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उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** उस दिन स्कूल में सोनू को मैने बडी शान से कहां, 'आज मैने राम मंदिर में पूजा की।' 'क्यों? उस घर के सब बडे कहां गए?' सोनू ने पूछा। सोनू को भी पता था कि वह घर मेरा नही है।' कितने सारे तो भगवान है वहां मंदिर में? तुमने कैसे की होगी पूजा?' सोनू ने मुझसे पूछा। 'माई बताती गयी और मै करते गया।' 'वो बुढीया तो बहुत ही खूंसट है। तू अनाथ उस घर में आश्रित है। तेरे उपर तो बहुत चिल्लायी होगी? है कि नही?' सोनू के बोलने का तरीका ऐसे ही था और वो बातों-बातों में हमेशा मेरी हालात का मुझे एहसास भी करा ही देता था। 'नहीं ज्यादा नहीं चिल्लायी मेरे उपर।' 'ठीक है।मै तेरी जगह होता तो उस खूंसट की एक भी नहीं सुनता।' 'तूने नहीं की कभी तेरे घर में भगवान की पूजा?'मैने सोनू से पूछा। 'अरे हाट! अपने को नहीं कहता कोई ऐसे फालतू काम। इन्ना ही करती है सब कुछ। मेरे को तो सिर्फ खा...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दिन कैसे जल्दी जल्दी गुजरते रहते हैं इसका हम अंदाज भी नहीं लगा सकते। मैं फिर से जनकगंज में सरकारी प्राथमिक विद्यालय में जाने लगा था। मेरी तीसरी कक्षा की परीक्षाएं ख़त्म हो गयी थी और विशेष यह था कि इतना भटकने के बाद भी मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ था। काकी ने तो पूरे बाड़े में ही पेढ़े बांटे थे। नानाजी ने भी दादा को चिट्ठी लिखकर मेरे पास होने की खबर कर दी थी। दादा का भी नानाजी को जवाब आ गया था जिसके अनुसार हमें ये भी पता पड़ा कि माँजी और सुशीला बाई सिवनी में थी। सुशीलाबाई ने भी अपना त्यागपत्र भेज दिया था पर उस पर फैसला जुलाई महीने में स्कूल खुलने के बाद ही होने वाला था। दादा का जरूर भोपाल तबादले का आदेश अभी तक उन्हें नहीं मिला था। कुल मिलाकर इन सब अनिश्चतितताओं के कारण दादा के विवाह की तिथि अभी तय नहीं हो सकी थी। मेरे स्कू...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बसंतपंचमी के आठ दिन पहले ही हम सब ग्वालियर के छत्रीबाजार के मकान में पहुँच गए। वहां पर हमें छोड़ने के बाद माँजी और सुशीलाबाई को दादा बेबी की माँ के यहाँ मतलब सुशीलाबाई की मौसी के यहाँ छोड़ने गए। वैसे छत्रीबाजार वाले पुश्तैनी मकान में रहने का मेरा यह पहला ही अवसर था। रिश्ते जन्म से और पुराने ही थे पर पहचान नए सिरे से थी। जिन रघुभैया नहीं नहीं वे मेरे ताऊ है और मुझे उन्हे आदर के साथ ताऊजी ही कहना चाहिए तो जिन ताउजी के बारे में दादा माँजी और सुशीलाबाई को बुरहानपुर और पथरिया में बता चुके थे और जिन ताऊजी से दादा अपने ब्याह के बारे में बात करने वाले थे उन ताउजी को मैंने तो पहली ही बार देखा। इसी के साथ उनकी पत्नी राजाबाई मतलब मेरी ताईजी और सबसे बड़ी एक विधवा ताईजी भी जो यही रहती थी उनसे भी मिलना हुआ। ताऊजी के बच्चों समेत पूरा परिवार हमारे उपनयन संस...