सुशान्त सिंह राजपूत
आदर्श उपाध्याय
अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश
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जन्मते-जन्मते मुझको क्या दर्द सहा होगा मेरी माँ ने।
ज़िन्दग़ी बदलकर मेरी ले ली खुद की ज़िन्दग़ी मेरी माँ ने।।
बालपन से किशोरपन, किशोरपन से युवा को देखा मैंने।
अपने कितने ख़ुदगर्ज़ हैं , अपनो से ही देखा मैंने।।
ज़िन्दग़ी को जीते-जीते ज़िन्दग़ी से हार गया मैं।
दुनिया भर से लड़करके अपनों से ही हार गया मैं।।
जन्म देकर चली गयी वो दर्द न मेरा देखा उसने।
ज़िन्दग़ी के मेरे लम्हों को, कभी-कभी था देखा उसने।।
उसके आँचल का छाँव आसमाँ से भी बढ़कर था।
टिक न पाता सामने मेरे सीने पर जो चढ़कर था।।
ज़िन्दग़ी को समझते-समझते ज़िन्दग़ी ने ठुकरा दिया।
हमने जिसको चाहा उसने ज़िन्दग़ी से ही उतार दिया।।
हर दिन हर रात मेरी गुलाम सी हो गई थी।
पर मेरी चाहत ही मेरी इन्तक़ाम सी हो गई थी।।
खैर, मैं मरकर भी जी गया हूँ, अब जीवन भर माँ का साथ है।
उसको जी...