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गद्य

अक्षय तृतीया
आलेख

अक्षय तृतीया

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** अक्षय तृतीया वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। इस दिन जो दान पुण्य किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है, ऐसी मान्यता है, कि इस दिन को शुभ माना जाता है क्योंकि इस दिन मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए गृह प्रवेश से लेकर शादी तक अक्षय तृतीया को करना चाहते हैं। अक्षय तृतीया के दिन आज भी गांव में बाल विवाह करने की प्रथा है। बाल विवाह करने और करवाने वालों को भले ही दंड मिलता है, परंतु इसके बावजूद भी अक्षय तृतीया के दिन बहुत सी शादियां होती हैं। यह एक कुरीति है, क्योंकि १८ वर्ष से कम उम्र के बच्चे नाबालिक समझे जाते हैं, और इस उम्र में लड़कियों की शादी के करने के किसकी पढ़ाई रुक जाती है और उसका शरीर भी गर्भधारण करने के लिए भी तैयार नहीं होता। कम उम्र में शादी होने से ना ही रुतबा होता है, न ही शक्ति ...
पौष्टिक आहार पर कोरोना की मार
व्यंग्य

पौष्टिक आहार पर कोरोना की मार

विष्णु दत्त भट्ट नई दिल्ली ******************** कोरोना क्या आया दुनिया की सूरत बदल गई। प्राणवान तो इस महामारी से त्रस्त हैं ही लेकिन प्राणहीन भी कम त्रस्त नहीं हैं। मेरे घर में अनवरत रूप से एक अखबार आता है। कोरोना से पहले बड़ा हृष्ट-पुष्ट था। किसी अच्छे खाते-पीते घर का लगता था। काफ़ी वजनी होता था। पेजों की भरमार होती थी। हालांकि उनमें वजन ही होता था पढ़ने लायक समाचार तो एक-आध पेज पर ही होते थे। बलात्कार की चटपटी खबर, हत्याओं की सनसनीखेज खबरों को देखकर ऐसा अनुभव होता था जैसे ये सारी बारदातें इसी अखबार ने की हैं? इतना बारीक विश्लेषण तो खुद बलात्कारी और हत्यारा भी नहीं कर पाता जितना बारीक़ विश्लेषण अखबार करता है। कोरोना से पहले अख़बार बहुत ऊर्जावान लगता था। विज्ञापनों की पौष्टिक ख़ुराक़ जमकर मिलती थी। कभी-कभी तो ख़ुराक़ इतनी अधिक होती थी कि पढनेवालों को अपच के कारण दस्त लग जाते थे लेकिन अखबार की ...
कर भला तो हो भला
जीवनी

कर भला तो हो भला

डॉ. भोला दत्त जोशी पुणे (महाराष्ट्र) ********************                 मनुष्य में परोपकार, दया, उदारता, क्षमा, समानता, धैर्य, सृजनशीलता, खोजी दिमाग आदि अनेक सद्गुण हैं जिनकी बदौलत वह ईश्वर की उत्कृष्ट रचना कहलाता है| बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की बात है | उत्तराखंड के सुदूर में स्थित चीन की सीमा से लगे तत्कालीन जनपद पिथौरागढ़ जिससे अलग हुआ इलाका अब चंपावत के नाम से जाना जाता है, में एक साधारण किसान परिवार में २० दिसंबर १९५३ को अद्भुत प्रतिभावान बालक का जन्म हुआ था | बालक का नाम भवानी दत्त रखा गया | कहते हैं कि जन्म के ग्यारहवे दिन नामकरण के उपरांत शिशु के हाथों में कलम आदि पकड़वाने की परंपरा के निर्वहन के समय बालक ने कलम और काठी का घोड़ा दोनों को स्पर्श किया | संकेत के रूप में यह माना गया कि बड़ा होकर बालक तकनीकी क्षेत्र में अच्छी पढ़ाई करेगा | बालक के पिता श्री दयाराम जोशी और माता श्र...
भगवान और भिखारी
लघुकथा

