मैं भी कभी ज़ुबान थी
सूर्य कुमार
बहराइच, (उत्तर प्रदेश)
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मैं भी कभी ज़ुबान थी
ज़बान की ज़ुबान थी
मैं भी कभी ज़ुबान थी
सच बोलने को तरस गयी
सच का कभी विधान थी
उसूलों का मैं ही बयान थी
मैं भी कभी ज़ुबान थी
क्या आज ये सब हो गया
माया में मोह फँस गया
छल-कपट में धँस गयी मैं
मैं बेशक़ीमत गुमान थी
मैं भी कभी ज़ुबान थी
हर यक़ीन की जान थी
पुरखों की आन-बान थी
अद्भुत ही मेरी शान थी
गूँगों की मैं पहचान थी
मैं भी कभी ज़ुबान थी
दिमाग़ की तरंग थी
दिलों की मैं उमंग थी
जज़्बों का मैं ही रंग थी
जवानी की अनंग थी
जिह्वा की भाषा थी
ग़रीब की आशा थी
नेताओं का सम्मान थी
विश्वास और मान थी
मैं भी कभी ज़ुबान थी
ज़बान मेरी मात थी
वो ही सही सौग़ात थी
इज़्ज़त उसी से थी मेरी
उसकी भी इज़्ज़त मैं ही थी
मैं भी कभी ज़ुबान थी
इन्सान का ईमान थी
मुझसे जुड़ा समाज था
मुहब्बत का पैग़ाम थी
मुझसे बदल...