हां मैं बुरी हूं
राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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मैं बिल्कुल नहीं जीना चाहती
तुम्हारी बनाई हुई
खोखली परंपराओं के साथ,
इंसां तो मैं भी हूं पर
तुम्हारे लिए हूं नारी जात,
धर्म के नाम पर,
समाज के नाम पर,
घर की इज्जत के नाम पर,
थोप रखे हो गुलामी की दीवार,
गाहे बगाहे होती रहती हूं दो चार,
हमें घूंघट को कहते हो,
खुद स्वच्छंद रहते हो,
बुरखा सिर्फ मैं ही क्यों लगाऊं,
बंधन में बांध खुद को क्यों सताऊं,
घर की इज्जत का ठेका
सिर्फ मेरा नहीं है,
क्या घर में किसी और का
बसेरा नहीं है,
आ जाते हो पल पल देने
घर के इज्जत की दुहाई,
तुम्हारे बेतुके नियम मैंने तो नहीं बनाई,
हां मान लो मुझे मैं बुरी हूं
पर अब खुद की बॉस हूं,
तुम्हारे द्वारा खड़ी की गई है
जो गुलामी की दीवार
अब उससे आजाद हूं,
लंपट मर्द हो मुझमें ही बेहयाई खोजोगे,
जब भी सोचोगे मेरे विरोध में सोचोगे,
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