भगवान और भिखारी

विनय मोहन 'खारवन' जगाधरी (हरियाणा) ******************** धार्मिक प्रवृत्ति के राम लाल हर रोज साईकल से उस शिव मंदिर में पूजा करने आते थे। मंदिर के सामने ही एक भिखारी बैठता था। जिसे राम लाल रोज एक रुपया देता था। ये नियम सा बन गया था। उस दिन भी रामलाल साईकल से घर से चला, पर मंदिर पहुंचने से पहले ही साईकल में पंचर हो गया। साईकल को पैदल ही लेकर पंचर की दुकान तक पहुंचा। पंचर लग गया। पैसे जेब से निकालने लगे तो पता चला पर्स ही घर रह गया। अब क्या करें। दुकानदार को सारी बात बताई पर दुकानदार नही माना। रामलाल ने इधर उधर देखा, सामने भिखारी पर नज़र पड़ी। भिखारी रामलाल को ही देख रहा था। रामलाल भिखारी के समीप गया। भिखारी ने बिना कुछ बोले, बिना कुछ पूछे रामलाल को दस का नोट थम दिया। रामलाल समझ गया कि ये भिखारी सब देख चुका है। भिखारी नीचे मुँह करके अपना कटोरा खड़काने लगा। रामलाल ने दुकानदार के पैसे दिए व मंन्दिर...
मां तुझे सलाम नमन
स्मृति

मां तुझे सलाम नमन

माधवी तारे इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जिनके हाथों में पालने की डोरी, उसकी महिमा जगन्नाथ से भी भारी।। मातृ दिवस का मर्म इन दो पंक्तियों में समाया है। अहिल्या सीरियल दूरदर्शन पर देखते-देखते मां से जुड़ी कई यादें दिमाग में पुनः ताजा हो गई हैं। कुछ बातें आपके साथ साझा करने का प्रयास कर रही हूं। स्वानुभूति के समंदर में गोते लगाते हुए मेरी मां ने कुछ उसूलों के मोती पाए थे और उनको अपने मन मंदिर में सजाकर आज की दृष्टि से विशाल परिवार को सभ्य, सुसंस्कृत, संस्कारित, आध्यात्मिक संबल से पालने का निश्चय किया था। बात पुराने जमाने की है अर्थात ३० के दशक से शूरू होती है.... शादी के समय मेरी मां की उम्र ९-१० साल की और पिताश्री की उम्र १९-२० साल की थी। गांव के मुखिया की बेटी थीं वे। खेत-खलिहान, बाग-बगीचे भव्य बाड़े, नौकर-चाकर तथा भरे-पूरे परिवार से थीं हमारी मां। मुखिया जी के घर...
जगदगुरु आदि शंकराचार्य जन्म जयंती विशेष
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जगदगुरु आदि शंकराचार्य जन्म जयंती विशेष

मंगलेश सोनी मनावर जिला धार (मध्यप्रदेश) **********************                             भारतवर्ष सदैव से एक अलौकिक राष्ट्र रहा, जहां अपने महापुरुषों का स्मरण करने की परंपरा रही है। अनेक सन्तों, वैज्ञानिक, क्रांतिकारियों की जन्मभूमि होने के कारण भारत विश्व मे आध्यात्म का केंद्र ही नही रहा अपितु अपनी भूमिका को भारत ने विश्वगुरु बनकर सदैव निभाया भी है। आज से लगभग १२३० वर्ष पूर्व एक निर्धन ब्राह्मण परिवार जो केरल के कलाड़ी ग्राम में निवास करता था, शिवगुरु व सुभद्रा दोनों पति पत्नी अनन्य शिव भक्त थे। अपनी संतान न होने के कारण वे अत्यंत व्यथित थे, अपने इष्ट से सदैव ही सन्तान प्राप्ति का आशीष मांगते। एक दिन महादेव ने इस परिवार को आशीष दिया, घर में बालक का जन्म हुआ। महादेव के आशीष से पुत्र प्राप्ति होने के कारण इस बालक का नाम शंकर रखा गया। शंकर बचपन से ही जिज्ञासु, ज्ञान अर्जन को समर्पित र...
इंसानियत
लघुकथा

