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लघुकथा

उतरन
लघुकथा

उतरन

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** देवकी सुनो, जी दीदी चलो मेरी मदद करो। दीपावली की साफ सफाई करनी में, चलो पहले मेरा कमरा साफ करते हैं। ऐसा करो मेरी अलमारी पहले साफ कर दो। अलमारी के सारे कपड़े निकाल लो, और जो पुराने हैं उन्हें अलग रखना, और जो नये हैं उन्हें अलग। फिर आवाज आई, देवकी देख तो यह सलवार सूट कितना सुंदर है? हाँ दीदी बहुत सुंदर है। तो ऐसा कर इसे अपनी बेटी ममता के लिए ले जा। इसे पहनकर ममता बहुत सुंदर लगेगी। और यह उसे  आ भी जाएगा। मैं तो केवल एक-दो बार ही पहनीं हूं। दीदी पर अरे ! पर वर कुछ नहीं, प्यार से दे रही हूं ना तो रख ले। यह  बात नहीं  है दीदी, मैं तो आपकी दी हुई हर साड़ी पहन लेती हूं, कभी मना नहीं करती। पर अपनी बेटी को उतरे हुए कपड़े नहीं पहनाऊंगी दीदी। देवकी के मुंह से यह बात सुनकर प्रभा के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। . परिचय :- श्रीमती शोभारानी तिवा...
परवरिश
लघुकथा

परवरिश

केशी गुप्ता (दिल्ली) ********************** कॉफी हाउस से गुस्से में उठ स्नेहल बदहवास सी बिना रुके चलती ही जा रही थी स्वाति ने आवाज दी स्नेहल रुक जाओ मगर स्नेहल अनसुना कर वहां से निकल गई उसे मंजिल की खबर नहीं थी। ना जाने वह किस बात की सजा खुद को दे रही थी? आनंद और स्वाति कुछ ना कर सके। स्नेहिल जिंदगी से खफा थी सब कुछ होते हुए भी जिंदगी में कड़वाहट थी। मां बाप के बीच की दूरी ने उसके अंदर एक अजब अहसास पैदा कर दिया था। जाने अनजाने कब वह दोनों से दूर हो गई पता ही नहीं चला। स्वाति ने स्नेहल के पैदा होने पर अपनी दुनिया को बहुत छोटा कर लिया था। उठते बैठते उसे सिर्फ और सिर्फ स्नेहल का ख्याल था। जी जान से उसकी परवरिश में खो गई यहां तक कि नौकरी भी छोड़ दी मगर फिर भी स्नेहल को बांध ना सकी। बच्चों की परवरिश में कितना ही समय दो मगर बात फिर वही जन्मों के संबंधों और किस्मत के लिखे पर आ जाती है, चाहे अनचा...
बुढापे की लाठी
लघुकथा

बुढापे की लाठी

रीतु देवी "प्रज्ञा" (दरभंगा बिहार) ******************** शंभु जी और उनकी पत्नी बहुत खुश है। उनका बेटा संजय उनके दिए संस्कारों तले बड़ा हुआ है। परिवार में भी सबका सम्मान करता है। समाज, देश का सच्चे नागरिक की तरह सभी जरूरतमंदों की सहायता करता है। जिला अधिक्षक होते हुए भी शंभू जी की बीमारी की खबर सुनकर घर आया है। "पापा आपकी तबियत कैसी है? आप और माँ मेरे साथ चलिए।" संजय बोला। "मैं स्वस्थ हूँ। तुम चिन्ता मत करो। तुम अपनी ड्यूटी पर ध्यान दो। हमलोग यहाँ बिल्कुल ठीक हैं।" शंभू जी बोले। "नहीं पापा, अब आप लोग यहाँ नहीं रहेंगे। यहाँ आप लोगों का ध्यान रखने वाला कोई नहीं है। आप लोग मेरे साथ रहेंगे ...........मुझे खुशी मिलेगी। "संजय बोला। दोनों खुशी-खुशी संजय के साथ चल दिए। मन ही मन संजय को ढेरों आशीष दे रहे हैं। वह उनके अपेक्षा पर खड़ा उतरकर बुढापे की लाठी बना है।   परिचय :-  रीतु देवी (शिक्षिका...
अंतर्द्वंद
लघुकथा

