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कविता

घुंघट काड ले रे गुजरिया
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घुंघट काड ले रे गुजरिया

अलका जैन इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** घुंघट काड ले रे गुजरिया घुंघट काड ले रै घुंघट में मेरा जिया घबराय रे सांवरे मे ना लूं घुंघट मेरा जियो धडके रे सावरे जा गांवों की सारी लुगाई घुंघट डाले गुजरिया रे लोग थारे भला बुरा बोलेंगे गुजरिया रे कहनो मान लें रे गुजरिया कहा मान रै घुंघट काड ले रे गुजरिया घुंघट डाल लें गांव की सारी लुगाई घुंघट डाले लम्बो-लम्बो रे गुजरिया रिवाज ना छोड़ गुजरिया रे औ गुजरिया कहनो मान लें रे गांव की सारी लुगाई काली-काली से ले जा मारे वो लम्बो-लम्बो घुंघट काढ़े ये सांवरिया रे मेरा रूप रंग चांद सा सुंदर में काहे डालूं घुंघट डालूं सारा गांव में मेरे प्यार में पागल से ले सांवरिया रे दिवाना रे घुंघट काड ले रे गुजरिया घुंघट डाल लें रे मैं रूप की रानी काहे डालूं घुंघट रे सांवरिया घुंघट काड ले रे गुजरिया घुंघट डाल रे परिचय :- इ...
ज्योतिपुंज
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ज्योतिपुंज

महेन्द्र सिंह कटारिया 'विजेता' सीकर, (राजस्थान) ******************** महा ज्योतिपुंज को कर नमन, आओं मिल हम संकल्प धरें। शोषित निराश्रितों के बन मसीहा, पुरज़ोर शिक्षा की अलख जगाएं। दलितोत्थान के बन प्रबल समर्थक, मिल जाति धर्म का भेद मिटाएं। हो ज्ञान-विज्ञान से साक्षात, अज्ञान तमस को दूर भगाएं। सामाजिक कुरीतियों को कर दूर, फुले दम्पत्ति के आदर्श अपनाएं। क्रांति सूर्य के विचारों को आत्मसात करें, महा ज्योतिपुंज को कर नमन....। नारी शिक्षा को दे बढ़ावा, आदिकाल से कितने कष्ट सहे। जब बनें आत्मनिर्भर व स्वालंबी, तब कैसे? करूणा के अश्रु बहे। विद्यार्जन कर नारी बनें विदुषी, जीवन विपदाओं से न घिरे। बनें अनुशासित कुटुम्ब समाज, परिवार एक से दो तरे। अनगिनत यातना अत्याचार हरे, महा ज्योतिपुंज को कर नमन....। कर दीनहीन निराश्रितों की मदद, निज सा उभारने की कोशिश करें। हर मानव धरा...
तरस रही हूँ
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तरस रही हूँ

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मोम की तरह पूरी रात दिल रोशनी से पिघलता रहा। पर वो इस हसीन रात को नहीं आये मेरे दिल में। मैं जलती रही और नीचे फिर से जमती रही। फिर से उनके लिए जलने और उनके दिल में जमाने के लिए।। हर रात का अब यही आलम है वो निगाहें और वो दरवाजा है। देखती रहते है निगाहें दरवाजे को शायद वो आज की रात आ जाए। इसलिए सज सबरकर बैठी हूँ चाँद के दीदार करने के लिए। और कब उनके स्पर्श से अपने आपको इस रात में महका सकू।। इस सुंदर यौवन शरीर का क्या करू जो उन्हें आकर्षित नहीं कर सका। लाख मुझे लोग रूप की रानी और स्वर की कोकिला कहे पर। ये सब अब मेरे किस काम का है जो उन्हें अपनी तरफ लगा न सका। इसलिए हर शाम से रात तक और फिर पूरी रात जलती और जमती हूँ।। ये मोहब्बत है या वियोग या और कुछ हम आप इसे कहेंगे।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के...
अपना पराया
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अपना पराया

