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पद्य

प्रेम की गांठ
कविता

प्रेम की गांठ

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** ठंडी हवा मचल कर न चल ठंड की आबो हवा कही चुरा न ले जिया बेचैन तकती निगाहे मौसम में देखती दरख्तों को सोचता मन कह उठता बहारे भी जवान होती। धड़कने बढ़ जाती प्रेमियों की जाने क्यों जब जब बहार आती-जाती बांधी थी कभी मनोकामना के लिए प्रेम की गांठे। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन :- देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास कनाडा-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के ६५ रचनाकारों में लेखनीयता में सहभागिता भारत की और से सम्मान - २०१५, अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित सं...
श्रेय का खेल
कविता

श्रेय का खेल

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** श्रेय लेने देने का खेल जारी रहता है अनवरत, मरते को जीवन देता डॉक्टर तब चौक जाते हैं यकबयक, कि मरीज ठीक होकर धन्यवाद करता है उन मिथकीय पात्रों का जो किसी ने देखा नहीं, कण-कण में है कह तो देंगे पर किसी से कभी मिला नहीं, विज्ञान लगा है रात-दिन मनमाफिक जिंदगी जीने का मौका देने के लिए, पर एन वक्त आ जाता है जादू श्रेय लेने के लिए, ये तथाकथित कभी चुनावों में किसी को क्यों नहीं जिताते, प्रकट हो किसी को प्रतिनिधि क्यों नहीं बनाते, चुनने का अधिकार है सिर्फ और सिर्फ मतदाता को, चुनते नहीं देखा कभी खुदा या विधाता को, श्रेय का जो असली हक़दार है उन्हें दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे सारी जिंदगी जूझते हैं लोगों को खुशनुमा जीवन देने के लिए, मगर उनके पास समय नहीं होता आगे आ श्रेय लेने के लिए। प...
मुट्ठी भर राख
कविता

मुट्ठी भर राख

डॉ. बीना सिंह "रागी" दुर्ग छत्तीसगढ़ ******************** नीले अंबर की लालिमा देखकर भाव से भाव का हम समर्पण करें सूरज उगते को सब ने नमन है किया डूबते को जी आओ नमन हम करें अभिलाषा उत्कंठा धन संपदा छल प्रपंच छद्म और उच्च शृंखलता अंतर्मन का ए मन मालिन सा हूआ शक्ति भक्ति प्रेम कर्महीन सा हुआ हर्षिता द्वार पे आ खटखटाती रही नवल रश्मियों का आओ आचमन हम करें नीले अंबर की वक्त अंजुरी से फिसलते गए हाथ में काल के हम सिमटते गये सत्यता सहजता दिव्यता छोड़कर चादर आडंबर का हम ओढ़े रहे कदम दर कदम राह झूठ की त्याग कर सत्य पथ का चलो अनुसरण हम करें नीले अंबर... बदचलन ख्वाहिशें उफान मारती रही सतरंगी लालसाएं तूफान लाती रही बेदर्द धड़कने इतराते रहे रूह निगोड़ी सांस संग मुस्कुराती रही मुट्ठी भर राख का सब खेल है जल अंजुरी में ले तर्पण हम करें नीले अंबर ... ...
लैंसडाउन की उॅचाइयों पर
कविता

लैंसडाउन की उॅचाइयों पर

बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** लैंसडाउन की उॅचाइयों पर- टहलते हुए... 'शीतकालीन ठंडी-तीव्र हवाओं और सख्त चट्टानों के बीच ऊर्ध्व-वृक्षों की छाया तले दोपहर से तिरछे पड़ते सूरज की छुट-पुट किरणों के बीच- लहराते केशों के बीच मूर्तमान गौर वर्ण का 'श्वेत-फूल', दृष्टि निच्छेपित थोड़ा-नीचे पथ पर सखियों संग मुस्क्याता- अपनी श्वेत-दंत-प्रकाशित- लाल होठों की पंखुड़ियों के बीच- अंजाने ही लहराता है कौमार्य की लहर!' हृदय वहीं रुक जाता है.. एक युवा-यात्री, ठिठक-ठिठक-कर अपार आभा से गुजर जाता है... -घायल होकर ताउम्र के लिए...! -बस इक मुस्कान की याद के साथ... इक लम्बी ज़िन्दगी बीत जाती है... -नहीं बीतती है उस मुस्कान की याद...! ....नहीं लौटना होता है कभी उन पर्वतों पर... यह जान-बूझकर कि न वह फूल स्थिर होगा न वह मुस्कान, न जाने 'सम...
महफ़िल
कविता