अंतर्द्वंद

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** बहुत दिनों बाद बचपन की सहेली रीना से मिलने के लिए मैं अति उत्साहित थी। और इसी खुशी में पूरी रात जगी रह गयी। गुज़रे दिनों की सारी बातें चलचित्र की तरह मानस पटल पर चल रही थीं। महाविद्यालय की वो शांत सी बाला जब काफी अरसे बाद फेसबुक पर दिखी तो पहचानने में बिलकुल वक्त नहीं लगा मुझे। और फिर फोन ने तो वर्षों की दूरियों को पल भर में घनिष्ठ कर दिया। जब भी बात होती रीना की खनकती आवाज उससे मिलने की इच्छा और बढ़ा देती। मिलने की व्यग्रता में अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से समय निकाल कर मैं उसके गाँव पहुँच गई। गांव का खुले आंगन वाला घर कितना साफ और सलीके से सुसज्जित था। आखिर रहता भी क्यों न इस घर की मालकिन सुशिक्षित सौम्य महिला जो थी। रीना की सारी पड़ोसन मुझसे मिलने आ गयी थीं। ऐसा लग रहा था मैं सिर्फ रीना की सहेली नहीं उन सभी की रिश्तेदार हूँ। इस अपनापन ने भावा...
माँ से मिलना है …
लघुकथा

माँ से मिलना है …

नफे सिंह योगी मालड़ा सराय, महेंद्रगढ़ (हरि) ******************** आज सुबह-सुबह दोस्त के यहाँ चंडीगढ़ गृह प्रवेश हवन पूजा के लिए जाते समय अचानक रास्ते में कार का टायर पंचर होने पर ड्राइवर ने कहा सर! टायर बदली करने में थोड़ा समय लगेगा। मैंने खिड़की खोली और बाहर निकला तो देखा कि...एक बूढ़ी अम्माँ गेट पर खड़ी-खड़ी अपने थूक से पल्लू को गिला करके चश्मा पौंछ-पौंछकर मुझे बार-बार ऐसे निहार रही थी जैसे कोई उम्र कैद की सजा पाया हुआ कैदी किसी के आने का इंतजार कर रहा हो और फिर एक हाथ से इशारा करके मुझे बुलाने लगी। मैंने ड्राइवर से कहा कि....तुम टायर बदली करो मैं आता हूँ। जब मैं थोड़ा नजदीक पहुँचा तो बूढ़ी अम्मा ने वापस जाने का इशारा कर दिया। मैं समझ नहीं पाया ... मेरे पैर जाने को कह रहे थे पर मन बूढ़ी अम्माँ के वापस लौटने के इशारे पर काम कर रहा था। मैंने पैरों की भाषा को पहचाना और बुढ़ी अम्माँ के पास...
निंदाई में पनपा प्रेम
लघुकथा

निंदाई में पनपा प्रेम

प्रिन्शु लोकेश तिवारी रीवा (म.प्र.) ******************** खेतों में चल रही निदाई कि निगरानी के लिए हमें घर से दोपहर ११ के आस पास बजे खेदा गया आज एक अद्वितीय प्रेमी से भेट होगी हमने यह सोचा भी नहीं। घर से ५ सेर पानी और आधा सेर गुड़ लेकर चला और नदी पार खेतों तक पहुच कर निंदाई कर रही मजदूरनी को पानी और गुड़ थमाया फिर निंदाई से उखड़े खरपतवार उठा-उठा कर मेड़ पर रखने लगा मेघों कि कृपा विशेष रही उनके रिमझिम करने से काम में थकान नहीं हो रही । लगभग आधे घंटे के बाद कुछ खेतों आगे एक कृष्णवरण का जवान युवक लगभग ७-८ माह के बच्चे को सिर पर बिठाकर कुछ गीत गुनगुनाते हुए सीधे आ रहा। मैने पास निंदाई कर रही औरतों से उसके बार में पुछा तो एक अधेड़ औरत बोली मेरा लडका है और इसका पति (बगल खड़ी औरत को छू कर)। मैं झुक कर अपने काम में बारिश कि बूदें थोड़ी तेजी से और व्यक्ति छाता लगाकर खेत तक अलौकि...
महत्वाकांक्षा
लघुकथा