योगेश पंथी भोपाल (भोजपाल) मध्यप्रदेश ******************** पड़ोसी सारे अपने है और घर के है गैर पड़ोसी सांथ है निभा रहे घर को में बैर पड़ोसियों से हो रहा अपनेपन का भान घर में भाई रह रहे जैसे हो अनजान आज घरो से मिट रहा सारा शिष्टाचार भाई भाई के बीच में बनी रहे तकरार मांत पिता से कर रहे बच्चे ऐसे बात बात बात में मारते जैसे जूते लात बाहर के सब लोग तो देते है सम्मान लेकिन घर के भीतर हीं क्षीर्ण हुआ है ज्ञान भीतर भीतर ढूंढ़ते है खुद का सम्मान किसको आदर भाव कब स्वयं नही है ज्ञान छोटो को तो क्षमां नही बढ़ो को न सम्मान आप ही नें बना लिया केसा ये अभिमान बड़ा समझता है खुदको तो झुक कर रहना सीख अभिमानी को तो कभी मांगे मिले न भीख छोटा बन कर देखले हे छोटी सी बात झुकजाने से न कभी घटती अपनी जात पेड़ आम का देखलो देखो पेड़ गुलाब भरे हो फल और फूल से झूटे जा...
जिंदगी का ये सच
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जिंदगी का ये सच

डॉ. तेजसिंह किराड़ 'तेज' नागपुर (महाराष्ट्र) ******************** अपनों के बीच संबंधों का आईना देखा हैं बहुत करीब से। बनते तो ये व्यवहार करने से पर बिगड़ जाते हैं कर्कश शब्दों से। रिश्तों के नाम पर ये कैसी वफा हैं उम्मीदें मन की सब लगाए बैठे हैं झूकना पसंद नहीं हर किसी को यहां झूठे अहं में वे जिंदगी गवां बैठे हैं। अकेलेपन का नासूर रोज निगल रहा अपनों से दूर हो रहा नाजुक ये रिश्ता कमबख्त जिंदगी का ये कैसा सच हैं जी कर रोज दफन हो रहा ये रिश्ता । ना चेहरों पर खुशी हैं ना रिश्तों में प्रेम नकली मुस्कान का ये कैसा दर्द। एहसास हो जाता हैं नकली बनावट से रिश्तों के संबंधों से टूटकर बिखर गया अपनों से अपनों का वो अपना दर्द । सरल नहीं इतना आसान जीने का जितना जीने को जीने के लिए चाहिए। समय व्यर्थ गवां बैठे हम इस जहां में अब जिंदगी को सबकी परीक्षा चाहिए करोड़ों जन्म क...
बदला रूप बादल दिखाया
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बदला रूप बादल दिखाया

धर्मेन्द्र कुमार श्रवण साहू बालोद (छत्तीसगढ़) ******************** जेठ निकले तो आषाढ़ आया, उमड़-घुमड़ कर बादल आया। बदला रूप बादल दिखाया, झमाझम रिमझिम पानी बरसाया।। धरती माता कर रही पुकार, बिल से निकलो दौड़ो पार। साँप बिच्छू सब जीव अपार, मेंढक टर्र टर्र किया जोरदार।। मेघ देख जल बरसाया, बदला रूप बादल ... बैसाख की घमोरियां मिटाई, गरमी की तो उमस भगाई। पुरवैय्या,पछुआ से जग सरसाई, धरती की सौंधी खुशबू आई।। पेड़-पौधे,फूल-पत्ती मौज मनाया, बदला रूप बादल ... किसान खेती में लग गये भाई, हल चलावत करे बुआई। आगे महिना आषाढ़ जुलाई, मदरसा खुल गई करें पढ़ाई।। गुरूजी ने तो खूब पढ़ाया, बदला रूप बादल ... भारत भूंईया हरियाली छाई, मौसम देख कर मुस्कराई। देखो देखो घटा अब आई, मोर पपिहा सब चिल्लाई।। मनोरम दृश्य श्रवण को भाया; बदला रूप बादल ... परिचय :- धर्मेन्द्र कुम...
ओम प्रीत की जोड़ी
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ओम प्रीत की जोड़ी