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** अगले रविवार बड़ी प्रसन्नता से मैं गणपत के साथ हाट में ग्रामपंचायत का कर वसूलने गया। इस बार सब विक्रेता मुझे जानते थे और छोटा होने के कारण सब मेरे साथ हंसी मजाक भी करने लगे। संयोग रहा कि इस बार भी मेरे द्वारा ही सबसे ज्यादा कर वसूला गया था। शाम को हम सब घर वापस लौटे। पिछला अनुभव होने के कारण इस बार हिसाब किताब जल्द ही निपट गया था। गणपत ने उसके दो मित्रों को उनका मेहनताना देकर रवाना किया फिर मुझे भी एक रूपया दिया। अब मेरे पास तीन रुपये जमा हो गए थे। हम सब जब घर वापस आए थे उस वक्त माँजी, सुशीलाबाई और सुरेश गाव में ही किसी के यहां किसी कार्यक्रम में गए थे। घर में बेबी और उनका दो वर्ष का बेटा ही थे। गणपत ने बेबी को सारे रुपये सम्हाल कर रखने को दिए। गणपत का दो वर्ष का बेटा सुदर्शन जिसे सब शुंडू नाम से पुकारते थे मेरे पास आकर बैठा। मैं उसके साथ ख...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दूसरा दिन एक नयी सुबह लेकर आया। गणपत कल रात घर आया ही नहीं था। बेबी ने दोनों गाय का दूध निकालने के बाद खुद ही राधा और यशोदा को खूंटे से आजाद किया। मैं भी जागने के बाद तख़्त पर बैठ गया था। बेबी ने मुझे देखा और बोली, 'बाळोबा, आज अकेले ही घूम के आओं और आने के बाद बाहर से ही आवाज लगाना। मैं आकर कुएं से दो बाल्टी पानी निकाल कर तुम्हारे सर पर उड़ेल दूंगी।' आज मुझे तालाब पर अकेले जाने में मुझे कोई संकोच ही नहीं था पर सुशीलाबाई के डर के कारण मैं जाने से पहले अपने नहाने की पूरी तैयारी कर के गया। पथरिया गाव मुझे भा गया था और अच्छा भी लगने लगा था। बुरहानपुर जैसा यहां दिन रात काम करने का माँजी का फरमान भी नहीं था। महत्वपूर्ण यह था कि माँजी और सुशीलाबाई की सेवा बेबी कर ही रही थी इसलिए माँजी को भी आराम सा था। मुझे तो दोनों समय खाना और सोना। बस यही काम था...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरा और सुरेश का कुछ ज्यादा सामान तो था ही नहीं सुशीलाबाई का भी एक ही थैली थी वे किसी को भी उसे छूने नहीं देती। उनके थैली में एक तौलिया और एक बड़ा सा पीतल का लोटा रखा रहता। इसी लोटे का इस्तेमाल वे दिन भर करती। इस लोटे की किस्मत में दिन भर सुशीलाबाई के हाथों खुद को राख से जाने कितनी बार मंजवाना लिखा रहता यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता था। माँजी जरूर ज्यादा सामान लायी थी। इनमे घरगृहस्थी का सामान, थोड़े मसाले अचार इत्यादि थे। और हां सुशीलाबाई के कपडे भी माँजी को ही सम्हालने पड़ते इसलिए वे भी माँजी के सामान के साथ ही थे। घर में हम लोगों के अंदर आंगन में आते ही बेबी नहीं मुझे उन्हें बेबी नाम से नहीं पुकारना चाहिए। मुझसे तो वें बहुत बड़ी है पर उनका तो मूल नाम ही बेबी है और सब इन्हे बेबी नाम से ही पुकारते भी है। हां तो मैं कह रहा था कि हम लोगों के...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** यह सब बातचीत सुन कर मैं तो बहुत ज्यादा बेचैन हो गया। मुझे तो यहां रहना ही नहीं था और दादा मुझे यहां बुरहानपुर में सुशीलाबाई के चुंगल में रखने का निर्णय लेकर अलग हो चुके थे। क्या करना चाहिये यह समझ में ही नहीं आ रहा था। यहाँ से निकल कर ग्वालियर में नानाजी के पास कैसे पहुंचा जाय इसका कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। माँजी और अण्णा दोनों रसोई में भोजन की तयारी कर रहे थे और दादा और सुशीलाबाई दोनों कमरें में थोड़ी देर बातचीत करते रहे। सबका भोजन निपटने के बाद दादा उज्जैन जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मुझे और सुरेश को अपने पास बुलाया और बोले, ‘बाळ-सुरेश, मैं अब उज्जैन के लिए निकल रहां हूं। तुम दोनों यहां ठीक से रहना। ठीक से अपनी पढ़ाई करना। माँजी को और ताई को परेशान नहीं करना। वें जैसा कहें वैसा करना। दोनों का कहा मानना। रहोगे ना ठीक से?‘ दादा न...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २४