महत्वाकांक्षा

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** अपने आंसू पोछते हुए शालू समझ नही पा रही थी इस परिस्थिति के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। शिक्षित परिवार की शालू सर्व गुण संपन्न थी। मायके और ससुराल दोनों ही परिवार में प्रिय थी। इकलौता बेटा तरूण की परवरिश भी ऐसे किया कि लोग बाग तारीफ करते न थकते थे। संस्कार और उच्च सामाजिक मापदंड दोनों ही कड़ियों का पालन हो रहा था बेटे के परवरिश में। फिर कहां चूक रह गई । संदीप के बार बार समझाने पर भी शालू के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे कल रात जब बेटे का फोन आया था - "माँ आपको पोता हुआ है और साथ में हमें यहाँ की नागरिकता भी मिल गयी। "आपकी मेहनत ही रंग लायी है माँ जो आज मैं ये सब हासिल कर पाया हूँ। शालू के दिल दिमाग में इक ही बात घुमड़ रही थी - ये सपना तो कभी न था मेरा कि बेटा अपनी मिट्टी छोड़ कर विदेशी बन जाये। उसने तो विदेश में शिक्षा दिलवाने का कदम इस...
अधूरा  पात्र
लघुकथा

अधूरा पात्र

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** निशा बालकनी मे खडी़ दूर क्षितिज मे आँखे गडा़ये बिचार मग्न थी। उसके हाथ मे एक कागज का टुकड़ा था, शायद किसी का पत्र। उसमे लिखे शब्द उसके मन मस्तिष्क को झकझोर रहे थे, वह जबाब देना चाह रही थी,पर समझ नही पा रही थी कैसे? क्या कहूँ? क्या सम्बोधन करूँ? प्रिय? नही प्रिय होता तो जीवन को अप्रिय न बना देता। मित्र? नही, मित्र तो सुख दुख का साथी होता है, चोट लगने पर वह तिलमिला जाता है स्वयं चोट नही देता। तो क्या सम्बोधन करूँ? अनजान? पर अनजान भी तो नही है। फिर? फिर क्या, बगैर किसी सम्बोधन के ही अपने प्रश्न पूछती हूँ। जिनका सटीक उत्तर उसे देना होगा। पर क्या दे सकेगा वह मेरे प्रश्नों का उत्तर? उसके पास होगा मेरे अनुत्तरित प्रश्नों का हल? शायद, शायद वह जबाब दे, शायद मिल जाये मुझे मेरे जबाब। दे सकोगे मेरे प्रश्नों का उत्तर? लौटा सकोगे वह पल, वह सुहानी शाम, वह गुन...
गरीबी पर चोट
लघुकथा

गरीबी पर चोट

सुरेखा सुनील दत्त शर्मा बेगम बाग (मेरठ) ********************** आज सुबह और दिनों की तरह ही अपने काम में लगी रही, वक्त इतनी तेजी से बीत रहा था कि पता ही नहीं चला, कब ११:०० बज गए, अचानक घर के बाहर एक ठेले वाले की आवाज आई, जो बहुत सस्ते दामों में घर के काम का सामान बेच रहा था, हम कई महिलाएं अपने अपने घर से उसकी आवाज सुनकर बाहर निकल गई, और सामान खरीदने लगी। तभी मेरी नजर मिसेज मित्तल पर पड़ी वह सामान खरीदते हुए कुछ छोटी-छोटी चीजें अपने हाथ में छुपा लेती थी, और अपनी कनखियों से देखती थी कि किसी ने देखा तो नहीं। मैंने देख कर भी अनदेखा कर दिया, सभी लोग सामान लेकर अपने अपने घर को चले गए! तब मैंने ठेले वाले भैया से कहा की अगर ऐसे ही समान बेचोगे तो तुम्हें घाटा होता रहेगा, थोड़ा सा अपनी आंखें खोल कर भी देख लिया करो कि कोई सामान तो नहीं उठा रहा। वह बिना कुछ कहे मुस्कुरा दिया और चला गया। अगली बार फिर वह...
संस्कार
लघुकथा

