जंगल में चुनाव
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण"
इन्दौर (मध्य प्रदेश)
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सुन चुनाव की बात समूचा जंगल ही हो उठा अधीर।
माँस चीथनेवाले हिंसक खाने लगे महेरी खीर।।
धर्म-कर्म का हुआ जागरण आलस उड़ कर हुआ कपूर।
देने लगे दुहाई सत की असत हो उठा कोसों दूर।।
बिकने लगे जनेऊ जमकर दिखने लगे तिलक तिरपुण्ड।
जानवरों के मरियल नायक बन बैठे हैं सण्ड-मुसण्ड।।
ऊपर से मतभेद भुलाकर भीतर भरे रखे मन भेद।
तू-तू मैं-मैं करके सरके आसमान में करके छेद।।
श्वान न्यौतने लगे बिल्लियाँ बिल्ली न्यौते मूषक राज।
देखी दरियादिली चील की बुलबुल की कर उठी मसाज।।
लूलों ने तलवार थाम ली लँगड़े चढ़ने लगे पहाड़।
बूढ़े श्वान भूलकर भौं भौं बकने लगे दहाड़ दहाड़।।
भालू भैंस भेड़िए गीदड़ गिद्ध तेंदुए चीते चील।
बकरी बन्दर बाघिन बगुले साँवर गैंडे हिरन अबील।।
एक दूसरे के सब दुश्मन हुए इकट्ठे वन में यार।
चले...