महफ़िल

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जमी थी ख्वाबों की महफ़िल ज़मीं पर जिंदगी की हो गया खूशुबहों के पडाव में बचा गया दामन कोई शुबहे की आड़ में। चुप दरख्त चुप फासले चुप है, राहें कदम की जंजीर मकसद की मंजिल अभी दूर है तन्हाई का आवम अभी से क्यो है। और बढादी तन्हाई इस सन्नाटे ने रफ़्ता, बेरफ्ता चलना मुमकिन नहीं है मुमकिन है जिंदगी की फिसलन मैं फिसल जाऊ सम्हालो यारों मंजिल हासिल करना अभी बाकी है। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती रही आकाशवाणी इं...
जिंदगी… बड़ी बेरहमी से सच दिखती है
कविता

जिंदगी… बड़ी बेरहमी से सच दिखती है

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** जिंदगी ......बड़ी बेरहमी से सच दिखती है। कितना भी.... बहलाते रहे खुद को। ऐसा नहीं है...??? ऐसा हो नहीं सकता ...!!!! जबकि ..... ऐसा ही था!!!? साथ सच के बीते लम्हों की हर बात को बड़ी खामोशी से बयां कर जाती है। जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है। जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है। झूठी उम्मीद को पाल-पाल कर। लाख कोशिश करें कोई टूटी उम्मीदों को फिर से संभाल कर। जिंदगी उम्मीद से भी उसकी उम्मीद छीन लेती है। जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है। जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है। अपना-अपना कहकर जोड़ते रहे उमर भर छत और दीवारों को। जिंदगी बड़ी बेरहमी से उन घरों के दरवाज़े गिरा कर निकल जाती हैं। जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है। जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है। मतलब तक जो मतलब र...
खण्डहर
कविता

खण्डहर

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** लोग मुझे खण्डहर कहते हैं कुछ अनजान से होते हैं, खण्डहर समझ कर मुझे ठुकरा कर, आगे बढ़ जाते हैं जानते नहीं वो, मैं भी था कभी एक आलीशान महल, राजसी ठाठ कभी मेरा भी था यौवन, मैं भी सिर उठा खड़ा अभिमान से देखता, हर कोई मुझमें झाँकने का साहस न बटोर पाता। किंतु, समय के गर्त ने मृत्यु के समान अपने अंक में मेरा रूप समेट लिया। आज सभी मुझे बाहर से देख कर आगे बढ़ जाते हैं ! मानव भी तो शव हो जाता है श्रद्धांजलियाँ अर्पित करते हैं हज़ारों, और मेरे इस शव की? उपेक्षा करते हैं, क़दम एक भी रखते नहीं जिससे वो मलिन न हो जाए। रूप दोनों का एक ही, पर स्वागत ? कैसा है प्रकृति का व्यंग्य !! परिचय :- डॉ. किरन अवस्थी सम्प्रति : सेवा निवृत्त लेक्चरर निवासी : सिलिकॉन सिटी इंदौर (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवासी ...
मिलकर दीप जलायें 
कविता

मिलकर दीप जलायें 

डॉ. सत्यनारायण चौधरी "सत्या" जयपुर, (राजस्थान) ******************** आओ सभी मिलकर दीप जलायें इस दीपावली नवदीप जलायें । जो ज्ञान का दे प्रकाश, चलो ज्ञानदीप जलायें। जो जाति-पाति का मिटा दे अंधेरा, एक ऐसा धर्मदीप जलायें । जो अशुभ रूपी तम को हर ले, इक ऐसा शुभदीप जलायें। विज्ञान के दम पर हो भारत का नाम, एक ऐसा विज्ञानदीप जलायें। जनतन्त्र ना बदले, भीड़तन्त्र में, इक ऐसा जनदीप जलायें। चहुँ और हो प्रेम और सौहार्द, एक ऐसा प्रेमदीप जलायें। जन-जन हो प्रफुल्लित, इक ऐसा हर्षदीप जलायें। शूरवीरों की शहादत को ना भूलें, चलो एक शौर्यदीप जलायें। संस्कृति का परचम फहरे जग में, एक ऐसा संस्कृतिदीप जलायें। भारतभूमि का हो यशोगान, इक ऐसा यशदीप जलायें। मिट जाए भेद ग़रीबी-अमीरी का, एक ऐसा समदीप जलायें। अक्षर के ज्ञान से हों सभी परिचित, इक ऐसा साक्षरदीप जलायें। पर्यावरण को रखना है स...
पहाड़ तोड़ विजय
धनाक्षरी