ओमप्रकाश श्रीवास्तव 'ओम' तिलसहरी (कानपुर नगर) ******************** निजस्वप्न में सोचा था मैंने एक सुंदर सा मेरा हमसफ़र होगा। जीवन पथ में बढ़ने को बेहद ही खूबसूरत सा सफर होगा। मिला आशीष जब माता का इक्कीस जून नव को मैं प्रीति से मिला। परिणय बंधन में बंधकर एक दूजे को जीने का शुभआलम्ब मिला। मिथिला अरुण की कली को वेद अश्वनी के पुष्प ने जीवन साथी बनाया। दोनों परिवारों ने देखो कितना सुंदर पुष्पों का यह एक हार बनाया। हर पल हर क्षण तेरा मेरा दिल से दिल का खूबसूरत साथ रहता है। जुबाँ कुछ कहे या ना कहे पर, जज्बात हर बात अपनी एकदूजे से कहता है। विचारों का टकराव तो कभी कभार जीवन में होता ही रहता है। पर अंतर्मन की नदी से प्रतिपल प्रेम का बहाव सदा बहता रहता है। ओम प्रीत के उपवन में मान्यता उपलब्धि देवी रूप में आई, श्रीवास्तव परिवार को देखो असीम उपलब्धियाँ हैं दिलाई...
मूक क्रांति हो
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मूक क्रांति हो

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** भार ज्यों धरा उठा रही पवित्र पातकी। क्लेश ना ही द्वेष हिय समान भाव मातृ सी। हो सशक्त नारी तो ना बंदिनी वो वंदनीय। अवनि के आलोक से करे प्रभा आकाश की।। बन कुमुद है शोभती जो दामनी सी कौंधती। रोड़ो को स्वयं वधे वैधव्यता को बांधती। कर दमन आडंबरों का शांत व्यंग्य रागिनी। भेदभाव भस्म यूँ करे कोई दावाग्नि।। निश्चयों को दृढ़ करे सुमार्ग पथ स्वयं वरे। लक्ष्य पक्ष में करे वो दिव्यता को धारती। तर्क भेदी शूल कुप्रथाएं सारी धूल हों चित्त शांति व्यक्त तृप्त आत्माभिमान की।। सूर्य के समान तेज वायु सा प्रचंड वेग। फूल सी खिली हो फिर भी अग्नि में तपी हो जो। झेलती चली हो रूढ़ि और सारे बंधनो को। उठ खड़ी बेबाक उनको रौंदती बढ़ी हो वो।। राह में हों कितने कष्ट लोग हो चले हों रुष्ट । हों अनन्य दुष्ट एक क्षण भी ना डिगी हो जो। इस धरा सी...
आंखें थकती नहीं
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आंखें थकती नहीं

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** सजग प्रहरी बन गई, सीमा पर टकटकी, दुश्मनों को ढूंढती, देखे जो सोचती सही, नींद भरे नयन है, पर मजाल क्या छिपते, अनवरत देखती रहे, ये आंखें थकती नहीं। पहाड़ों पर बर्फ जमी, दूर तक वर्षा कहीं, फूलों की खुशबू में लगे, आंखें वहीं टिकी, पेड़ों के आलिंगन में, चूम लेती नभ दूरियां, ये आंखें थकती नहीं, माथे पर पड़े झूरियां। आंखें थकती नहीं, देखती व्योम के नजारे, अपना कोई मिल रहा, लग रहे सुंदर प्यारे, टकटकी लगा देखती, नृत्य करते राजदुलारे, दूर कोई अपना होता, ये आंखें उसे पुकारे। सुबह होती भोर देखे, शाम के सुंदर नजारे, वादियों में दूर तक, बिखरे पड़े कई नजारे, प्रेमी युगल देखती, करती तब आंखें इशारे, आंसुओं से भीगती, दर्द में जब दिल पुकारे। जीवन से मृत्यु तक, नयन क्या क्या देखती, अच्छी बातें याद रखती, बुरी को वो फेंक...
बरिश की बूदें
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बरिश की बूदें

रीमा ठाकुर झाबुआ (मध्यप्रदेश) ******************** अबकी ये सावन भीगे रात सुहानी हो जाये! तेरे मेरे अश्रु मिलन की एक कहानी हो जाये!! बादल हो फिर मूक यहाँ पर, हृदय वेदना ऐसी हो! क्षितिज जहाँ पर मिल कर, मिले न, एक जवानी ऐसी हो!! न कोई विकल्प बचा हो, न क्षणभंगुर परिभाषा,! लिपटी हो आलिंगन मे, एक रवानी ऐसी हो!! टूट सके न बंधन अपना, न ही कोई वादा हो! बूदें फिर से नदियाँ बन, सागर में समायी ऐसी हो!! मिलकर जो मिल न सके, जीवंत कहानी ऐसी हो!!! परिचय :- रीमा महेंद्र सिंह ठाकुर निवासी : झाबुआ (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी ...
वो जमाना
कविता

