गुनाह क्या है
विवेक रंजन 'विवेक'
रीवा (म.प्र.)
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मेरे पैरों में जब भी काँटा चुभा,
उस बेदर्द से बस यही मैंने पूछा-
बताओ ना तुमने क्यों घायल किया है?
कहता नफ़रत का मैंने हलाहल पिया है।
जिया हूँ बहुत सियाही रातें,
कभी तो पूनम मुझे मिलेगी।
मगर कभी ना मुझे लगा था,
मेरी ही कली यूँ मुझे छलेगी।
अरे ! मैं तो जी भर के तोड़ा गया हूँ,
किस्मत के हाथों मरोड़ा गया हूँ।
नहीं देख पाया बहारों के सपने,
खिज़ा की तरफ ही मोड़ा गया हूँ।
इसलिये चुभता और चुभाता हूँ सबको,
एहसास उसी दर्द का कराता हूँ सबको।
मेरे पास तो है बस घृणा की विरासत,
वही बाँटता फिरता रहता हूँ सबको।
बाँटकर भी ये नफ़रत ना कम हो सकेगी,
रेत सेहरा की भी क्या शबनम हो सकेगी??
एक ही कोंपल,डाल के हम थे साथी,
मगर फूल ने मेरी दुनिया भुला दी।
मैंने हर पल सजाया,संवारा कली को,
भंवरे से प्रेम की लौ उसने जला दी।
कहती चुभने लगे हो तुम हर सांस में,
और...