संस्कार

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** दीदी आप भजन गाइये ना, कितना अच्छा गाती है'। सरला जी उसे देख मुस्कुराई कुछ बोली नहीं। वह अभी इस शहर में नई नई आई थी। धीरे धीरे पास पड़ोस से परिचित हो रही थी। सामूहिक मायका और सामूहिक ससुराल परिवार की आदी, वह सभी को अपने घर जैसा मानती थी। कभी भजन कभी कथा कभी कुछ और कार्यक्रम में आपस में मिलने लगे। उसको सभी के साथ मिलकर अच्छा लगा और सभी ने प्यार से उसे अपनाया। उसकी उम्र से बड़ी कई महिलाएं थी, वह उनका सम्मान करती थी। ऐसे ही स्वभानुसार उसने आज भी कह दिया चलिए दीदी आप सब आज हमारे यहां चाय बनाती हूं। आप सभी का आना नहीं हुआ अब तक। एक दो छोटी थी वह कुछ नहीं बोली, लेकिन जिन्हें दीदी कहकर सम्बोधित किया, वह एकदम तमतमा गई और बोली__ 'यहां दीदी कोई नहीं सबका नाम लेकर बुलाया कीजिए'। हम बुढ़ा नहीं गये है। वह हतप्रभ थी की बड़े लोग प्यार और सम...
सब्ज़ी मेकर
लघुकथा

सब्ज़ी मेकर

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) ****************** इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!” सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…” उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।” लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराह...
सफाई अभियान
लघुकथा

सफाई अभियान

सुरेश सौरभ निर्मल नगर लखीमपुर खीरी ********************** वह लड़का कंधे पर बोरी लटकाए कूड़ा बीन रहा था, तभी उसके सामने एक लग्जरी गाड़ी आकर रुकी। उसका दिल बैठने लगा। गाड़ी में कुछ सूट-बूट वाले बाबू लोग बैठे थे। उनमें से एक बाबूजी बाहर निकले और लड़के से बोले-ऐ! लड़के इधर आ। लड़का डरता हुआ बाबूजी के करीब आया । उसकी बोरी की ओर इशारा करके थोड़ा ऐंठ कर-ऐ! लड़के, ये बोरी १०० रुपए की देगा। लड़का सकते में आ गया। बीस-तीस रुपए बोरी बिकने वाले कूड़ा को कोई सौ रूपए की मांग रहा है, यह सोच वह हैरत में था, फिर भी थोड़ा हिम्मत जुटा कर बाबू जी से बोला-साहब दो सौ लगेंगे। "ठीक है। ये पकड़ दो सौ, पीछे डिग्गी में डाल दे। "कूड़े की बोरी डिग्गी में पहुंच गई। दो सौ रुपए पाकर उसकी बांछें खिल गईं। बाबू लोग फुर्र से उड़ गए। उन बाबूओं ने अपने कार्यालय पहुंच कर बड़े साहब से कहा-काम हो गया।तब बड़े साहब बहुत खुश ह...
लोकतन्त्र की मार
लघुकथा