वो जमाना

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश) ******************** छंद मुक्त कविता आज जब अपने पिताजी की उस जमाने की बातें याद आती हैं, तो सिर शर्म से झुक जाता है। माँ बाप और अपने बड़ों से आँख मिलाने में ही डर लगता था, उनकी किसी बात को नकारने की बात सोचना भी सपना लगता था। घर में भी अपने बड़ों के बराबर बैठना सिर्फ़ सोचना भर था, अपने लिए कुछ कहना भी कहाँ हो पाता था। बस चुपके से धीरे से अपनी बात दादी, बड़ी माँ या माँ से कहकर भी खिसकना पड़ता था। रिश्तों के अनुरूप ही सबका सम्मान था, परंतु हर किसी के लिए हर किसी के मन खुद से ज्यादा प्यार था। उस समय दूश्वारियां भी आज से बहुत ज्यादा थीं, परंतु प्यार, लगाव, सबकी चिंता हर किसी के ही मन में हजार गुना ज्यादा थीं। आज भी मुझे इसका अहसास है क्योंकि मैंने भी ऐसा ही काफी कुछ देखा है, अपने बाप को बड़े ...
एक कोशिश और
कविता

एक कोशिश और

अशोक शर्मा कुशीनगर, (उत्तर प्रदेश) ******************** आओ एक कोशिश फिर से करते हैं, टूटी हुई शिला को फिर से गढ़ते हैं। आओ एक कोशिश फिर से करते हैं... हाँ, मैं मानता हूँ इरादे खो गए, हौसले बिखर गए, उम्मीद टूट चुकी, सपनों ने साथ छोड़ दिया, हमने कई अपनों को गवाया, अपनों से खूब छलावा पाया, तो क्या हुआ? अभी तक जिंदगी ने हार नहीं मानी है, कोशिश करने की फिर से ठानी है, आओ एक कोशिश फिर से करते हैं... हौसलों में बुलंद जान भरते हैं, उम्मीदों को नई रोशनी देते हैं, सपनों को फिर निखारते हैं, इरादों को जोड़ते हैं, हार का मुंह तोड़ते हैं, आओ एक कोशिश फिर से करते हैं... जीवन में इंद्रधनुष लाते हैं, दुनिया को खुशियाँ दे जाते हैं, आओ फिर सपनों की उड़ान भरते हैं, आओ एक कोशिश फिर से करते हैं....। परिचय :- अशोक शर्मा निवासी : लक्ष्मीगंज, कुशीनगर, (उत्तर प्रद...
मैं अभी हारा नहीं
कविता

मैं अभी हारा नहीं

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* इतना भी नकारा नहीं हूँ, दीन बेचारा नहीँ हूँ, मै धधकती एक ज्वाला, भोर का तारा नहीँ हूँ, सोच लो, समझ लो, मै अभी हारा नहीँ हूई। तुम कहाँ पहचान पाएँ, हम कई बार आये, कभी ईसा तो कभी सुकरात बनकर बिष पिया और मुस्कराए, राख हो जायें जो जलकर, मै वो अंगारा नहीँ हूँ, सोच लो समझ लो, मै अभी हारा नहीँ हूई। मै महाराणा की हिम्मत, मै शिवाजी की वसीयत, मै भगतसिंह की हूँ छाया, बुद्ध गौतम की नसीहत, मै गर्जता एक सागर, रेंगती धारा नहीँ हूँ, सोच लो समझ लो, मै अभी हारा नही हूँ। फिर उठी गम की घटाएँ, फिर हुई बोझिल दिशाये, आसमां सर पर उठायें, फिर चली पागल हवाएँ, मै जीवन की इक हकीकत, व्यर्थ का नारा नहीँ हूँ, सोच लो, समझ लों मै अभी हारा नहीँ हूँ। परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक) पिता : देवदत डोंगर...
मनवा काहे को घबराय
कविता