पहाड़ तोड़ विजय

विजय गुप्ता "मुन्ना" दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** देश में दिवाली रंग, दरक गई सुरंग, मजदूर बदरंग, बुरा वक्त होश का। सिलक्यारा टनल में, दबे हुए श्रमिक के धैर्य को करें नमन, रक्षा कर्म जोश का। मुसीबत राज करे, चहुं ओर सब घिरे, कोई थके कभी गिरे, लोग घबराते हैं। मुसीबत पहाड़ का, बंद सब किवाड़ भी, विकल्प संकल्प बल, हौसला दिलाते हैं। सुई संग तलवार, थे छोटे बड़े औजार, मशीन जवान धार, देश करे प्रार्थना। मेला रेला कष्ट आए, टूट फूट खूब लाए, श्रमिक बातचीत से, भूलते कराहना। सत्रह दिवस तक, दोनों ओर भरसक, तरकस के तीर से, ढूंढते संभावना। घंटे चार शतक में, खाना पीना दवाई से, सत्ता जनता देश की, देखो सदभावना। तमस भरी दुनिया, उमस रही बगिया, प्रयास वाली कलियां, सतत खिलाते हैं। रक्षा जीवनदायिनी, सुकर्म वरदायिनी, पहाड़ तोड़ विजय, वापसी सौगातें हैं। परिचय :- विजय कुमार गुप्...
उजड़ जाती जिंदगी
कविता

उजड़ जाती जिंदगी

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** शराब क्या होती है ख़राब कोई कहता गम मिटा ने की दवा जिंदगी में कितने गम और कितने ही कर्म दोस्तों की शाम की महफ़िल जवां होती ,हसीं होती बड़े दावे बड़ी पहचान के दावे सुबह होते हो जाते निढाल रातो को राह डगमगाती जैसे भूकंप आया या फिर कदम लड़खड़ाते हलक से नीचे उतर कर कर देती बदनाम जैसे प्यार में होते बदनाम शराबी और दीवाना एक ही घूमती दुनिया के तले मयखाने करते मेहमानों का स्वागत जैसे रंगीन दुनिया की बारात आई तमाशो की दुनिया में देख कर हर कोई हँसता/दुबकता दारुकुट्टिया नामंकरण हो जाता रातों का शहंशाह सुबह हो जाता भिखारी बच्चे स्कूल जाते समय पापा से मांगते पॉकेट मनी ताकि छुट्टी के वक्त दोस्तों को खिला सके चॉकलेट फटी जेब और खिसयाती हंसी दे न पाती और कुछ कर न पाती बच्चों के चेहरे की हंसी छीन लेती इ...
घर को घर ही बनाएं
कविता

घर को घर ही बनाएं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** स्वर्ग बनाने से अच्छा है घर को घर ही बनाएं, मिथ्या स्वर्ग-नरक में न उलझाएं, सिर्फ बेटी में ही दोष न देखें, उनकी भावनाओं को भी सरेखें, घर को मकान ही रहने देने का जिम्मेदार नशेड़ी बेटा भी हो सकता है, लालची भाई भी सुख शांति का धनिया बो सकता है, बहू से कुढ़ती-नफरत करती सास भी घर का माहौल बिगाड़ सकती है, उच्छलशृंख ननदें संबंध उखाड़ सकती है, संयुक्त परिवार की बेटी भी बहू बन एकल परिवार खोजती है, एकता मधुरता को तह तक नोचती है, घर सबसे मिलकर बनता है, तब मुखिया का सीना तनता है, दहेज शब्द घर का नहीं धनलोलुपों के स्वार्थ का नाम है, ये अकड़ दिखा भीख मांगने का काम है, घर में तनाव लेकर न जाएं, सभी अपनी जिम्मेदारी उठाएं, मिलजुलकर समस्याओं का समाधान खोज घर को घर ही बनाएं। परिचय :-...
शूलों से भरा प्रेम पथ
गीत

