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हास्य

चने का झाड़
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चने का झाड़

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित-अनायास ही तनिक-अधिक उन्नति पाकर मनः स्थिति में उपजित परोक्ष निर्मूल अभिमान को।   मैं चने का झाड़ हूँ नहीं कोई ताड़ हूँ। बावजूद इसके मेरी घनघोर छाया क्योंकि फैली दुनिया में बेपनाह माया हर किसी को सुलभ कराता भरपूर 'लाड़ हूँ' मैं 'चने का झाड़' हूँ। कुछ तो उपलब्धि पाता है, यूँ ही नहीं हर कोई मुझमें बैठ अन्य को धता बताता है । "चढ़ गए चने के झाड़ में" ये तंज मुस्कुराकर झेल जाता है। मिली ज़रा सी शोहरत इज्ज़त दौलत तब उसका ना कोई अपना ना ख़ूनी ना जिगरी रिश्ता काम आता है। सिर्फ़ एक 'चने का झाड़' ही तो दुलरता है। ऐंसा मैं नहीं मानता पर दुनियां में ही तो कहा जाता है। ज़नाब, तब तो कंधे पर बैठाकर घुमाने वाले, मां-बाप भी छूट जाते हैं। (व्यंग्य का तड़का) मेरी मजबूत टहनियों में लटककर ही तो आदमी और मजबूती पाते हैं। उत्तरोत्तर उन्नति की मिसाल हूँ, ब...
ये पब्लिक हैं, सब जानती है…
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ये पब्लिक हैं, सब जानती है…

विमल राव भोपाल म.प्र ******************** विशेष :- पुरानी कहावतों व गीतों का व्यंग में समावेश एक छोटे बच्चे से हमनें पूछा ? बेटा कविता आती हैं क्या ? प्रति उत्तर में इस बच्चे की प्रतिक्रिया देखे - बच्चा बोला श्रीमान जी - कविता आती नही, सविता जाती नही, सुषमा बुलाती नही। नीतू आंटी नें पापा कों बुलाया हैं, बस इतनी सी बात पर मम्मी नें मुँह फुलाया हैं, मेरे समझ में नही आता माँ मान क्यों नही जाती कुछ दिन शर्मा जी के सांथ क्यों नही बिताती इस तरहा बार बार रूठने से अच्छा हैं माँ एक बार रुठे ! साँप भी मर जायें, और लाठी भी ना टूटे... आज कल में इनकी समस्याओ का समाधान कर रहा हूँ, दिन रात इन्हें एक करने की कोशिश कर रहा हूँ मेरे लाख समझानें पर भी, इन्हें कुछ समझ नही आयें, पिताजी का तों अब भी, यही कहना हैं ! दुल्हन वहीं जो, पिया मन भाए... इनकी हर रोज़ लड़ने की आदतों से, मैं पक चुका हूँ ! समझ...