मनवा काहे को घबराय

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** मनवा काहे को घबराय ये दुनिया एक सराय खुशियाँ बिखेर ले प्राणी, जहाँ आयु घटे ना आय। निज' भाव' गिराना मत, 'भाव' भाव से कहता है आप आपसे मिलकर, आप आपसे सुनता है आपाधापी साथ चलेगी, जीवन जंग तू लड़ता जाये मानव काहे को घबराय... 'ताज' साक्षी प्रेम का, 'ताज' तख़्त न भूल कभी प्रेम पेज 'दो बेर' मिले, या 'दो बेर' का संग सभी 'हार' न तू अपनी बाजी, पग पग 'हार' मिलेंगे आय मनवा काहे को घबराय.... 'मांग' भरी जब तूने, अब 'मांग' रहा ये अंश है, शह 'मात' का खेल सयाना, 'मात' पिता का वंश है 'घराना' रहता याद तभी, जब घर आना तू कहता जाय मनवा काहे को घबराय.... 'बाज' आएं उन करतूतों से, जहाँ 'बाज' झपट्टा चलता है कन्धों में दम हो तब ही कन्धों पे दुपट्टा रहता है विजय विशालतम बना रहे, विजय पताका फहराता जाय मनवा काहे को घबराय ये दुनिया...
मूक शब्दों को समझाना
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मूक शब्दों को समझाना

कीर्ति दिल्ली विश्वविद्यालय ******************* वफादारी के चर्चों में कई सदियां गुजर गई जब मानव ने होश सम्भाला समाज में अपना स्थान पाया उसे अपने पालतू के रूप में युगों-युगों से अपने साथ ही पाया थोड़ा सा अपनापन थोड़ा सा प्रेम और थोड़ी सी सहानभूति उसे तुम्हारा कर्जदार बना जाती हैं उसे चुकाते-चुकाते उसकी अंतिम सास भी तुम पर कुर्बान हो जाती हैं चिलचिलाती धूप, भारी वर्षा, या हो कडकडाती ठंड दृढसंकल्प प्रदान करने का सुरक्षा तुम्हे और अधिक हो जाता हैं उसका प्रबल उसका मेहताना बस दो रोटी ही तो होता हैं परंतु तुमसे उसका लगाव तुम्हारी भुख से कही अधिक होता हैं कौन कहता है पशुओं में भाव नही होते वह परेशान होते है वह रोते है वह दुखी भी होते है परंतु मानव की भांति वह औरो को दोषी नही कहते हैं साथ तुम्हारे खेलना उसका तुम्हे बच्चे जैसा आनंद कराता है जीवन के क...
गरीब
कविता

गरीब

बिपिन कुमार चौधरी कटिहार, (बिहार) ******************** साहब, बेशक गरीब हूं, ऐसा वैसा थोड़ी हूं, सबको पसंद आ जाऊं, पैसा थोड़ी हूं, लालच में इंसानियत भुला दूं, इतना लाचार थोड़ी हूं, मेरे दोस्त जरूरत में करना कभी याद, दिल का अमीर हूं... लाख सितम सहता हूं, क्योंकि गरीब हूं, दाने दाने को रहता हूं मोहताज, ऐसा बदनसीब हूं, ईमानदारी की रोटी ही रास आता है, आदमी अजीब हूं, मेहनत से दो रोटी पाकर संतुष्ट रहता हूं, ऐसा खुशनसीब हूं... परिचय :- बिपिन बिपिन कुमार चौधरी (शिक्षक) निवासी : कटिहार, बिहार घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आ...
बधाई
कविता

बधाई

संध्या नेमा बालाघाट (मध्य प्रदेश) ******************** बहुत आनंदमय की होती है ये बधाई जब हम किसी की खुशी में शामिल हो जाए हर खुशी की बधाई देने में जो आनंद आता है किसी के जन्मदिन या शादी या शुभ अवसर में देते हैं हम बधाई बधाई में बधाई कोई दे दे तो और आनंदमय हो जाता है वो पल ये दौर भी कितना सुहाना हो गया है दूर-दूर से बधाई एक संदेश से ही आ जाती है बधाई सब मिलकर दे दो बधाई किसी का दिन बन जाए आपकी एक बधाई से बहुत आनंदमय की होती है ये बधाई जब किसी की खुशी में शामिल हो जाए परिचय : संध्या नेमा निवासी : बालाघाट (मध्य प्रदेश) घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करती हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्...
प्रेम संदेश
कविता

