपक कर गिर रहा था। रघु काका चिंतित मुद्रा में कभी चारपाई को इस ओर करते तो कभी उस ओर। ऊपर से मच्छरों की भिनभिनाहट ने जीना मुहाल कर दिया था। एक तो पानी टपकने से झोपड़ी में तालाब का साम्राज्य स्थापित हो चुका था वहीं दूसरी ओर रात भर सो न पाने के कारण रघु काका की आंखें लाल हो गया थी। चूल्हे में पानी भर जाने के कारण रोटी बनाने के लाले भी पड़ गए...
प्रवासी प्रेम
कहानी

प्रवासी प्रेम

आदर्श उपाध्याय अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश ******************** वह ७ जुलाई २०१७ का दिन था, जब मैं पहली बार किसी शहर के लिए रवाना होने वाला थ। जैसा कि हमारे गांवों की रीति है कि जब कोई अपने घर से दूर प्रवास के लिए जाता है तो जाने से पहले मां, बहन, बुआ, भाभी आदि लोग रास्ते में खाने पीने के लिए कुछ ना कुछ तल भुनकर दे देती हैं ताकि मेरा बेटा, भाई, भतीजा, देवर रास्ते में भूखा ना रहे। ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। जब मैं नहा धोकर तैयार हो गया तो मम्मी और भाभी ढेर सारी पकौड़ी तैयारी मेरे लिए रख दिया लेकिन मेरी इन सब चीजों को साथ ले जाने की बिल्कुल भी रुचि नहीं थी और मेरी पलकें भीगी हुई थी क्योंकि पहली बार जन्म देने वाली मां और जीवन प्रदान करने वाली जन्मभूमि को छोड़कर कहीं दूर जा रहा था। जैसे तैसे मैं अकबरपुर रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। भैया ने ट्रेन का समय बता दिया था लेकिन जब मैं स्टेशन पर पहुंच...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २०
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा। वो एक रविवार का दिन था। दादा को भी छुट्टी थी। सब का नहाना हो गया और दादा का पूजापाठ भी हो गया। फिर हम सब रतन मारवाड़ी भोजनालय में खाना खाकर भी आ गये। दादा की कुछ देर दोपहर की विश्रांति भी हो गयी। हम बच्चें नीचे आंगन में खेल रहे थे। लगभग चार बजे होंगे दादा ने सुरेश को ऊपर से ही आवाज लगाई। मैं भी सुरेश के साथ ऊपर गया। दादा ने सुरेश को कुछ रुपये देकर बाजार से दो बर्कले छाप सिगरेट के पेकेट और साथ में एक माचिस लाने को भी कहा। मैं घर पर ही ठहर गया। दादा ने बाहर के कमरे में दो दरियां और उन पर दो सफ़ेद चद्दरें बिछायी हुई थी। मैं सोचने लगा कि अभी तो सोने का समय ही नहीं है फिर दादा ने यह बिछाईत क्यों भला कर के रखी है? मुझे समझ में नहीं आ रहा था। जल्द ही सुरेश भी सिगरेट के पेकेट और माचिस ले कर आगया। दादा ने पेकेट मे...
विशाल रोटी
लघुकथा

विशाल रोटी

डॉ. अलका पांडेय मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मोहन आज बहुत थक गया मानिक रुप से भी व शारीरिक रुप से भी ! बॉस तो ऐसे काम कराता है की कई बार मन करता है नौकरी छोड़ के भाग जाऊ पर मजबूरी है दो “रोटी “कमाने तो यहाँ पर आया है ! घर की हालत बहुत ही ख़राब, घर गिरवी रखा है, मेरी पढ़ाई के लिये बाबू जी ने वह छूडाना है सबसे पहले, फिर छोटी बहन कंचन की शादी करनी है, माँ बाबू जी को सुख व ख़ुशियाँ तो दू ! पर यह बाँस लहू निचोड़ लेता है अपमानित करता है जो अलग, यही विचार उसके मन में उथल पुथल मचा रहे थे, की राकेश आ गया पीट पर धौल जमा बोला क्या हुआ, मोहन बाँस ने कुछ कह दिया क्या अरे छोड़ उसको चल कैंटीन में चल चाय पीते है, मोहन बोला मुझसे मेहनत चाहे जितनी करा लो पर साला अपमान बर्दाश्त नहीं होता मेरी मजबूरी न होती तो कब का लात मार नौकरी को चला जाता ! राकेश ने कहाँ मोहन तु यहाँ रोटी कमाने आया है, बोल हाँ...
कबाड़
लघुकथा

