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पत्र

मेरे जीवन साथी
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मेरे जीवन साथी

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश) ******************** मेरे जीवन साथी, हृदय की गहराईयों में तुम्हारे अहसास की खुशबू समेटे आखिरकार अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा हूँ। यह सही है कि मुझे गुस्सा कुछ अधिक ही आता है, मैं समझता भी हू्ँ, पर क्या करूँ तुम साथ होती तो शायद कुछ बदलाव हो भी जाता, पर ये नापाक पाक के समझ में कहाँ आता है? पाकिस्तान सिर्फ़ हमारे मुल्क का ही नहीं कहीं न कहीं हम दोनों का भी दुश्मन है। वह तो बस जैसे इसी ताक में रहता है कि इधर हम अपनी महरानी के पास पहुंचे और वो बार्डर पर कुछ न कुछ बघेड़ा खड़ा कर दे। हमारा दुर्भाग्य देखो कि जब जब लम्बी छुट्टियां मिली भी, ये नापाक पाक कबाब में हड्डी बन ही जाता है। मगर तुम निराश मत हो, मैं भी अपनी टुकड़ी के साथ सालों की नाक में दम करता रहता हूँ।खैर...छोड़ो। मैं कह नहीं पा रहा हू्ँ फिर भी कोशिश कर रहा हू्ँ। ये अलग बात...
एक पत्र देश के नाम
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एक पत्र देश के नाम

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** एक पत्र देश के नाम २६ मई २०२० इंदौर(म.प्र.) प्रिय देश, सादर नमस्कार🙏🏻 तुम्हारी भूमि में जन्म लेकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम भी मेरे समान आदर्श नागरिक पा कर प्रसन्न होंगे। तुम्हे विदित हो कि इस धरा पर बड़े होते हुए मुझमे तुमसे प्रेम और आत्मीयता अनायास ही सहज रूप से पनप गई है। पिछले दो दशकों में समझ नहीं आता कि तुम्हारे विकास और उन्नति का जश्न मनाऊँ या तुम्हारे मौलिक गुणों के पतन का मातम मनाऊँ। उम्र के हर पड़ाव पर मैंने तुम्हारे साथ परिवर्तन को महसूस किया है। मेरे प्यारे देश तुम्हारा वो समय जब यहाँ की बेटियाँ, लाज शर्म में रहते हुए, बेख़ौफ़ सभी में अपनापन अनुभव किया करती थी। यहाँ के बेटे नैतिक रूप से संबल थे। यहाँ का हर नागरिक आपसी बंधन में मजबूती से बंधा था। भौतिक संसाधनों और सुख-सुविधाओं को पाने की होड में हे ! भारत आज जो तुम्...
बहन की डायरी
डायरी, पत्र

बहन की डायरी

दीपक्रांति पांडेय (रीवा मध्य प्रदेश) ****************** कैसे हो भैया ! मैं तुम्हारी छोटी सी, मोटी सी और शरारती बहन क्रांति, पहचानते हो ना मुझे? मैं वही क्रांति हूं जो आज से १४ वर्ष पूर्व तुम से लड़ती, झगड़ाती थी, तुम्हारे मजबूत कंधों में झूलती थी। आह! कितना मनोरम दृश्य था वह एक कंधे में मैं, दूसरे कंधे में कुंदन और तुम बीच में लोहे के मजबूत झूले की तरह तुम! हम दोनों को गोल मटोल घूमाते थे। क्यों भैया तुम्हें थकान नहीं लगती थी....??? वह बचपन के समस्त आनंद तुम्हारे जाते ही खत्म हो गए, जीवन जैसे निरीह हो गया, घर अब घर नहीं लगता, वहां रहने की इच्छा नहीं पड़ती, घर सिर्फ एक रैन बसेरा हो गया है जहां सब कुछ पल के लिए आते हैं और चले जाते हैं। पता है अब घर में पिता जी, शुभम और कुंदन के अलावा कोई नहीं रहता। वह तीनों भी मजबूरी में रहते हैं उनका भी मन नहीं लगता होगा, लगे भी कैसे वहाँ अब मन लगने ल...