शरद ऋतु
सपना
दिल्ली
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शरद ऋतु आते ही
सूरज दादा भी खेलें
हमसे आँख मिचोली
देर से आते
जल्दी चल बनते,
कभी रहते दिन भर गायब....
दिन निकलता पर
होता नहीं उजाला
चारों ओर रहता अंधेरा छाया
ऐसा लगता मानो कोहरे
का आतंक सब पर है भारी.....
उस पर
सर्द हवाएं, शीत लहर से
कट कट करते दांत बजते
रोज़ नहाना होता बेहाल
पानी भी बन जाता दुश्मन
देखते ही इसे
भागते सब दूर दूर...
कबंल, रजाई छोड़
उठने की न अब हिम्मत होती
गर्म कपड़े डालो जितना
फिर भी ठंड से राहत नहीं
उस पर भी जुकाम, खांसी
सबको लेते अपने घेरे में
होठ, पैर सब फट जाते
मानो जैसे
रुखापन जीवन में बस जाता...
गली, मुहले में
अब न होती पहली वाली रौनक
सब घर के अंदर
दुबके है मिलते
चारों ओर बस
सन्नाटा छाया रहता.....
रहम करो अब तो
हम पर सूरज दादा
चीर इस कोहरे को
अपनी किरणों से
तुम फिर से अपना
परचम लहराओ
ठिठुरते जीवों को आकर
तुम राहत दो...!
परिचय :-...