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २४

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरा सारा ध्यान अंदर की बातचीत पर ही था। अण्णा ने नानाजी की चिट्ठी पढ़ कर एक तरफ रख दी। चिट्ठी सुनकर थोड़ी देर के लिए माहौल गंभीर हो गया था। अण्णा के बाद नानाजी की चिठ्ठी दादा ने भी पढ़ ली और उसके बाद दादा माँजी से बोले, ‘बाळ अभी छोटा है, उसमे भलेबुरे की समझ नहीं है और फिर अभी हाल ही वह आपके पास आया है। एक दूसरे को जानने और समझने में वक्त लगेगा। थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा इसलिए इन बातों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए।’ ‘पर बाळ के नानाजी तो बच्चें नहीं है। नासमझ नहीं है? उन्हें तो अच्छे बुरे की समझ है।‘ अब सुशीलाबाई बोली। वें गुस्से में थी। ‘मुझे उन्हें चिट्ठी लिखने का अधिकार ही क्या है? और तो और उन्होंने मुझे पराया भी लिखा। मैं इन बच्चों को पराया समझती हूं क्या?‘ क्या मैं पराई हूं?‘ अब उन्हें रोना आ गया। अब माँजी भी भडक गयी, ‘इसमें...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २३
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २३

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दूसरे दिन स्कूल जाते वक्त सुशिलाबाई मुझे एक बार फिर स्कूल जाने का बोल कर गयी। मैंने उनकी बात का कोई जवाब ही नहीं दिया पर स्कूल के समय चुपचाप तैयार होकर सुरेश के साथ स्कूल गया। बीच की छुट्टी में मैंने सुरेश को सब बताया। मैं सुरेश को एक तरफ ले गया और उससे कहा, 'तुम्हें मालूम है क्या कि इन सुशिलाबाई की इच्छा अपने दादा से शादी करने की है?' 'करने दो। अपने को क्या करना है?' सुरेश का जवाब मुझे निराश करने वाला था। 'अरे, पर इससे तो वें हमारी सौतेली माँ हो जाएंगी?' 'होने दो। हमें क्या फर्क पड़ने वाला है?' अरे, पर वो तो घर का कुछ भी काम ही नहीं करती?' तो माँजी होती है ना साथ में। वही तो करती है सब काम।' सुरेश बोला। 'पर मुझे वें दोनों बिलकुल अच्छी नहीं लगती।' मैंने कहां। 'पर दादा को तो ताई अच्छी लगती है? एक दिन दादा राजाभाऊ को कह रहे थे की उन्हें व...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २२
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २२

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बुरहानपुर में महाजनी पेठ के एक किराए के मकान में पहली मंजिल पर दो कमरों में सुशीलाबाई और उनकी माँ रहती थी। सुशीलाबाई को सब ताई और उनकी माँ को सब माँजी कहते है यह दादा मुझे उज्जैन में बता चुके थे। संडास और नहाने के लिए नीचे तल मंजिल पर जाना होता था। नल भी नीचे ही थे और पानी भी नीचे से भर कर लाना पड़ता। सुशीलाबाई ने जो दो कमरें किराए से लिए थे उन दो कमरों के बीच में थोड़ी खुली छत भी थी। एक कमरें में रसोई और दूसरे में सोना ऐसी इनकी गृहस्थी की व्यवस्था थी। बगल के एक कमरें में ही दिनकर और सुभाष नामके शाहपुर के दगडू चौधरी के दो लड़के भी पढ़ाई के लिए यहां किराये से रहते थे। ये दोनों लड़के थोड़े बड़े थे और कॉलेज में पढ़ते थे। इन मा-बेटी से मेरा कोई विशेष ज्यादा परिचय तो था नही। सिर्फ उज्जैन में हुई एक दिन की मुलाकात थी पर सुरेश का उनका अच्छा परिचय ही ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २१