इंसानियत

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** आखिर तुम समझती क्यों नहीं? क्या समझूँ, तुम खुद को बड़े समझदार मानते हो? पत्नी की आँखों में गुस्सा साफ झलक रहा था। क्या किसी की मदद करना गलत हैं? ये मदद करना नहीं होता, सुरेश। ये तो मौत को अपने पास बुलाना होता। जब गाँव का कोई आदमी उसकी लाश को हाथ लगाने को तैयार नहीं था, तो तुम क्यों जिद्द पर अड़े हुए थे। तुम्हें पता है, सुरेश उसकी मौत कोरोना महामारी से हुई। फिर भी तुम.....। क्या तुम्हें डर नहीं लगता? हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं।तुम्हें कुछ हो गया तो। कोरोना छूने से फैलता है। अब बस भी करो, सुजाता। तुम कितनी मतलबी हो? वो एक लाश ही नहीं हैं। कुछ घंटों पहले जीती-जागती औरत थीं। जिसे तुम बार-बार लाश कह रही हो। उसने हमारी कितनी मदद की थीं? वो हमारी क्या लगती थीं? उसनें हमेशा इंसानियत के नाते, हमारी मदद की थीं। ठीक हैं, सुरेश मैं मानती हूँ। पर तुम...
मां के लिए … बेटियां कभी पराई नहीं होती…
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मां के लिए … बेटियां कभी पराई नहीं होती…

वंदना गोपाल शर्मा "शैली" भाटापारा (छत्तीसगढ़) ******************** मां कभी धूप सी... तो कभी छांव सी होती है... मां के लिए बेटियां कभी पराई नहीं होती है! बहुत डांटती थी मां बचपन में, तब धूप सी लगती थी! जैसे धूप का विटामिन ई मजबूती प्रदान करता है, सहनशीलता भी बढ़ाता है और ज्यादा लाड़ बिगाड़ता है मानों शुगर बढ़ाता है। अधिकांशतः मांएं कहती है- "बिटिया...! तुम्हें दूसरे घर जाना है, समायोजन भी सीखना है, कभी तुम्हारे लिए रसोईघर में सब्जी न बचे तो आचार या दही से खा लेना पर शोर न मचाना बच्चों की तरह... मेरे सामने सब चलेगा पर वहां नहीं, क्योंकि मैं जन्मदात्री हूं और सासुमां धर्म की मां होगी।" वगैरह-वगैरह...! कितना सीखाती थी मां। बचपन में कभी एहसास नहीं हुआ कि मुझे अकेला छोड़ा हो, जरूर मेरे जन्म पर भी सबसे पहले मां ही खुश हुई होगी, हम भाई-बहनों की परवरिश और प्यार में कभी भेदभाव नही कीया। वो हमारी छ...
मां से भी कोई माफ़ी मांगता है भला?
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मां से भी कोई माफ़ी मांगता है भला?

ममता रथ रायपुर (छत्तीसगढ़) ********************                             मां तो वो होती है जो अपनी होती है, बहुत अच्छी होती है, जो कभी नहीं रूठती, रूठती भी है तो तुरंत मान जाती है। मां की बातें हमेशा इतनी एक सी होती है कि लगभग रट चुकी होती है। खाना ठीक से खाओ, क्या हुआ क्यों नहीं खा रहे, तबीयत ठीक नहीं है क्या, कहां जा रहे, किसके साथ जा रहे, कब आवोगे, शाम को जल्दी आ जाना, दोस्तों के फोन नंबर देते जाओ, गाड़ी धीरे चलाना, जल्दी सो-जल्दी उठो, कपड़े ढ़ंग से पहनो, बाल दाढ़ी कटवा लो, बाहर का खाना ज्यादा मत खाओ, अच्छे दोस्त बनावो, उफ़!!! इस सूची का कोई अंत नहीं। इन सारी हिदायतों के लगातार प्रसारण से हम मां को लेकर लापरवाह हो जाते हैं। ये सारी बातें मां के सामने तो बुरी लगती है, पर जब हम अकेले होते हैं यहीं बातें बहुत याद आती है। हमें अपराध तो स्वीकारना होगा कि हम मां की बातों को गंभीरता से नह...
भगवान कृष्ण-वाद्य कला
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भगवान कृष्ण-वाद्य कला