शूलों से भरा प्रेम पथ

मीना भट्ट "सिद्धार्थ" जबलपुर (मध्य प्रदेश) ******************** है शूलों से भरा प्रेम-पथ, मनुज-स्वार्थ के खम्भ गड़े। कुछ भौतिक लाभों के कारण, कौरव पांडव देख लड़े।। क्रोध घृणा जग मध्य बढ़ा है, प्रेम सुधा का काम नहीं। त्याग समर्पण को भूले सब, समरसता का नाम नहीं।। अवरोधों को पार करो सब, छोटे हों या बहुत बडे़।। धर्म-कर्म करता ना कोई, गीता का भी ज्ञान नहीं। मोहन की मुरली के जैसी, मधुरिम कोई तान नहीं।। बहु बाधित सुख शांति हुई है, नाते हुए चिकने घड़े।। तप्त हुई वसुधा पापों से, दानव हर पल घात करें। भूल भावना सहयोगों की, राग-द्वेष की बात करें। आवाहन करते खुशियों का, दो मोती प्रभु सीप जड़े।। परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ" निवासी : जबलपुर (मध्य प्रदेश) पति : पुरुषोत्तम भट्ट माता : स्व. सुमित्रा पाठक पिता : स्व. हरि मोहन पाठक पुत्र : सौरभ भट्ट पुत...
दीपक-महिमा
दोहा

दीपक-महिमा

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** दीपक का संदेश है, अहंकार की हार। नीति, सत्य अरु धर्म से, पलता है उजियार।। उजियारे की वंदना, दीपक का संदेश। कितना भी सामर्थ्य पर, रहे मनुज का वेश।। मद में भरना मत कभी, करना मत अभिमान। दीपक करने आ गया, आज तिमिर-अवसान।। दीपों के सँग है सजा, विजयभाव -आवेश। विनत भाव से जो रहे, परे करे क्लेश।। निज गरिमा को त्यागकर, बनना नहीं असंत। वरना असमय ही सदा, हो जाता है अंत।। पूजा में दीपक जले, जलकर रचता धर्म। समझ-बूझ लें आप सब, यही पर्व का मर्म।। कहे दीप की श्रंखला, सम्मानित हर नार। नारी के सम्मान से, हो जग में उजियार।। उजियारा सबने किया, हुई राम की जीत। आओ हम गरिमा रखें, बनें सत्य के मीत।। कोशिश करके मारना, अंतर का अँधियार। भीतर जो अँधियार है, देना उसको मार।। अहंकार मत पोसना, वरना तय अवसान । उजियारे...
हम बासी उपमाओं से
गीत

हम बासी उपमाओं से

भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल (मध्य प्रदेश) ******************** टँगे अरगनी पर हम बासी उपमाओं-से। साध लिया है लक्ष्य व्यंजना ने जुगाड़ कर। हार गया अभिधा का भाषण लट्ठमार कर।। जीत न पाये जीवन का रण प्रतिमाओं से। टँगे अरगनी पर हम बासी उपमाओं-से।। १ वंचित रहे विशेषण अपने कर्म पंथ पर। सर्वनाम हम, हिस्से आया गरल सरासर।। जान बचाने भाग रहे हम संज्ञाओं से। टँगे अरगनी पर हम बासी उपमाओं-से।। २ कूड़ा-करकट धूल हुए उपमान हमारे। संबंधों की नदियों ने दो दिए किनारे।। किंतु बहें हम नौ रस बन के कविताओं से। टँगे अरगनी पर हम बासी उपमाओं-से।। ३ तथ्य हीन शब्दों के जाले में नित उलझे। प्रश्न प्यास के रहे उम्र भर ही अनसुलझे।। हाथ जलाते रहे रोज हम समिधाओं से। टँगे अरगनी पर हम बासी उपमाओं-से।। ४ परिचय :- भीमराव झरबड़े 'जीवन' निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ क...
मेरा गाँव
कविता