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २१

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** महाकाल मंदिर का अहाता चारों ओर से बहुत बड़ा और बहुत बड़ा कच्चा सा विशाल प्रांगण। दिन भर प्रांगण में धूल होती। मंदिर प्रागंण में दिन भर इक्का दुक्का लोग ही दिखाई देते। सुबह शाम ज्यादा लोग होते। रोज भीड़ नहीं होती। हां श्रावण मास में और हर सोमवार एवं महाशिवरात्रि समेत अन्य तीज-त्यौहारों पर भीड़ होती थी। महाकाल के दर्शन और पूजा अभिषेक हेतु आते रोज दो चार भक्त अपने-अपने पुरोहित के साथ दिखाई दे जाते। जब मंदिर में भीड़ नहीं होती उन दिनों हम उधमी बच्चों को महाकाल का विशाल प्रांगण धिंगामस्ती करने के लिए मिल जाता। पाठशाला में बीच के अवकाश में या पाठशाला छूटने के बाद हम बच्चें मंदिर प्रांगण में खूब खेलते। अब मेरे मित्र भी बढ़ गए थे। राजाभाऊ का वीनू, कृष्णाचार्य गुरूजी का मुकुंदा। कुलकर्णी का विजय। पुरोहित मास्टरजी के दोनों बेटे दिनकर और अरुण। खेर चाची...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २०
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा। वो एक रविवार का दिन था। दादा को भी छुट्टी थी। सब का नहाना हो गया और दादा का पूजापाठ भी हो गया। फिर हम सब रतन मारवाड़ी भोजनालय में खाना खाकर भी आ गये। दादा की कुछ देर दोपहर की विश्रांति भी हो गयी। हम बच्चें नीचे आंगन में खेल रहे थे। लगभग चार बजे होंगे दादा ने सुरेश को ऊपर से ही आवाज लगाई। मैं भी सुरेश के साथ ऊपर गया। दादा ने सुरेश को कुछ रुपये देकर बाजार से दो बर्कले छाप सिगरेट के पेकेट और साथ में एक माचिस लाने को भी कहा। मैं घर पर ही ठहर गया। दादा ने बाहर के कमरे में दो दरियां और उन पर दो सफ़ेद चद्दरें बिछायी हुई थी। मैं सोचने लगा कि अभी तो सोने का समय ही नहीं है फिर दादा ने यह बिछाईत क्यों भला कर के रखी है? मुझे समझ में नहीं आ रहा था। जल्द ही सुरेश भी सिगरेट के पेकेट और माचिस ले कर आगया। दादा ने पेकेट मे...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग – १९
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग – १९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दुसरे दिन की सुबह एक नया ही उजाला ले कर आई। सुबह साढ़े पांच बजे घडी में अलार्म जोर से बजा। सबसे पहले दादा उठ गए पर हम दोनों की आंखों में नींद समाई हुई थी। मेरे लिए घडी का अलार्म यह कुछ नया सा था। अब आगे क्या होगा इस उत्सकुता के साथ मैं बिस्तरे पर ही लेटा रहा। दादा ने अपने नित्यकर्म से निपटने के बाद हम दोनों को आवाज दी, 'बाळ-सुरेश,उठोI छ: बज गए जल्दी निपटलो। बिटको की शीशी वहां रखी है। दोनों के लिए पानी की बाल्टियां भी भर कर रखी है। पहले अच्छे से दांत साफ़ कर लो। जीभ अच्छे से साफ़ करना। मैं दोनों के लिए दूध गर्म कर रहा हूं। जल्दी करों।' सुरेश उठ खडा हुआ। उसने अपनी दरी और चादर अच्छे से घडी कर जगह पर रख दी। मुझे ग्वालियर की याद आयी। काकी के कमरें में तो जूट के बोरे से बनायी दरी दिनभर बिछी ही रहती थी। और नानाजी के कमरें में भी खाट पर वैसे ही द...