प्रेम संदेश

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** आकाश को निहारते मोर सोच रहे, बादल भी इज्जत वाले हो गए बिन बुलाए बरसते नहीं शायद बादल को कड़कड़ाती बिजली डराती होगी सौतन की तरह। बादल का दिल पत्थर का नहीं होता प्रेम जागृत होता है आकर्षक सुंदर, धरती के लिए धरती पर आने को तरसते बादल तभी तो सावन में पानी का प्रे -संदेशा भेजते रहे रिमझिम फुहारों से। धरती का रोम-रोम, संदेशा पाकर हरियाली बन खड़े हो जाते मोर पंखों को फैलाकर स्वागत हेतु नाचने लगते किंतु बादल चले जाते बेवफाई करके छोड़ जाते हरियाली और पानी की यादें धरती पर प्रेम संदेश के रूप में। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन :- देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ...
वक्त कहाँ
कविता

वक्त कहाँ

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** तुम्हें सोचने का वक्त कहाँ तुम्हें भूलने का वक्त कहाँ तुम्हें बुलाने का वक्त कहाँ आ जाते तुम ख्वाबों में तो अच्छी बात थी तुम्हें मिलने का अब वक्त कहाँ। तुम्हें कुछ कहने का वक्त कहाँ तुम्हें कुछ सुनाने का वक्त कहाँ समझ लेते खुद ही दिल की तन्हाइयों को तो अच्छी बात थी गम सुनाने का अब वक्त कहाँ। दिल लगाने का वक्त कहाँ दिल बहलाने का वक्त कहाँ रूठ कर मनाने का वक्त कहाँ तुम खुद ही इश्क कर लेते हमसे तो अच्छी बात थी बार-बार इजहार करने का वक्त कहाँ। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी ...
चक्षु बंद कर मैं तुम्हें पढूँगा
कविता

चक्षु बंद कर मैं तुम्हें पढूँगा

प्रदीप कुमार अरोरा झाबुआ (मध्य प्रदेश) ******************** मैं तो हूँ कर्म पथ का राही, नित जीवन के स्वप्न बुनूँगा, कहते जाओ जो कहना है, सबकी मैं हर बात सहूँगा। मेरी चुप्पी ताकत मेरी, तुम चाहो कमजोरी कह लेना, यही आचरण कवच है मेरा, इसे धारण मैं किये रहूँगा । दिल ही तो है दिल की बातें, आकर मुझसे कह लेना, संकेतों की वाणी सुन लेना, समर्थन के ही शब्द कहूँगा। घर मेरा सराय नहीं है, आओ तो आकर मत जाना, बिन लहरों के कहो बालू पर, नौका बन मैं कैसे बहूँगा। मेरा लक्ष्य तेरा हो जाये, हो तेरा लक्ष्य फिर मेरा, पहुँच शिखर तुम लहराना, ध्वजदंड-सा मैं तुम्हें धरूँगा। दिल ही तो है दिल की बातें, जब दुनिया दोहराएगी, तब-तब बाहुपाश में लेकर, चक्षु बंद कर मैं तुम्हें पढूंगा। परिचय :- प्रदीप कुमार अरोरा निवासी : झाबुआ (मध्य प्रदेश) सम्प्रति : बैंक अधिकारी प्रकाशन ...
मिट्टी के घर
कविता

मिट्टी के घर

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** जिंदगी खेल-खेल में, मिट्टी के घर बनाती है। और दूसरे ही पल, गिरते ही, जिंदगी बदल जाती है। जिंदगी खेल-खेल में, मिट्टी के घर बनाती है....। कितनी हसरतों से, सहेज कर सपनों को, महलों को धीरे-से थपथपाती है। नन्ही-सी एक ठेस से, रेत-सी जिंदगी की तस्वींरें बदल जाती है। जिंदगी खेल-खेल में, मिट्टी के घर बनाती है....। हर बार बिखर के, फिर से, सपने सहेजती है। जिंदगी के खेल में, रेत-सी कितनी बार, बनती और बिगड़ती है। लेकिन यह खेल, फिर भी...कहां छोड़ती है। जिंदगी खेल-खेल में.... परिचय :- प्रीति शर्मा "असीम" निवासी - सोलन हिमाचल प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक म...
ये आंखे
कविता

