उठते ही रहना
शांता पारेख
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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ये एक सौ चालीस करोड़ लोगों का देश है। कुछ लोग चांदी का चम्मच लेकर जन्म लेते होंगे, पर कितने रोज जन्म ले रहे, कई घिसट रहे, कोई तड़प रहे, किसी ने कुछ पा लिया तो वह उसके स्वाद की चुस्कियां ले रहे, कोई पाने के लिए जद्दोजहद कर रहा, कुछ उसी में पिस रहे, कुछ गिर के खड़े हो रहे, तो कुछ बार बार गिर रहे, कुछ एक दम गायब हो रहे जिनका अतापता ही नही। दुनिया रेलम पैला है। स्टेशन जैसी हड़बड़ी में सब है। कोई चढ़ गया कोई उतर गया कोई लटक के लहलुहाँ हुआ। कितने नज़ारों से भरी दुनिया है, किसी की कहानी दूसरे की कहानी से मिलती ही नही। सबके किरदार सबके मंच व अदायगी है। पर एक चीज जो सबमे सामान्य है शाश्वत है, विश्वव्यापी है, वह है गिर गिर के उठना, हर उठने की प्रक्रिया में कुछ सीखना, सीखे हुए में कुछ दूसरा मिला कर पहले की गलती को न दोहराते हुए कुछ अच्छा बड़ा करने...