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** स्कूल शुरू होकर एक सप्ताह से ज्यादा हो गया था। एक दिन दियाबाती के बाद हम सब बच्चें राम मंदिर के बरामदे में झूले पर बैठकर रामरक्षास्तोत्र का पाठ कर रहे थे। पंतजी रामजी के दर्शन कर के ऊपर अपने कमरे में जा चुके थे। काकी ने मेरे लिए अब बरामदे में बैठना बंद कर दिया था। वें अधिकतर अपने कमरे में ही बैठी रामजी का जाप करती किया करती। लीला मौसी रसोईघर में शाम की रसोई बनाने में व्यस्त थी। माई भी रसोईघर में ही थी। नानाजी भी अपने कमरे में थे। रामरक्षास्तोत्र ख़त्म होने के बाद हमने समर्थ रामदास स्वामी के 'मन के श्लोक' कहना शुरू किया। 'गणाधीश जो ईश.....' मेरे मुंह से इतना ही निकला था कि इतने में हलकी सी रोशनी में एक आकृति धीरे-धीरे हमारी ओर बरामदे में आते हुए मुझे दिखाई दी। मैंने तुरंत पहचान लिया। मेरे दादा थे। मेरे पिताजी। उन्हें देखते ही मैं इतना जो...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** धीरे-धीर दिन आगे सरकते जा रहे थे। विद्यालय शुरू होने में अभी एक महीना से कुछ ज्यादा ही समय था। गर्मी अपने पूरे जोरों पर थी और उस पर गर्म हवाएं। ऐसे ही में एक दिन काकी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी। नानाजी मेरे फूफाजी रामाचार्य वैद्यजी को बुला लाए अब फूफाजी मुझे पहचानते थे। उनके काकी के कमरे में आते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने दिए चांदी के रुपये के कारण मैंने उनके पांव उत्साह से छुए थे। एक और चांदी के रूपये की अपेक्षा भी थी। वैसे अब मुझे पैसों का महत्व भी समझने लगा था। सारी जरूरतें रुपये देकर पूरी होती हैं यह मैं जान गया था। पर इस बार फूफाजी से मुझे सिर्फ कोरा आशीर्वाद ही मिला। फूफाजी ने काकी की जांच की। फिर नानाजी को बोले, 'ज्वर थोडा ज्यादा ही हैIकमजोरी भी ज्यादा है। परन्तु चिंता करने जैसा कुछ नहीं मेरे यहां से दवाई ले कर आइए।...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरी दूसरी कक्षा की परिक्षाएं ख़त्म हो चुकी थी। कक्षा में मेरा पहला क्रमांक आया था और मैं पढाई में एक पायदान ऊपर तीसरी कक्षा में पहुच चुका था। अब मैं सिर्फ अपने पिता के ग्वालियर आने का इन्तजार कर रहा था। इसी बारे में सोचता रहता। इसके अलावा कही भी मेरा मन ही नहीं लगता। यहां इस घर में मेरी नानी कई दिनों से मेरे नाना के पीछे लगी थी कि उन्हें परीन्छा की यात्रा करने की बहुत इच्छा है। वहां निम्बालकर की गोठ में स्थित अन्ना महाराज के गुरु सरभंगनाथ महाराज का मंदिर था और हर वर्ष चैत्र महीने में वहां होने वाले उत्सव में सैकड़ो भक्त श्रध्दा और भक्ति से दर्शन हेतु जाते। काकी ने बताया मुझे कि एक बार नानाजी की तबियत बहुत खराब हो गयी थी, बचने की उम्मीद नहीं थी उस वक्त नानी ने मन्नत मांगी थी और प्रण किया था कि नानाजी की तबियत ठीक होने के बाद एक बार वह पर...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १५