कबाड़

डॉ. ज्योति मिश्रा बिलासपुर (छत्तीसग़ढ) ******************** "कबाड़....शर्माजी बेहद खुश थे उनके पैर मानो जमीन पर ही नही टिक रहे हो ..और हो भी कयो नही उनके इकलौते बेटे रमेश का सीधे अफसर की पोस्ट पर सिलेक्शन जो हुआ था नया घर मिला वो भी हाईफाई सोसायटी मे थ्री बीएचके वरना अब तक तो शर्माजी किराए के मकान मे धक्के खा रहे थे ऐसा नही की उन्होंने कभी अपना मकान नही बनाया था ... बनाया था मगर बेटे रमेश को बडा अफसर बनाने मे उसकी अच्छी पढाई और जरुरतों के लिए बेच दिया तमाम संघर्ष किए इस बीच पत्नी का साथ भी छुट गया मगर हिम्मत नही हारी और बुढापे मे गार्ड की नौकरी भी की ...जिसकी बदौलत आज उनका सपना पूरा हो रहा था बहु और दो मजदूरों सहित पूरे घर मे समान बखूबी जमा दिया सचमुच घर एक मंदिर की तरह लग रहा था आखिर थ्री बीएचके मे से एक कमरा उनके लिए भी था दोपहर को रमेश आफिस से लंच करने के लिए घर लौटा तो घर को करीने स...
चिंकी का खत
लघुकथा

चिंकी का खत

रश्मि श्रीवास्तव “सुकून” पदमनाभपुर दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** चिंकी बड़ी ही तन्मयता से कुछ लिख रही थी, जैसे ही पापा को अपने कमरे की तरफ आते देखा, अनायास ही उसके हाथ रुक गए जैसे किसी ने उसकी चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा हो और कॉपी अपने पीछे छुपा कर खड़ी तो गई। पापा ने पूछा- क्या बात है बेटा तुम इतना घबरा क्यूँ रही हो? चिंकी ने रूआँसे होते हुए कहा कुछ नही, पापा बस यूंही ... कह कर दौड़ कर चली गई। पापा को चिंकी की हरकत कुछ संदेहास्पद लगी। बात आई गई हो गई। रात को सोने के लिए अपने रूम मे जाते वक़्त अचानक फिर उस घटना की याद आ गई और पापा के मन में उधेड़ बुन शुरू हो गया की आखिर चिंकी ऐसा क्या लिख रही थी जो उनके आते ही सिहर उठी और घबरा गई। कहीं ऐसी वैसी बात तो नही, यह सब सोंचते सोंचते बरामदे में टहलने लगे, टहलते हुए उनकी नज़र चिंकी पर पड़ी जो गहरी नींद सो चुकी थी, चिंकी के रूम में जाकर पापा ने वह...
अन्न का हर कण
लघुकथा

अन्न का हर कण

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** माँ! "आप दादा दादी को भर पेट खाना क्यों नही देती?" "किसने कहा तुमसे?" दादा ने कि दादी ने " "किसी ने भी नही" तो? "मैं और भैया रोज देखते हैं, दोनों खाना के बाद थाली में बचा एक-एक कण अँगुली से चाट चाट कर खा लेते हैं। हम दोनों को लगता कि उनका पेट नहीं भरता?" मैंने देखा कि लाकडाऊन के कारण घर में विराजमान पति देव बच्चों की बात सुनकर मन्द मन्द मुस्कुरा रहे हैं, उन्हे देखकर मै हँसपड़ी। हँसते हुए मैंने दोनों बच्चों को अपनी बाहों में भर लिया और प्यार से समझाया- "दादा दादी पुराने जमाने के हैं, जो भगवान् के द्वारा दी गई हर वस्तु का ध्यानपूर्वक उपभोग करते हैं, किसी भी चीज की बर्बादी तो बिलकुल भी नहीं। रही अन्न की बात, हर दिन के भोजन को भगवान का प्रसाद समझकर वे भोजन करते हैं। उनका मूल मंत्र है आनंद का हर क्षण और अन्न का हर कण कभी भी नहीं छो...