रजनी के दोहे
रजनी गुप्ता 'पूनम चंद्रिका'
लखनऊ
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१
तुमसे है माँ शारदे, बस इतना- सा काम।
रचना मैं करती रहूँ, लेकर तेरा नाम।।
२
रचना के भीतर बसें, सदा हमारे इष्ट।
चले तीव्र जब लेखनी, कटें हमेशा क्लिष्ट।।
३
रचना के भीतर बसे, ऐसा सदा विचार।
जनमंगल की भावना, उर में करे विहार।।
४
रचना रसना एक- सा, करतीं सदा प्रहार।
इनसे बचना है कठिन, ऐसा इनका वार।।
५
रचना रसना बन कभी, करती जब ललकार।
बड़े- बड़े जो सूरमा, गिरें पछाड़ी मार।।
६
रचना की माया महा, गाते सूर कबीर।
इसमें मीरा की व्यथा, झाँके बनकर पीर।।
७
रचना के हित कर दिया, रत्ना ने दुत्कार।
तुलसी से हमको मिला, मानस का उपहार।।
८
रचना रचना से जले, यही आज की रीति।
रचना रचना से करे, कहाँ यहाँ पर प्रीति।।
९
बैठी रचना की सभा, कविवर हाँकें डींग।
घूमें सब पण्डाल में, यथा गधे बिन सींग।।
१०
रचना तेरी चाकरी, करते सब विद्वान।
तेरी महिमा से बनें, जग ...