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १५

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** नानाजी अब कभी कभार मुझे उनके साथ बाहर भी ले जाने लगे। ख़ास कर रविवार को मैं उनके साथ सब्जी मंडी जाने की जिद भी करता। वे बड़ी ख़ुशी से मुझे ले जाते। नानाजी को सब्जी लेने के लिए किसी थैले की जरुरत नहीं पड़ती थी। इसके लिए उनके पास एक अलग ही मजेदार तरीका होता। सब्जीमंडी में खरीदी सब्जी रखने के लिए वे अपनी धोती का उपयोग करते। वे अपनी धोती की आगे की घड़ियाँ (कासोटा) खोल लेते और उस आधी खुली हुई धोती में सारी खरीदी हुई सब्जी भरकर धोती में गठान बांध लेते। फिर उसे अपने कंधे पर ले लेते। एक हाथ से वो मेरी उंगली पकड़ते। दिवाली बाद ग्यारस के दिन गन्ने का गट्ठा भी वें अपने कंधो पर ही लाद कर लाते। नानाजी को भी अब मुझसे लगाव सा हो गया था। रविवार को या छुट्टी वाले दिन वो मुझे अपने साथ कही न कही बाहर ले जाने लगे। कभी बाड़े पर के पार्क में या कभी दत्तमंदिर में य...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १४
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १४

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** कुछ दिनों बाद की बात है। उस दिन शाम के समय मैं छज्जे में बैठ कर रामरक्षास्त्रोत कह रहा था। अब मुझे सब श्लोक अच्छी तरह से कंठस्थ हो गए थे। मैंने देखा पंतजी लाठी टेकते हुए धीरे-धीरे मेरी और आ रहे थे। उनका ध्यान मेरी ओर ही था। मुझे अकेला छज्जे में बैठ कर श्लोक बोलते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। मेरे पास आकर वें बोले, 'दियाबाती के समय ऐसे अकेले यहां छज्जे में बैठे क्या कर रहे हो? नीचे जाओं सब बच्चों के साथ झूले पर।' मैंने कोई जवाब नहीं दिया। पंतजी को मुझसे बोलता देख काकी भी नीचे बरामदे से ऊपर मेरे पास आकर खड़ी हो गयी। हम को आपस में बात करता देख नानाजी भी हमारे पास आकर खड़े हो गए। अरे, मैं क्या पूछ रहा हूं?' पंतजी बोले, 'तुम्हें अब सारे श्लोक, रामरक्षा और मन के श्लोक समेत सब सीखना और याद करना चाहिए। जाओं नीचे बच्चों के साथ जाकर बैठो, कुछ सीख लो।' ...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १३
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १३

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** तीन वर्ष पूरे कर आठ माह हो चुके थे और अगले कुछ माह में मैं चार वर्ष का होने वाला था। दिन मजे में गुजर रहे थे। काकी पूरी सदिच्छा और आनंद के साथ मुझे सम्हाल रही थी। मेरा सब नियमित रूप से कर रही थी। अब मैं थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगा था। अपनी जरुरतें मैं सब को बोल कर बताने लगा था। अच्छी तरह से चलने भी लगा था इसलिए काकी अब अपने साथ मुझे लेकर बाहर भी जाने लगी। परेठी मोहल्ले में भी काकी की ससुराल हम कभी-कभार जाने लगे। प्रत्येक गुरूवार काकी बिना नागा शाम के समय मुझे अपने साथ ढोलीबुआ के मठ में ले जाने लगी। मुझे सम्हालना काकी के लिए अब आसान हो गया था। फिर भी उनका सारा ध्यान मेरी ओर ही लगा रहता। काकी के जीवन जीने के कठोर नियम और उससे भी बढ़कर उनके कठोर अनुशासन से मेरा रोज ही सामना होता था। बाकी किसी से भी उनका कोई लेना देना ही नहीं था । काकी का सारा ज...
उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १२
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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १२

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** पूजा ख़त्म हो गयी। रामजी को और भगवान दत्तात्रय को भोग भी चढ़ाया जा चुका था। अभी ब्राह्मणों सहित सबके भोजन होने थे। राममंदिर के बाहर बरामदे में सबके लिए पटे बिछाएं जा रहे थे। ब्राह्मणों सहित घर के बड़ों को तो उपवास ही था। इसलिए जिन्हें उपवास था ऐसे पुरुषों के लिए अलग से पटे बिछाए गए थे। सब आसन ग्रहण करने ही वाले थे कि उतने में काकी मुझे गोद में लिए अपनी पोटली कंधे पर टाँगे बरामदे में आयी। मुझे उन्होंने नीचे छोड़ा और पंतजी को बोली, 'मुझसे अब नहीं सम्हाला जाता ये अक्का का बेटा। उम्र हो गयी है अब मेरी। अब समधीजी आप ही इसे सम्हाले।' इसके बाद काकी नानाजी की ओर मुड़ी, 'दामादजी, मेरे स्वामी के गुजर जाने के बाद भतीजों ने धक्के मार कर मुझे मेरे ही घर से बेदखल कर दिया था। आप मुझे आग्रह कर के इधर ले कर आए। बेटी के यहाँ आसरा मिलेगा और बचे हुए दिन रामजी ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ११
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ११

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** 'तुम्हें बताऊं माँ रात को घर आते ही इनकी पेशी पंतजी के सामने तुरंत हुईI' नानी जोश में बोले जा रही थी, 'घर आते ही पंतजी ने हाथ की छड़ी कोने में रखी। पगड़ी खूंटी पर टांगी। कंधे पर की शाल भी घडी कर खूंटी पर टांगी और जोर से चिल्लाएं, 'सोन्या ..... ' 'पंतजी के इस तरह जोर से चिल्लाने से पूरा बाड़ा सहम गया। वैसे भी उनके बोलने में एक भारीपन होता और फिर इस तरह चिल्लाने से तो भूकम्प सा आया लगता है। औरते बच्चे डर जाते हैं। तुम्हें कहती हूं माँ, मै और माई भी बहुत सहम गए थे।' 'अपने कमरे से निकल अहिस्ता क़दमों से तुम्हारे दामाद, राममंदिर के बरामदे में पंतजी के सामने जाकर हाथ बांधे चुपचाप खड़े हो गए। माँ, इन्हें तो कुछ पता ही नहीं था और अंदाज भी नहीं था कि पंतजी क्यों नाराज है? माई और मै भी इनके पीछे जाकर खड़े हो गए थे, पर हमारी भी कुछ पूछने की हिमंत नहीं...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग १०
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग १०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** 'क्यों आवडे, इसे लिया क्या? 'काकी ने नानी से पूछा। 'नहीं,लेने के लिए ही आयी थी।पर ये आगए थे इसलिए ठहर गयी।' 'तो फिर अब लेले।' नानी ने मुझे ले लिया। 'और क्यों री आवडे, दामादजी को कौन सा दिन याद आ रहा था? कौन सी घटना थी मुझे भी बता। 'काकी ने सहज ही नानी से पूछ लिया। -'कुछ नहीं माँ, वो समधीजी के बुरे बर्ताव के बारे में बता रहे थे।' अब क्या किया तुम्हारे समधी ने?' 'किया कुछ नहीं पर ससुरजी इनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते, इनकों कुछ भी महत्व नहीं देते और समधीजी ससुरजी के ख़ास बालसखा इसलिए वें भी इन्हें नहीं पूछते। समधी होकर भी कुछ महत्व नहीं देते।' 'ये तो हमेशा का ही है। फिर आज कौन सी नयी बात याद आयी?' 'बताती हूँ।' नानी ने बताना शुरू किया, 'क्या हुआ अक्का की शादी तय होने के पहले की बात है। एक दिन दोपहर के समय ये छत्रीबाजार से घर आ रहे थे। सर्...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ०९
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ०९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** धीरे-धीरे दिन गुजर रहे थे। रोजमर्रा की दिनचर्या किसी के लिए नहीं रूकती। काकी का सारा समय मेरी देखभाल में ही व्यतीत होने लगा था। वैसे भी उनकों घर में विशेष ऐसा कोई काम करने को नहीं होता और नाहि उन्हें कोई कुछ करने को कहता। काकी का पूजापाठ, हर एक दो दिन के बाद के उपवास और विशेष कर माला लेकर हमेशा रामजी का जाप। इन सब में वे नियम की पक्की थी और बस यही उनका विश्व था। रोज का भोजन भी वे दोपहर बाद एक ही समय करती थी। शाम का भोजन तो उन्होंने कई वर्षों से छोड़ रखा था। कोई भी उनसे ज्यादा बातचीत भी नहीं करता था और इस घर में कोई उनके आड़े भी नहीं आता था। कुल मिलाकर उनसे किसी को भी परेशानी नहीं थी और नाहि वे किसी को परेशान करती या कोई काम कहती। काकी की एक अलग ऐसी अलिप्त सी दुनिया थी और उनके अपने विश्व में वें नितांत अकेली थी। अब मेरे आने से उनकी दुनिया...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०८
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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दोपहर एक बजे के लगभग उज्जैन से इस घर के दामाद और मेरे पिताजी पंढरीनाथ उनके घर छत्रीबाजार न जाते हुए सीधे इधर इस बाड़े में ही आ गए। पुत्र प्राप्ति का तार मिलने के बाद तुरंत यहां आते हुए रास्ते भर वे प्रसन्नचित्त ही होंगे। लेकिन यहां इस बाड़े में सर्वत्र ख़ामोशी का माहौल था। उन्हें विचित्र लगा। पर उन्हें अन्दर आंगन में आते देख एक बार फिर से औरतों का जोर से रोना शुरू हो गया। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। पर अगले ही क्षण उनकी नजर मंदिर से सटे बरामदे में रखी मृत देह पर पड़ी। आशंकित मन से, हाथ की थैली एक ओर फेंक कर वें तुरंत उस ओर तेज कदमों से चल कर गए। देखा तो उनके होश उड़ गए। उनकी पत्नी की मृत देह जमीन पर रखी थी। 'शा ..लि...नी ...! 'उन्होंने जोर से चिल्लाने का प्रयास किया, परन्तु सदमे से उनके शब्द गले में ही अटक गए। वें नीचे जमीन पर बैठ गए। मृतद...
उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७
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उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** जैसे तैसे पहाड़ सी लम्बी रात बीत गयी। कोई भी नहीं सोया था। दुसरे दिन की सुबह अपने समय से ही होना थी सो हुई। परन्तु ये सुबह इस घर के लिए रोज जैसे नहीं थी। मानो ये सुबह खामोशी से दस्तक देते हुए दु:खो का पहाड़ ही लेकर आयी थी। मेरे लिए तो अँधेरा ही लेकर आयी थी। मेरा आगे का प्रवास संकट भरे रास्तों पर अँधेरे में ही मुझे करना था। इस घर में मायके आयी हुई एक सुहागन पर दुर्दैवी काल ही चढ़ कर आया था। नियति के मन में आगे क्या है? यह सवाल यहाँ पर सभी के मन में था और अनेक आशंकाए और कई सारे उलझे प्रश्न लिए भी था। सभी आठ बजे कर्फ्यू ख़त्म होने का इन्तजार कर रहे थे। आठ बजते ही पंतजी ने माँ के मृत्यु की खबर सबको देने के लिए किरायेदार खोले को भेजा। पंतजी के आज्ञाकारी खोले तुरंत निकल पड़े। जन्म की वृद्धी और मृत्यु का सूतक इन दोनों की खबर एक साथ ही सब को मिल...