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ********************                       भगवान कृष्ण के जान से जुडी कथाएं है उनमें से एक यह भी है जब देवकी ने श्री कृष्ण को जन्म दिया, तब भगवान विष्णु ने वासुदेव को आदेश दिया कि वे श्री कृष्ण को गोकुल में यशोदा माता और नंद बाबा के पास पहुंचा आएं, जहां वह अपने मामा कंस से सुरक्षित रह सकेगा। श्री कृष्ण का पालन-पोषण यशोदा माता और नंद बाबा की देखरेख में हुआ। बस, उनके जन्म की खुशी में तभी से प्रतिवर्ष जन्माष्टमी का त्योहार मनाया जाता है। पूजा हेतु सभी प्रकार के फलाहार, दूध, मक्खन, दही, पंचामृत, धनिया मेवे की पंजीरी, विभिन्न प्रकार के हलवे, अक्षत, चंदन, रोली, गंगाजल, तुलसीदल, मिश्री तथा अन्य भोग सामग्री से भगवान का भोग लगाया जाता है। जन्माष्टमी पर्व पर नई पोशाख, मोर पंख, पारिजात के फूलों का भी महत्त्व है ऐसी मान्यता है जन्माष्टमी के व्रत का विधि पूर्वक पूजन क...
सकारात्मक सोच
लघुकथा

सकारात्मक सोच

रुचिता नीमा इंदौर म.प्र. ******************** शहर में चारों तरफ महामारी आतंक मचा रही थी, हर कोई दशहत में था कि मुझे कुछ हो न जाये। लेकिन इन सबसे परे कोई और भी था जो सुनहरे भविष्य के लिये सपने बुन रहा था, राज.... एक बहुत अच्छा और सवेंदनशील लड़का, जिसको बहुत कुछ हासिल करना था। लेकिन लॉक डाउन के चलते वह खुद को बहुत असहज महसूस कर रहा था। उसे लगता था कि जिंदगी की रफ्तार रुक सी गई है। और लोग हताश रहने लगे हैं। और मैं इन लोगों के लिये चाहकर भी कुछ नही कर पा रहा। अचानक सोशल मीडिया पर उसकी मुलाकात उसकी एक बहुत पुरानी दोस्त से हुई, जो कि डॉक्टर थी और दिन रात मरीजों के इलाज में लगी हुई थी, फिर भी वह तनाव मुक्त थी,,, उससे बात करके राज को महसूस हुआ कि जीवन में खुद से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं। खुद का मनोबल बनाये रखना बहुत जरूरी है। धीरे-धीरे उसने खुद में सकारात्मक बदलाव किया और अपने परिवार और दोस...
अपना लक पहन कर चलों
कहानी

अपना लक पहन कर चलों

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** मेरे बदन से मेरी कमीज किसी ने अलग कर ली। मेरी सीट के पीछे बैठे व्यक्ति ने यह कारनामा कैची से बड़ी खूबसूरती से किया। मै बस में झपकी ले रहा था। वह शरारती यही पर नहीं रुका, उसने उसी अंदाज में मेरी बनियान के भी टुकड़े करके उसे भी मेरे बदन से अलग कर दिया। न जाने कहाँ जा रहा था मैं। और क्यों जा रहा था? किसी मंजिल की तलाश थी या मंजिल मुझे अपनी ओर ले जा रही थी? शुक्र है कि वह मेरा पाजामा नहीं उतार पाया। मेरी गहरी नींद की मुझे गहरी कीमत चुकानी पड़ी। माँ हमेशा कहती थी, 'बेटा सफ़र में सावधान रहना चाहिए' पर सावधान रहने का यह मतलब तो नहीं कि सोया ही ना जाय? और फिर बदन से कोई कपडे उतार ले यह तो कल्पना से परे ही है। उसने चुराया कुछ नहीं पर उसकी शरारत मुझे महँगी ही पड़ने वाली थी। नीद में गाफिल लोग मालूम नहीं क्या क्या गवाते है? 'जो सोवत है सो खोवत है, जो...
बढ़ती भौतिकतता विलुप्त होती संवेदनाएं
आलेख

बढ़ती भौतिकतता विलुप्त होती संवेदनाएं

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                                   प्रसिद्ध कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ’यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो, तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो? यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हों, तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो’? इसी संदर्भ में मुजफ्फरपुर के जनाब आदित्य रहबर लिखते हैं, यदि इसका जवाब हां है तो मुझे आपसे कुछ नही कहना है, क्योंकि आपके अंदर की संवेदना मर चुकी है और जिसके अंदर संवेदना न हो, वह कुछ भी हो लेकिन मनुष्य तो कत्तई नहीं हो सकता है। आज कोरोना महामारी ने जिस तरह से हमारे देश में तबाही मचा रखी है, उसमें किसी की मृत्यु,किसी की पीड़ा पर आपको दुःख नहीं हो रहा है, तो निश्चित ही आप अमानवीय हो रहे हैं। जब देश में चारों ओर कोहराम मचा है, प्रतिदिन चार लाख से भी अधिक लोग (जो एक दि...
नियति
लघुकथा

नियति

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** गीता बाहर खड़ी आँसू बहा रही थी। सभी उसे मूक दर्शक बने निहार रहे थे। तभी एक कटु आवाज ने जैसे सारा सन्नाटा भंग कर दिया था।गीता, गीता अन्दर आ जाओ, वरना मुझसे बुरा कोई ना होगा। लोकेश उसे खींचते हुए अन्दर ले गया। और जमीन पर पटकते हुए उसे पीटने लगा। बाहर सिर्फ गली-गलोज और चिल्लाने की आवाज आ रही थी। अब तो यह हर रोज का काम हो गया था। पहले छोटी-छोटी बातों पर कह-सुनी होती, फिर हाथापाई होती। बीस साल पहले जब गीता विवाह करके इस घर में आई थी। तब किसने सोचा था कि यह रिश्ता इतना उलझ जाएगा? लोकेश को शराब पीने की बुरी लत तो शादी से पहले ही थी। पर शादी के बाद तो वह पूरी तरह से इस में डूबता जा रहा था। माता-पिता के समझाने का उस पर कोई असर नहीं होता था। वह अपने परिवार की एक नहीं सुनता था। जब भी कोई उसे समझाने की कोशिश करता, वह चुपचाप सुन लेता। गीता का पत्न...
मंदाकिनी
लघुकथा

मंदाकिनी

सीमा गर्ग "मंजरी" मेरठ कैंट (उत्तर प्रदेश) ******************** अस्पताल के कमरे में प्रसव पीड़ा से मुक्ति प्रयत्न हेतु रीमा चिकित्सक की सलाह से टहल रही थी। प्रसव पीड़ा बढती जा रही थी। उसका पति समीर कभी कमर सहलाता तो कभी सिर अपने कन्धे पर रख मन बहलाने के लिए कोई चुटकुला छोड देता। तभी नर्स ने रीमा को प्रसूति कक्ष में ले लिया। बेचैन समीर बाहर चक्कर लगाते हुए सोचने लगा। वे दोनों अपने गाँव से बाहर शहर में नौकरी पर आये थे। यूँ तो रीमा ने सासूमाँ को फोन कर दिया। परन्तु उनको गाँव से पहुँचने में थोड़ा सा टाइम तो लगना ही था। उनके गाँव में नवरात्रि उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। पिछली बार नवरात्रि पर समीर भी छुट्टी लेकर रीमा को साथ ले दस बारह दिन माता पिता के पास रह कर आया था। नवरात्रि उत्सव में मातारानी की अलौकिक वात्सलयमयी छवि रीमा के हृदय में अंकित हो गयी थी। मातारानी की दिव्य शक्ति करूणा की ...
आंखें … एक ऐतिहासिक कहानी
कहानी

आंखें … एक ऐतिहासिक कहानी

सुधा गोयल बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश) ******************** शाम का धुंधलका फैलने में अभी देर थी। पवन में हलकी सी सरसराहट थी। पक्षी उद्यान में क्रीड़ारत थे। सरोवर के स्वच्छ जल में अस्ताचलगामी सूर्य का प्रतिबिंब किसी चपल बालक की तरह अठखेलियां कर रहा था। कमल हंस रहे थे। मोर नाच रहे थे। सुगंधित समीर उड़कर गवाक्ष में एकाकी, मौन, शून्य में निहारती महादेवी तिष्यरक्षिता की अलकों से अठखेलियां कर रहा था। परंतु वह इस समय इस सबसे बेखबर अपने ही विचारों में खोई थी। उनके रुप माधुर्य की आभा तिरोहित होते सूर्य की रश्मियों के साथ मिलकर दुगुनी हो गई थी। प्राकृतिक दृश्य पावक बनकर महादेवी के तन-मन को प्रज्वलित करने लगे थे। जब शाम अपने डैने फैलाए राजमहल की प्राचीरों पर उतरती तब महादेवी का मन उदास हो जाता। और सम्राट अशोक का इंतजार करते-करते वे कमलिनी सी मुरझा जाती। श्रृंगार ज्योति विहीन हो जाता। काम की दारुण ज्व...
परिवर्तन
कहानी

परिवर्तन

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** "शरीर मिट्टी में शामिल हो मिट्टी का पुनर्निर्माण कर देता है, फिर क्या है जो मरता है? ये दिल इतना शोर क्यों करता है। किसी के जाने से असह्रा दर्द क्यों और कहां से आता है? खुद को समाप्त करते ही उनकी यादें भी खत्म हो जाएंगी और बेकाबू रुदन से जिंदा रहा नहीं जाता।" दर्द के अवसाद में सुबह-शाम डूबी अक्सर मैं अपनी दुनिया अपनी आंखों से निहारती। "इन दिनों प्रकृति जिस तरह अपने अदृश्य पन्नों पर अपने असहज घोटाले की कहानियां लिख रही थी और हम अपने हाथ हाथों में लिए दृष्टा की भांति उसे निहार रहे थे वो बहुत कुछ कह रही थी और बहुत कुछ सिखा भी रही थी।" कभी सोचा ना था दूध की चिंता बिस्तर छोड़ने पर और रोजमर्रा की जरूरतें है दरवाजे से बाहर निकलने पर मजबूर कर देंगी। स्कूल जाते वक्त वो मुझे बस स्टॉप पर छोड़ते और मेरे आने से पहले बस स्टॉप पर गाड़ी लिए...
मजदूर
आलेख

मजदूर

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ******************** हमारे देश में मजदूरों की दशा कभी भी अच्छी नहीं रही। यह अलग बात है कि वर्तमान में सरकारों के द्वारा मजदूरों के लिए काफी कुछ किया गया। लेकिन मजदूरों की दशा में मूलभूत सुधार नहीं हो पाया। आज भी हमारे देश का मजदूर अपने मूलभूत जरूरतों के दल-दल को पार नहीं कर पाया है। मजदूरों की अपनी समस्याएं हैं। परिवार स्वास्थ्य शिक्षा उनकी मूलभूत समस्याएं हैं। जिस पर कार्य किए जाने की जरूरत सभी प्रदेश सरकार व केंद्र सरकार का उत्तरदायित्व है कि मजदूरों के लिए प्रभावी योजनाएं बनाएं और उसका सख्ती से पालन कराएं। सरकारों को यह भी देखना होगा कि उनके द्वारा घोषित योजनाओं का क्रियान्वयन कितना धरातल पर उतर रहा है। कोरोना काल में मजदूरों की जो दुर्दशा हुई है, वे जिस दर्द से गुजरे हैं वह काफी असहनीय और राष्ट्र समाज के शर्मनाक भी है और दर्दनाक भी। ...
मेरा बाप–तेरा बाप
कहानी

मेरा बाप–तेरा बाप

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** ‘मुझे घर जाना होगा I अम्मा कह रहीं थी कल मेरे बाप की तिथि हैं I श्राद्ध करना पड़ेगा I सारा सामान लाना हैं I पंडित को भी बुलाना पड़ेगा I ब्राह्मण भोज होगा I ग्यारह ब्राह्मण ढूंढने हैं I खाने की सारी व्यवस्था करनी हैं I किराना, सब्जी वगैरे, सभी सभी तो खरीदना पड़ेगा I पैसों का इंतजाम करना ही हैं I वह चिंता अलग खाएं जा रही हैं I ‘धनाजी बोला I ‘क्या रे तू .....? अभी तो आया हैं .... एक घूंट भी नहीं गया अंदर अभी .... और अभी से जाने की रट लगा रहा हैं ?’ भिकाजी बोला I ‘कल बाप का श्राद्ध करना हैं I जाना ही पड़ेगा I क्यों रे भीकू तेरे बाप का श्राद्ध कब आता हैं ? ‘धनाजी जाने के लिए खड़ा हो गया I भिकाजी रुआंसा हो गया I उसकी आँखें नम हो गई I धनाजी को दारु का ज्यादा असर नहीं हुआ था I उसे लगा भिकाजी को दारु चढ़ गई हैं , और वह किसी भी क्षण जोर जोर से रोने ...
जिन्दगी का अर्थ समझे
आलेख

जिन्दगी का अर्थ समझे

अमिता मराठे इंदौर (म.प्र.) ******************** सत्य है कि ईश्वर का दिया यह जीवन हर व्यक्ति के लिए किसी आशीर्वाद से कम नहीं। यह एक सुंदर उपहार है। इसे स्वीकार करते हुए बस अपने दम पर जिंदगी को सुकूनभरा बनाते जाएं यह प्रयास हमें ही करना होंगे। इसलिए हमेशा जिंदगी का धन्यवाद करें और उसने जो दिया है उसी में प्रसन्न रहना ही उचित होगा। जीवन अविरल और अविनाशी यात्रा हैं। सृष्टि चक्र के साथ मानव प्राणी भी अपने कर्मों मुताबिक पार्ट करने हेतु साकार शरीर धारण करता है।यह गतिशील चक्र ठीक पांच हजार वर्षों का है। जिसमें मनुष्य प्राणी सिर्फ ८४ जन्म कम या पूरे लेता है। अतः मनुष्य का हर जन्म महत्वपूर्ण हैं। जन्म मृत्यु का चक्र जो समझ लेता है वह अपने भविष्य को सार्थक बनाने में जुट जाता है। ८४ लाख योनी का कोई हिसाब नहीं होता है।यह जीवन रहस्य जो समझे वह प्रति सेकंड का सदुपयोग करता है। वह ईश्वर के प्रति हर जन्म...
हमारा लॉकडाउन
लघुकथा

हमारा लॉकडाउन

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** पूरा शहर बंद हो गया था। पता नहीं महामारी से कब तक देश में लॉकडाउन रहेगा? वर्षा सब कुछ सुन रही थी पर चुप थी। उसका मन तो कर रहा था। इसे आज ही एहसास हुआ है कि लॉक-डाउन सुबह से चालू हो गया हैं। आज से सभी दुकानें बंद रहेगी। स्कूल, कॉलेज बंद रहेंगे।यात्रायात के सभी साधन बंद रहेंगे। घर में किस तरह रहेगा यह, बंद होकर इसकी अय्याशी जो बंद हो जाएगी। रोज की महफिले, वही दारू पीकर तमाशा करना। जिस महफिल में रोज मजा मारता है वह बंद हो जाएगा। कॉलेज भी बंद हो गया है, वह कर रहा था। बेटे की पढ़ाई का क्या होगा? साल खराब हो जाएगा। वर्षा मन ही मन सोच रही थी वैसे कौन सा बेटा पास हो जाएगा? वह भी तो बाप पर ही गया है। किताबे तो उसे हमेशा दुश्मन दिखाई देती है। मैं ही उसकी किताबों को समेटती रहती हूँ। किताबे तो ज्ञान का भंडार होती हैं। ऐसा ही कहते थे मेरे पिताजी। ...
सवेरे-सवेरे
लघुकथा

सवेरे-सवेरे

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** सवेरे-सवेरे पूना से किसी नारायण जी का फोन आया, गिड़गिड़ाते हुऐ बोले- बेटा! वाट्सएप पर किसी ने आपका संदेश फारवर्ड किया है कि आप कोरोना मरीजों को खाना भिजवा रहे हैं, मेरे भाई इन्दौर के 'महक अस्पताल में भरती हैं, अकेले भर्ती हैं, क्या आप उन्हें खाना भिजवा सकते हैं ? मैंने उन्हें आश्वस्त किया तो वे रोने लगे। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ ऐसे लोगों के लिये भोजन बनवाना शुरू किया जो किसी ऐसे अस्पताल में भर्ती हैं, जहाँ चिकित्सा तो हो रही है पर भोजन नहीं मिल रहा। अधिकतर ऐसे मरीज जो अकेले रहते हैं, या पढने या नौकरी के सिलसिले में इन्दौर में रहते हैं। झटपट पूनावाले के बुजुर्ग भाई की सब जिम्मेदारी ले ली। आज वे अस्पताल से डिस्चार्ज हो गये और अपने घर चले गये। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा पंत सेवानिवृत : शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय भोपाल नि...
फिजुल ख़र्च
लघुकथा

फिजुल ख़र्च

ममता रथ रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** मां- "बेटा पंडित जी को ५०० रु. देना, तुम्हारे नाम से ज्योत जला देंगे।" दीपक पंडित जी को ५०० रु. बेमन से दे देता है। पंडित जी के जाने के बाद दीपक मां से- ये क्या मां आजकल तुम बहुत फिजुल ख़र्च करने लगी हो, कभी यहां दान करो, कभी गौशाला के लिए चारा दे आओ, कभी पंडित जी को दान, हर साल आज के दिन मंदिर में ज्योत जलाना, ये सब क्या है मां बहुत खर्च हो रहा है कुछ कम करो।" ऐसा कहकर दीपक चला गया, मां ने कुछ नहीं कहा, ऐसे भी मां कहां कुछ कहती हैं, फिर आज तो दीपक का जन्म दिन है। रात होते तक घर में दीपक के दोस्तों की महफ़िल सज़ चुकी थी, जहां महंगें शराब का दौर चल रहा था। जुए पर दांव भी लगाएं जा रहें थे, भले ही शौक के लिए खेला जा रहा था पर सब खेल रहे थे। मां अपने कमरे में बैठकर सोच रही थी कि फिजुल ख़र्च कहां हो रहा है। परिचय :-  ममता रथ पिता : विद्या भूष...
मासूमियत
लघुकथा

मासूमियत

माधवी तारे इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************   'वक्त की कैद में जिंदगियाँ हैं, मगर चंद घड़ियाँ हम सब सब्र करें, प्राण वायु की आपूर्ति के लिए तो कम से कम।' संपूर्ण विश्व की त्रासदी से हम सब वाकिफ हैं। एक अनाहत भय से हर शख्स परेशान सा है। बच्चें, बूढ़े एवं युवा सब-के-सब आज की स्थिति का गुनहगार स्वयं को मान रहे हैं। स्वार्थांध होकर मानव ने प्रकृति के साथ की हुई ज्यादतियां या खिलवाड़ का नतीजा वर्तमान स्थिति में कैसा भारी पड़ रहा है, सब देख रहे हैं, मान भी रहे हैं। 'वनराजी, वृक्षबेलियाँ हमारे सगे-संबंधियों जैसी है', यह हमारे देश की परंपरा युगों-युगों से चली आ रही है। ऐसे में एक घर की बुजुर्ग महिला सुबह-सुबह उठकर, नहा-धोकर, पुजा की थाल हाथ में लेकर जंगल की ओर निकल पड़ती है। दरवाजे की आहट सुनकर उसका छोटा पोता उठकर, "दादी माँ, रुको। मैं भी आपके साथ जंगल की और आता हूँ," कहकर जल्दी से ह...
तेजू की धुन
लघुकथा

तेजू की धुन

अमिता मराठे इंदौर (म.प्र.) ******************** लंबे इंतजार के बाद वातावरण बदलने लगा था। महामारी और लाॅकडाउन से लोगों को निजात मिलने लगी थी। रामबाबू भी अपने रूकें कामों को पूरा करने में जुट गये थे। स्कूल के पट खुलने लगे थे। सबके कारोबार गति पकड़ ही रही थी, तो कोरोना की दूसरी लहर बेभान हो उछाले मारने लगी। तेजू अपनी झोपड़ी के बाहर टूटी सी खटिया पर बैठे कभी मुस्कुराता तो कभी गंभीर चेहरा बनाये टेढ़े बांके हाथ किये कुछ बड़बड़ाता था।आते जाते लोग कहते विक्षिप्त है। बच्चे उसकी पीठ पर मारते तो कोई खाने की चीज उसके सामने डाल देते थे। उसे महामारी से कोई सरोकार नहीं था, लेकिन चौकस रहता था। लोगों की भेंट की चीजें लेते समय कहता 'जागते रहो, अरे! पगले भला हो कहते हैं। राम बाबू हमेशा उसे टोकते किन्तु तेजू ने अपनी चाल नहीं बदली। राम बाबू की समाज सेवा में तेजू और उसकी माँ को प्राथमिकता थी। उन्हें तेजू से प्...