ये आंखे

श्वेता अरोड़ा शाहदरा (दिल्ली) ******************** प्रकृति की अनमोल रचनाओ मे से एक है ये आंखे, एक दूसरे का साथ निभाने की मिसाल है ये आंखे! प्यार जताने की क्षमता रखती है ये आंखे, गुस्सा दर्शाने का भी जरिया है ये आंखे! साजन के प्रति प्यार से भरी है ये आंखे, भाई के प्रति दुलार से भरी है ये आंखे! बच्चो के प्रति ममता दर्शाती है ये आंखे, दुष्टो पर अपना क्रोध बरसाती है ये आंखे! साथ कैसे निभाया जाता है सिखलाती है ये आंखे, खुशी के आंसू हो या नमी गम की, एक साथ भर आती है ये आंखे! जरा संभाल कर रखना इन आंखो को, क्योकि मरने के बाद भी जिन्दगी दूसरो की रोशन कर जाती है ये आंखे! परिचय :-  श्‍वेता अरोड़ा निवासी : शाहदरा दिल्ली घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कवित...
कही लगता नहीं
कविता

कही लगता नहीं

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** सीने से लगाकर तुमसे बस इतना ही कहना है। की मुझे जिंदगी भर तुम अपनी बाहों में रखना।। मेरी साँसों में तुम बसे हो दिलपे तुम्हारा नाम लिखा है। मैं अगर खुश हूँ मेरी जान तो ये एहसान तुम्हारा है...।। मुझे आँखो में हरपल तेरी ही एक तस्वीर दिखती रहती है। दिल दिमाग पर तू ही तू हर पल छाई रहती है।। भूलकर भी मुझे छोड़ने का तुम कभी इरादा मत करना। वरना मेरी मौत का पैग़ाम तुझे जल्दी ही मिल जायेगा।। देख नहीं सकता तुझे मैं अब किसी और के बाहों में। क्योंकि ये दिल अब तेरे बिन कही और मेरा लगता नहीं।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५ वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री जैन शौक से लेखन में सक्रिय हैं और इनकी रचनाएं राष्ट्रीय हिंद...
दौर ए ज़िन्दगी
कविता

दौर ए ज़िन्दगी

रुखसाना बानो अहरौरा, चुनार, (मिर्ज़ापुर) ******************** एक दौर वो भी था ज़िन्दगी का, बातों की कीमत समझते थे लोग। हाँ में हाँ कम मिलाते थे लोग, शाम होते ही चौपले सजाते थे लोग। चलता था दौर गुफ्तगू का, अपनी-अपनी उलझन सुलझाते थे लोग। मुलाक़ातों का सिलसिला था, पड़ोसी के घर आते-जाते थे लोग। दुःख हो या सुख हो, शादी हो या मय्यत, मिलकर रस्म निभाते थे लोग। गिले-शिकवे भी बहुत होते थे, बाद नाराज़गी के हँसकर गले लगाते थे लोग। घृणा, द्वेष तो था कल भी, प्रेम से ईर्ष्या की आग बुझाते थे लोग। लो आया दौर तरक्क़ी का, स्वार्थ में दूसरों को गिराने लगे हैं लोग। महफिले तो बहुत सजती हैं आज भी, अब गले कम लगाते हैं लोग। बस हाथ ही तो अब मिलते हैं, नफरत के दिए दिल में जलाते हैं लोग। रिश्ता कितना भी हो करीब का, अब बहुत दूर का बताते हैं लोग। परिचय :-  रुखसान...
हरियाली
कविता

हरियाली

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** अस्त हुआ रवि अंबर मे ढल आई है शाम चलो-चलो रे कि वृदंवो अपनी-अपनी धाम धीर धीर घटा घनघोर आए अमर अवनी के भूतल में हरी-हरी हरियाली छाई वसुंधरा के अंतर तल में गाओ गाओ खग वृदो गाओ तुम गान करने स्वागत वर्षा ऋतु का मधुर गाओ पणो पुष्पो हर क्षण अवनी निखरी पाकर जल कण परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ीआप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती रही आकाशवाणी इंदौर से भी रचनाएं प्रसारित होती रहती हैं व वर्तमान में इंदौर लेखिका संघ से जुड़ी हैं। घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित ...