मैं राष्ट्र प्रहरी हूँ
मंजू लोढ़ा
परेल मुंबई (महाराष्ट्र)
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मैं राष्ट्र प्रहरी हूँ
मरने से नहीं डरता...!
सिर पर कफन बांधकर
चलता हूँ युद्ध के मैदान में,
सीना ताने
दुश्मनों के छक्के छुड़ा देता हूँ...!
न माइनस डिग्री की ठंड
न भयंकर गर्मी
मुझे परेशान करती है....!
विचलित करती है
तो घर से आई कोई चिट्ठी
जिसमें पत्नी के
आंसुओं में डूबे धुंधले शब्द ,
जब खत में उभरते हैं
तो जज़्बातों पर क़ाबू करना
मुश्किल सा लगने लगता है..!
याद आ जाती हैं
बच्चों की मासूम बातें ,
उनकी मासूम शरारतें ,
मानस पटल पर कौंध जाती हैं,
मैं भी कैसा बेबस हूँ
जो उन्हें पल-पल
बढ़ते देख नहीं सकता
बूढ़े माता-पिता की सेवा से वंचित
होने का तो ख़याल आते ही रुलाई
आ जाती है....! क्या-क्या याद करूँ!
दिल को टीस देने वाली
ऐसी कितनी ही बातें हैं....!
हाँ, पर यह सोच ....
अधिक वक्त तक
क़ायम नहीं रहती,
विचारों को झटक देता हूँ
मातृभूमि को वंदन क...