मेरा गाँव

सोनल सिंह "सोनू" कोलिहापुरी दुर्ग (छतीसगढ़) ******************** बड़ा प्यारा था मेरा गाँव, आँगन में थी पीपल छाँव। जहाँ चलते हम पाँव -पाँव, रुकने के थे अनेको ठाँव। संगी, संगवारी बचपन के साथी, खेल-खिलौने, कबरी गाय। इन संग खेले बड़े हुए हम, पीते कुएँ का मीठा पानी। दादी-नानी की कहानी, याद हमें रहती थी जुबानी। दादा जी की मीठी बानी, आसान बनाती थी जिंदगानी। भोर की सुनहरी लाली, हरी चादर ओढ़े धरती मतवाली। फसलों का खेतों में लहराना, धूम-धाम से हर त्यौहार मनाना। पंछी को दाने खिलाना, मीलों पैदल चलते जाना। साथियों संग धूम मचाना, बफिक्री में वक्त बीताना। एक दूजे का हाथ बँटाना, संग-संग रोना मुस्कुराना। हर किसी से रिश्ता जुड़ जाना, मिलकर गीत खुशी के गाना। रोजी रोटी के चक्कर में, छूट गया अब गाँव हमारा। शेष रहा अब यही फसाना, होगा मेरा कब लौट के जाना। परिचय - सोनल ...
घड़ी
कविता

घड़ी

ललित शर्मा खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम) ******************** कांटे की घूमती, सिखाती कहती बिन थमे चलती हूं, हर दिन हर पल नाम है घड़ी, बिन गति बदल मेरी टिक टिक, आती है आवाज समय है कीमती टिक टिक में कहती समय, घड़ी, पल की दिलाती याद न रुका न रुकेगा, कीमती पल साथ घड़ी कहती समय पल घड़ी मत बदल मत रुक एक पल, मूल्यवान हर पल समय व्यर्थ कर न आज, न कर कल न समय न घड़ी न एक पल आएगा कल नाम है घड़ी मेरा, चलती बिन गति बदल हर पल हर दिन रहती अविराम बदलती नहीं बिल्कुल भी गति समझो सीखो कर लो पल कीमती नाम है एक घड़ी, कभी नहीं रुकती समय घड़ी पल की जिमेवारी रखती मैं रुकती नहीं, तू भी मत रुक, कर्म करते बढ़ते कभी न थक न थम न थक बस चल हर पल बिन सांस, चलती हूं हर पल हूं घड़ी, चलती हूं कांटे के बल धूप बरसात न मौसम की बात जब समय घड़ी में आये विध्न बाधा न चिंता तू आज कर, न कर कल चलती हूं ...
हें अनादि परमेश्वर मेरे
कविता, स्तुति

हें अनादि परमेश्वर मेरे

अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** जिसका आदि अंत न होता, वह अनादि कहलाता। अंत रहित, प्रभु सदा सर्वदा, हैं अनंत फल दाता। जो शाश्वत हैं, सदा सनातन, वह अनादि भगवन हैं। गर्भवास से मुक्त रहें जो, बसते जो जन मन हैं। आदि अंत से रहित अविद्या, दोष न जिसको होता। नस-नाड़ी बंधन से विलगित, कोई जनक न होता। जो प्रारंभ नहीं होता है, सदा सनातन रहता। आदि रहित उस परम तत्व को, मानव भगवन कहता। जिसकी प्रकृति अनंत अनादी, परमात्मा है प्यारा। सदा अजन्मा, शाश्वत है जो, सारे जग से न्यारा। प्रकृति, जीव, परमात्मा तीनों, आदि अंत से ऊपर। नाशवान वह है दुनिया में, जो आया है भूपर। हैं अनादि परमेश्वर मेरे, अंत रहित हैं स्वामी। सारे जग के पालन कर्ता, हैं प्रभु अंतर्यामी। रूप, रंग, आकार रहित प्रभु, हैं अनादि कहलाते। प्रभु से सब जन्मे, सब जाकर, प्रभु ...
गोरैया (अवतार छंद )
छंद

गोरैया (अवतार छंद )

शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप' तिनसुकिया (असम) ******************** अवतार छंद विधान अवतार छंद २३ मात्रा प्रति पद की सम मात्रिक छंद है। यह १३ और १० मात्रा के दो यति खंड में विभक्त रहती है। दो-दो या चारों पद समतुकांत होते हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है- २ २२२२ १२, २ ३ २१२ चूंकि यह मात्रिक छंद है अतः २ को ११ में तोड़ा जा सकता है, किंतु आदि द्विकल एवं अंत २१२ (रगण) अनिवार्य है। अठकल के नियम अनुपालनिय है। फुर फुर गोरैया उड़े, मदमस्त सी लगे। चीं चीं चीं का शोर कर, नित भोर वो जगे।। मृदु गीत सुनाती लहे, वो पवन सी बहे। तुम दे दो दाना मुझे, वो चहकती कहे।। चितकबरा तन, पर घने, लघु फुदक सोहती। अनुपम पतली चोंच से, जन हृदय मोहती।। छत, नभ, मुँडेर नापती, नव जोश से भरी। है धैर्य, शौर्य से गढ़ी, बेजोड़ सुंदरी।। ले आती तृण, कुश उठा, हो निडर भीड़ में। है कार्यकुशलता भरी, निर्माण नीड़ में।। म...
हे! कृष्ण-कन्हैया
स्तुति

हे! कृष्ण-कन्हैया

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** द्वापर के है! कृष्ण-कन्हैया, कलियुग में आ जाओ। पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।। अर्जुन आज हुआ एकाकी, नहीं सखा है कोई। राधा तो अब भटक रही है, प्रीति आज है खोई।। गायों की रक्षा करने को, नेह-सुधा बरसाओ। पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।। इतराते अनगिन दुर्योधन, पांडव पीड़ाओं में। आओ अब संतों की ख़ातिर, फिर से लीलाओं में।। भटके मनुजों को अब तो तुम, गीतापाठ सुनाओ। पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।। माखन, दूध-दही का टोटा, कंसों की मस्ती है। सच्चों को केवल दुख हासिल, झूठों की बस्ती है।। गोवर्धन को आज उठाकर, वन-रक्षण कर जाओ। पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।। अभिमन्यु जाने कितने हैं, घिरे चक्रव्यूहों में। भटक रहा है अब तो मानव, जीवन की राहों में।। कपट म...
बुढ़ापा
कविता

बुढ़ापा

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** जिंदगी का सच सुबह आईने में देखा खुद ही का चेहरा कितना बदल चूका मन के भाव आज जवान चेहरे पड़ी झुर्रियां को ढांकने की कोशिश बालो को काला करके युवाओं की होड़ में शामिल होने की ललक में थक चुके कई इंसान ऐसा लगता बुजुर्गी का मानो कोई इम्तिहान हो आवाज में कंपन घुटनो में दर्द मानों सब खेल मुंह मोड़ चुके बतियाने को रहा गया अनुभवों का खजाना और फ्लेस बैक यादों का आईने में अकेला निहारता चेहरा और बुदबुदाता सभी को तो बूढ़ा होना ही एक न एक दिन युवा बात करे पल भर हमसे भागदौड़ की दुनिया से हटकर मन को सुकून मिल जायेगा अकेले बतियाने और आईने में चेहरे को देखकर सोचता हूँ, बुढ़ापा क्या ऐसा ही आता है। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्...
बेशक मैं …
कविता

बेशक मैं …

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बेशक मैं अब दुश्मन की श्रेणी में आता हूं। पर जब भी मेरे अपनों को जरूरत पड़ी दिल से दुआएं दे जाता हूं, हां होता रहता है अपनों के बीच गिले शिकवे नाराजगियां, मुसीबतों में खुद से सबकी बलाएं ले जाता हूं, महरूम हूं लाड़ प्यार दुलार से, नाराज नहीं किसी के गाली गलौज या लताड़ से, झंझावतों से जूझते रहने का नाम ही है जिंदगी, पर किया हूं दिल से हर रिश्ते की बंदगी, पर मैं वो जालिम नहीं कि बंधे बंधन की डोर पर बिजली गिराता हूं, बेशक मैं अब दुश्मन की श्रेणी में आता हूं। नहीं मेरे पास अकूत संपत्ति, रुपये-पैसे, जमीन-जायदाद, रूठों को मनाने किसे करूं फरियाद, चल रही है मेरे परिवार की गाड़ी जैसे तैसे, तूफानों से घिर बचा हूं कैसे, मौत से पहले शायद मना न सकूं रूठों को पर अपने हिस्से का फर्ज़ निभाता हूं, बेशक ...
जंजीर
कविता

जंजीर

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** शादी कर जंजीरों में ना बांधे, मुझे जीवन में कुछ करना है, मेरा हक मेरे भविष्य को अभी तो मुझे सँवारना है, स्कूल जाने का समय है मेरा, नहीं ससुराल में जाने का, डॉक्टर वकील प्रोफ़ेसर है बनना, हक ना छिनो मेरा है, घर के जंजीरों से ना जकड़ो, ना बेडी डालो तुम? स्कूल चले स्कूल चले स्कूल चले सब मिलकर हम, सभ्यता संस्कारों की जननी, "स्कूल" मेरे भविष्य का भाग्य विधाता, शिखर छूकर मुझे हे आना, मेरे पैरों मै जंजीरे ना बाँध तुम, आधुनिक भारत का सपना, आत्मनिर्भर भारत का सपना, साकार तभी हो सकता है, "बेटी पढ़ाओ बेटी बढ़ाओ" तभी साकार हो सकता है, "मेरी पढ़ाई मेरा भविष्य" इसको नहीं गँवाना है, उम्र से पढ़ना, एक उम्र में शादी यही जीवन की सफलता है, "हम पढ़ेंगे हम बढ़ेंगे" नहीं शादी की जंजीरों में बाँधो तुम, अपना "भविष...
सर्व-दीपक जला हम उजाला किए…
कविता

सर्व-दीपक जला हम उजाला किए…

बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा। दीप की संस्कृति आज उज्ज्वल हुई, अब चली जा रही है गहनतम अमा। हर नगर हर निलय आज रौशन हुआ, हर जगह आज दीपित है एक शमा। मन हर्षित हुआ, तन है पुलकित हुआ, सप्तरंग सजी है दीया अरु दशा। सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।। 'राग-दीपक' अलापित कहीं हो रहा, ये हृदय आज स्वर में कहीं खो रहा! उठ रही है चहक आज हर द्वार पे, जैसे बाती-दीया का प्रणय हो रहा ! गीत-माला हृदय की महकने लगी, अरु बहकने लगी है हर एक दिशा। सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।। ये 'प्रकट-बाह्य-अन्तर-की' ज्योति जली, जो मन-उत्सवी का सद्व्यवहार है। है सदा ही सृजन जिस मनुज के हृदय, ऐसे हर्षे-रसिक का व्यापार है। समशीतोष्ण-जलवायु प्रकृति ...
चलायमान पथ
कविता

चलायमान पथ

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** घुटन भरी जिंदगी जब जग से उब कर चलते-चलते अलगाव के पडाव पर, कुछ समय रुक ती है सुस्ताती है तो चलायमान पथ उससे पुछता है क्यो तुम रुक गई उड़ नहीं सकतीं पंख नहीं है तुम्हारे चलों उठो आगे बढ़ो मैं साथ हूं तुम्हारे मैं चल दी उठकर उस अचल पथ के साथ उसकी दृढ़ता देख दृढ़ता से निकल पड़ी गंतव्य की खोज में परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती रही आकाशवाणी इंदौर से भी रचनाएं प्रसारित होती रहती हैं व वर्तमान में इंदौर लेखिका संघ...
सम्पर्क सुख
कविता

सम्पर्क सुख

ललित शर्मा खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम) ******************** रिमोट बटन कमान में, काम का बदलता रूप हर काम में डिजीटल ले रहा है नया रूप बदलता युग बदला काम डिजीटल से काम की कमान का मानव ले रहा मनचाहा सुख नितप्रतिदिन डिजीटल का बढ़ता बदलता सुख कामकाज का प्रचलन, बनाया सरल बना लिया है बखूब, डिजीटल के काम की आधुनिक पद्धति बना ली है हर क्षेत्र के काम में अपनी बना ली एक स्मार्ट गति दिखता है डिजीटल का काम अनोखा और अद्भुत हाथ से काम की आदतें वे आदते देखने को मिल नहीं रही जिधर देखो वे हाथ की विद्याये डिजीटल के भरोसे अब गई सबकी छूट और अब डिजीटल से ही नजर आता है कैसे कितना बदल डाला है डिजीटल का युग डिजीटल से देख रहा स्थानों को डिजीटल से देखता है सब रुट कर रहा है हर मानव काम, काम कर लिया है आसान जीवनशैली में हर व्यक्ति की भागदौड़ डिजीटल के भरोसे ही ले आय...