लोकतन्त्र की मार

केशी गुप्ता (दिल्ली) ********************** कैसे है मुहम्मद भाई? शर्मा जी ने दूर ही से आवाज लगाई। शुक्र है खुदा का भाई जान मुहम्मद भाई मुस्कुराते हुए बोले। बहुत अरसे से मुहम्मद भाई और शर्मा जी एक ही महौल्ले में रहते थे दोनों में अच्छी जान पहचान थी। गली से गुजरते दुआ सलाम होती ही थी . क्या खबर छपी है ? आज पेपर में शर्मा जी ने पूछा . भाई जान अब कहां कुछ खबर छपती है हर तरफ हाहाकार फैली है मगर मीडिया बिकाऊ हो चला है . सही कह रहे है आप . लोकतन्त्र सिर्फ नाम भर का है . जाने लोग किस ओर जा रहा है . राजनीति का स्तर गिर गया है. उठने वाली हर आवाज को दबा दिया जाता है . ईश्वर नेक राह दिखाए. आमीन मुहम्मद मुस्कुरा उठे. शर्मा जी गली से निकल गए , आज उन्हे अपनी बेटी के ससुराल जाना था शादि का कार्ड देने .शादि की तारिख पास आ चूकी थी , उसी सिलसिले में बाजार से कुछ सामान लेने निकले थे . बैंकों में पैसा होते हु...
अधिकारी दामाद
लघुकथा

अधिकारी दामाद

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** प्रिया बैठक में गुमसुम बैठी थी, उसे पता नहीं चल रहा था - रंजन से कैसे जिक्र करे माँ के आने का। क्या शादी के समय हुई घटनाओं को भूलकर सहजता से व्यवहार कर पायेगा रंजन माँ के साथ। माँ की सोच भी तो कुछ गलत नहीं थीं अपनी बेटी के लिए अपने सामाजिक स्तर का ही दामाद चाहतीं थीं। सरकारी अफसर की बेटी का हाथ अपने भविष्य निर्माण में लगे निजी संस्था के कर्मचारी के हाथ में कैसे दे देतीं। अब ये अलग बात थी कि रंजन की पारिवारिक स्थिति से प्रभावित होकर दोनों के दिल में प्यार के बीज माँ ने ही डाले थे। प्रिया के पापा रंजन के ही घर की गली में आलीशान मकान खरीदे और पूरे परिवार को स्थायी रूप से रखकर अपने कार्य स्थल पर चले गए। रंजन के पापा भी उच्च पदासीन पदाधिकारी,बड़े भाई शहर के नामी चिकित्सक। उनका मकान भी कुछ कम आलीशान नहीं था। उसमें सोने पर सुहागा ये कि जात बिरादरी ...
मानव-मूल्य
लघुकथा

मानव-मूल्य

********* डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था। उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?" चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?" आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी। "ओह! ...
उड़नखटोला
लघुकथा

उड़नखटोला

********** नीरजा कृष्णा पटना 'ये रूपा अभी तक बिस्तर तोड़ रही है, नौ बज रहा है। इस तरह पड़े रह कर तो ये लड़की कभी भी जिम्मेदारी नहीं सीख पाएगी' ना चाहते हुए भी आनन्द बाबू की आवाज़ काफ़ी तल्ख हो गई। 'ज़रा धीमे बोलिए ना! बच्ची है, सब सीख जाएगी! कितनी प्यारी सुन्दर हैं अपनी रूपा! देख लेना, एक दिन कोई राजकुमार आकर मेरी फूल सी बच्ची को उड़नखटोले पर बैठा कर ले जाएगा" अब तो सहनशक्ति जवाब दे गई उनकी, "शीला! कौन से जमाने में रह रही हो? अब ना कोई राजकुमार आएगा, ना कोई उड़नखटोला आएगा, बेटा बेटी सब बराबर होते है, अच्छी शिक्षा दो, हर क्षेत्र में यथासंभव काबिल बनाओ...यही आज के युग की माँग है।" पति की बातें सुन कर वो बहुत सोच में पड़ गई .... 'क्या सचमुच उनकी प्यारी गुड़िया के लिए कोई राजकुमार उड़नखटोले पर नहीं आएगा? क्या सचमुच उनकी रूपा के असीम रूप का कोई मूल्य नहीं है? सोचते सोचते उनको ध्यान आ गया पडौस...
वेणी वाली दुर्गा
लघुकथा

वेणी वाली दुर्गा

********** स्वाति जोशी पुणे देवी मंदिर के आहते में सजी छोटी सी दुकान पर स्मिता सामान ले रही थी। हार, फूल, नारियल,धूप, कपूर, प्रसाद सब ले लिया था, तभी वहाँ रखी लाल रंग की जरी बाॅर्डर की साडी पर उसकी नज़र पडी, कुछ कहने के लिये मुडी, तो देखा पति सतीश दुकान के बाहर कुछ दूरी पर मोबाईल में सिर गडाये खडा था। वहीं से आवाज़ देकर स्मिता ने पूछा, 'ये साडी भी ले लूं देवी माँ के लिये?' 'हाँ,हाँ ले लो’ सतीश ने सिर हिला कर सहमति दी। 'ये औरतें भी ना... एक तो नवरात्रि में भीड़-भाड़ में इनके साथ मंदिर चलो, और फिर, 'ये भी ले लूंँ?, वो भी ले लूँ?''... सतीश मन ही मन बुदबुदाया..मगर पत्नी से कुछ भी कहने के बजाय, हाँ कहना उसे ज्यादा आसान लगा। वैसे भी मंदिर में चारों तरफ लोग ही लोग थे, जहां जगह मिली वहाँ छोटी छोटी दुकानें भी लगा रखी थीं हार- फूल, नारियल वालों ने, कमाई का सीज़न था उनका! उपर से बारिश की चिक-चिक......
दोस्त की पहचान
लघुकथा

दोस्त की पहचान

*********** केशी गुप्ता (दिल्ली) राम और श्याम दोनो बहुत ही गहरे मित्र थे .  उनकी मित्रता बचपन की थी, साथ खेले और साथ ही बड़े हुए . बारवीं की  परिक्षा खत्म हो चुकी थी .  विध्यालय की शिक्षा के पश्चात अब आगे विश्व विध्यालय में जाने का समय था .  अन्य विधायर्थियों की भातिं ये दोनों मित्र भी इसी चिंता में थे कि आगे क्या और कैसे किया जाए  . राम जहां  पढ़ाई में ठीक सा था तो श्याम सदैव कक्षा में अवल  स्थान प्राप्त करता था .   दोनो के परिवारों में रहन -सहन  की भी अन्तर था .  परन्तु इन सब अन्तर के बावजूद दोनों में अटूट मित्रता रही .  विध्यालय के परिणीम स्वरूप दोनों को अलग अलग विश्व विध्यालय में दाखिला मिला .  वह दोनो ही अपनी अपनी दिन चर्या और पढ़ाई में व्यस्त हो गए . अब वह कभी-कभार ही मिल पाते और  पिछले समय को याद करते . फिर एक दिन राम ने अपने जन्मदिन की पार्टि रखी और अपने सभी नए पूराने दोस्तो ते अम...
बर्ताव
लघुकथा

बर्ताव

अविनाश अग्निहोत्री इंदौर म.प्र. ******************** राजेश के ड्राइवर पिता को जब उसके मालिक के बच्चे भी नाम से ही पुकारते।तो यह बात राजेश को बड़ी बुरी लगती।वो सोचता कि आज भले वो गरीब है।पर एक दिन उसके पास भी यही शानो शौकत होगी।तब उसके पिता के नाम को भी सब अदब से लिया करेंगे।उसके बाल मन का ये विचार बड़ा होते होते दृढ़ संकल्प बन गया।और अपनी अच्छी पढ़ाई और आरक्षण के फायदे के चलते,आज वो भी एक बड़ा अधिकारी बन चुका है।अब उसके पास भी रसूख के साथ वो सब है।जिसकी कभी बचपन मे उसने कल्पना की थी।आज उसके साथ उसके पूरे परिवार को भी उसकी इस तरक्की पर नाज है।पर अब वो भी अपने पिता की उम्र के, अपने ड्राइवर व माली आदि नोकरो को उनका नाम लेकर ही पुकारता है।और जरा जरा सी भूलो पर सबके सामने उन्हें फटकारने में अपनी शान समझता है।जो आज उसके नोकरो के बच्चों को भी वैसे ही बुरा लगता है।जैसे कभी उसे लगता था।पर आज शायद रा...
हिचकिचाहट
लघुकथा

हिचकिचाहट

*********** केशी गुप्ता (दिल्ली) संजय और नीलम रिश्ते में यूं तो एक दूसरे के कुछ नही लगते थे, पर एक ही बिरदारी से थे . बस इसी नाते आपस में जान पहचान थी . फिर एक बार किसी करीबी रिश्तेदार के यंहा, उनके बेटे की शादि में नीलम का जाना हुआ . इतफाक से वंहा संजय भी आया हुआ था . शादि से पहले की भी कई रस्में होती है, जैसे महंदी, सगन इत्यादि .  बाहर से आने वाले सभी अतिथी तीन , चार दिन का प्रोग्राम बना कर आए हुए थे . नीलम और संजय भी चार दिन के लिए दिल्ली से जयपूर पहुंचे थे . एक ही शहर के होने के बावजूद भी कभी दोनों का आमना सामना नही हुआ, पर यहां शादि के इन चार दिनों में वह एक दूसरे के बेहद करीब आ गए . दोनों को यूं लग रहा था जैसे वह एक दूसरे को बहुत पहले से जानते और समझते है .  चार दिन का समय अच्छे से गुजर गया . वक्त का पता ही नही चला फिर वापसी की उड़ान भरने का समय आ गया . दोनो ने एक दूसरे का नम्बर लेत...
एक पौधा बगिया का
लघुकथा

एक पौधा बगिया का

पवन मकवाना (हिंदी रक्षक) इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** आज सुबह बहुत दिनों के बाद परिवार के सभी सदस्य बागीचे में साथ बैठकर धुप सेंक रहे थे ... तभी बबली भी बिस्तर से उठकर अपने बाबूजी की गोद में आ बैठी .... हंसी ठिठोलियों का दौर चल रहा था की बबली को देख काकी बोल उठी ... अरे बबली अब उठी हो सोकर ... इतनी देर कोई सोता है भला ... कल ससुराल जाओगी तो वंहा यह सब नहीं चलने वाला ... दादी ने भी काकी की बात का समर्थन किया ... मै नहीं जाउंगी कोई ससुराल-वसुराल, यहीं रहूंगी अपने माँ-बाबूजी के पास ... आप सब के बिना मै वहां कैसे रहूंगी ... क्या आप मेरे बिना रह सकते हैं ... संसार की रीत है ये सबको जाना होता है रुंआसी होकर काकी बोल पड़ी ... तभी बाबूजी ने बबली से कहा अरे बबली तुमने जो पौधा पीपल के नीचे लगाया था उसे खाद पानी दिया या नहीं चलो देखें क्या हाल है उसके और दोनों पौधे के पास जा पहुंचे और ...
वो नहीं आई
लघुकथा

वो नहीं आई

********** शिवम यादव ''आशा'' (कानपुर) उस दिन अनु बिल्कुल निढाल सा हो गया था जबकि इतनी खूबसूरत शाम का सुहाना सा मौसम था जिसे देखकर किसी का भी मन मोह जाता और खुद को वहाँ रोके बिना नहीं जा पा रहा था लेकिन अनु अब भी एक टक उसी राह पर अपनी नजरें गढाए हुए बैठा था, जिस तरफ कोमल सिसकती हुई तेज कदमों से चली गई थी, हल्की हल्की बूँदें फ़ुहार नुमा आसमान से गिर रहीं थी जो बूँदें अब पानी बनकर अनु के बालों से खेलती हुई उसके रेगिस्तान की तरह सूखे और लालमा से भरे हुए गालों पर दस्तक देने ही वाली थी कि अनु ने एकदम से हाथ से पानी को हटाया और नदी के पानी की तरफ़ देखकर फ़िर से पिछली मुद्रा में लीन हो गया,क्योंकि अनु को भरोसा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास था कि कोमल मुझे छोड़कर नहीं जा सकती और फ़िर इस स्थिति में तो बिल्कुल भी नहीं कि जब मैं उससे कह चुका हूँ, कि कोमल तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी पूर...
पहचान
लघुकथा

पहचान

*********** केशी गुप्ता (दिल्ली) सुहासनी  प्रातः चार बजे ही उठ गई  .  आज उन्हे मां का नाम लिखवाने पेहोवा जो जाना था . महीना भर हुआ मां का स्वर्गवास हुए .   यूं तो कई रातों से वह ठीक से सो नही पा रही थी .   उसका अपनी मां से रिश्ता ही बहुत गहरा था .  मगर संसार का अपना नियम है .  एक वक्त पर  अनचाहे वो व्यक्ति भी चला जाता है , जिसके बिना आपको लगता है जीना मुशिकल है .  पापा और मोहन जो उसके मामा का लड़का है ने पेहोवा जो कुूरूक्षेत्र के नजदीक है,  साथ जाना था .  सुहासनी नहा धोह कर तैयार हो पापा के साथ पेहोवा के लिए निकल पड़ी .  मोहन का घर रास्ते में पडता था , तो उसे ऱास्ते से ही ले लिया . "आदमी चला जाता है और रस्में रह जाती है " सुहासनी ने  भराई हुई आवाज में कहा . मैं तो जाना नही चाहता था , पापा बोले .  हमारे यहां ऐसा कोई रिवाज नही है .  हां मगर पंडित जी ने कहा जाना चाहिए .  पंडित जी जिन्हे मां ...
कनागत
लघुकथा

कनागत

********** वन्दना पुणतांबेकर (इंदौर) आज राम चरण अपनी उम्र को दरकिनार करते हुए।अकेले ही बनारस के घाट तक पहुंचे। बनारस के पास ही गांव में रहते थे। घर में कोई नहीं था। जो उनकी कद्र करें! सभी अपनी-अपनी भागा दौड़ी में लगे हुए थे। किसी को फुर्सत ही नहीं। यही सोच अकेले ७९ वर्ष की उम्र में हिम्मत धरकर निकल पड़े। घाट पर जाकर देखा तो जेब से रुपए कहीं नदारद हो चुके थे। कुर्ते की जेब में सिर्फ कुछ चिल्लर ही खनक रही थी। वह परेशान होकर इधर-उधर देखने लगे।तभी वहां एक भिखारन आई बोली- "बाबा श्राद्ध पक्ष चल रहे हैं, कुछ दान पुण्य कर दो! रामचरण बोले- "बेटा मैं भी यही सोच कर आया था।कि अपने माता-पिता का श्राद्ध कर लू,घर में किसी को फुर्सत ही नहीं, मगर मेरे रुपए गिर गए हैं!,समझ नहीं आ रहा क्या करूं घबराई हुई सी आवाज में वह बोले,"कोई बात नहीं बाबा मुझे तो रोज मिलता रहता है। आप यहीं बैठो मैं आती हूं। करते हुए वह...
विदाई
लघुकथा

विदाई

********** रुचिता नीमा आज आसमान फिर से लालिमा लिये था, बादल किसी भी क्षण बरसने को उत्सुक थे।।। शायद उन्हें भी दर्द हो रहा था सलोनी के अपने माँ , पापा से दूर होने का कहते है विदाई बेटी की होती है, पर यहाँ तो उसकी माँ की विदाई हो गई थी। सलोनी अपने माता पिता की बहुत लाडली सन्तान थी, बचपन से नाज़ो से पली। फिर उसकी शादी भी उसके पिता ने घर के नजदीक ही एक अच्छा लड़का देखकर कर दी कि बेटी को कभी नजरों से दूर नही करेंगे। समीर भी उसे बहुत प्यार से रखता था, सब कुछ अच्छा चल रहा था। लेकिन एक दिन सलोनी की मम्मी को उनके मायके से फोन आया कि सलोनी की नानी बहुत बीमार है, और उनके मामाजी ने नानी जी की बीमारी को देखते हुए अपना ट्रांसफर दूर करवा लिया है, ताकि बीमार नानी की सेवा नही करनी पड़े। लेकिन एक बेटी से माँ का दर्द नही देख गया तो सलोनी की मम्मी को अपना घर छोड़कर उनके मायके कलकत्ता जाकर रहना पड़ रहा है। ...