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गद्य

शक का इलाज
लघुकथा

शक का इलाज

सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' इन्दौर (मध्यप्रदेश) ******************** नीरू अपनी स्कूटी पेप से जा रही थी। नीरू गाड़ी धीमे ही चलाती है। अचानक एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति उसके साथ चलने लगे। उनके पास भी स्कूटी पेप थी। वो व्यक्ति झुककर मेरी स्कूटी में नीचे की ओर देखने लगे। वहाँ मेरा पर्स रखा था पैरों के बीच। मेरे पर्स में मेरा मंगलसूत्र रखा था जो आफिस से लौटते वक्त सुधरवाना था। मैं कुछ बुरा सोंचती उसके पहले ही बो बोल पड़े बेटा रिजर्व में पेट्रोल की नाब किधर होती है? मैंने मुस्कुरा कर उन्हें रिजर्व में पेट्रोल की नाब की स्थिति समझाई। वे व्यक्ति आगे बढ़ गये और मैं सोचने लगी की शक का कोई इलाज नहीं होता। परिचय :- सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' जन्म तिथि : ०३/०४/१९६४ शिक्षा : बी. एस. सी; एम.ए.(अँग्रेजी साहित्य), बी. एड. सम्प्रति : शास. शाला में शिक्षिका ! साहित्यिक गतिविधि : गद्य एवं पद्म लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रि...
जीवंत गाँव : आत्मनिर्भर भारत, सशक्त भारत
आलेख

जीवंत गाँव : आत्मनिर्भर भारत, सशक्त भारत

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                             आजकल 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का नारा बुलंदियों पर है, हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री श्रद्धेय मोदी जी का नया संकल्प आत्मनिर्भर भारत का है। यह नया संप्रत्यय या संकल्पना नहीं है अपितु अत्यंत पुरानी है। राष्ट्रपिता बापू तो स्वराज की कल्पना ही आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान, आत्मगौरव और राष्ट्र बोध के रूप में ही करते थे। पहले हमारे गाँव आत्मनिर्भर थे। आपसी भाई-चारा, सद्व्यवहार, शालीनता, संस्कार वहाँ के जन जीवन में रचा बसा था। लेकिन, विकास, आधुनिकता, नगरीकरण, वैश्वीकरण, वर्चस्व और सत्ता की भूख ने सब निगल लिया। गाँवों की क्या गजब जीवन शैली थी, पुजारी और पशुच्छेदन करने वाले चमकटिया, सबकी अपनी-अपनी इज्जत थी, सम्मान था। कोई किसी भी जाति का हो, सबसे कोई न कोई रिश्ता था- बाबा, काका-काकी, भाई-भौजी, बूढ़ी माई, बुआ, बह...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** अगले रविवार बड़ी प्रसन्नता से मैं गणपत के साथ हाट में ग्रामपंचायत का कर वसूलने गया। इस बार सब विक्रेता मुझे जानते थे और छोटा होने के कारण सब मेरे साथ हंसी मजाक भी करने लगे। संयोग रहा कि इस बार भी मेरे द्वारा ही सबसे ज्यादा कर वसूला गया था। शाम को हम सब घर वापस लौटे। पिछला अनुभव होने के कारण इस बार हिसाब किताब जल्द ही निपट गया था। गणपत ने उसके दो मित्रों को उनका मेहनताना देकर रवाना किया फिर मुझे भी एक रूपया दिया। अब मेरे पास तीन रुपये जमा हो गए थे। हम सब जब घर वापस आए थे उस वक्त माँजी, सुशीलाबाई और सुरेश गाव में ही किसी के यहां किसी कार्यक्रम में गए थे। घर में बेबी और उनका दो वर्ष का बेटा ही थे। गणपत ने बेबी को सारे रुपये सम्हाल कर रखने को दिए। गणपत का दो वर्ष का बेटा सुदर्शन जिसे सब शुंडू नाम से पुकारते थे मेरे पास आकर बैठा। मैं उसके साथ ख...
जलदेवियाँ
लघुकथा

जलदेवियाँ

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************  नारी उस वृक्ष की भाँति है जो विषम परिस्थिति में तटस्त रहते हुए परिवार के सदस्यों को छाया देती है। नारी अबला नहीं सबला है। पुरुष वर्ग शायद नहीं जानते कि नारी कोमलता एवं सहनशीलता के साथ यदि वह दृढ निश्चय करे तो वह कुछ भी सम्भव कर सकती है। इस बात के असंख्य उदाहरण हैं जिसमें से एक कहानी आपके सम्मुख प्रस्तुत है। गंगाबाई और रामकली ये दोनों आदिवासी खालवा विकास खंड लंगोटी की रहने वाली थीं। इस आदिवासी विकास खंड की पहचान सुदूर आदिवासी अंचल के नाम से थी क्यूंकि ये दुनिया से एक सदी पीछे था। इस विकास खंड के पंद्रह गाँव आज भी पहुँच विहीन हैं। पानी के अभाव से जीवन अत्यंत जटिल था। गंगाबाई और रामकली के साथ पार्वती, लछमी, ललिता, मीरा, चमेली, टोला और चम्पा ये सारी स्त्रियाँ हर रोज सुबह शाम तीन किलोमीटर तापती नदी पर जाकर झिरी खोद कर पानी भर कर लातीं थ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दूसरा दिन एक नयी सुबह लेकर आया। गणपत कल रात घर आया ही नहीं था। बेबी ने दोनों गाय का दूध निकालने के बाद खुद ही राधा और यशोदा को खूंटे से आजाद किया। मैं भी जागने के बाद तख़्त पर बैठ गया था। बेबी ने मुझे देखा और बोली, 'बाळोबा, आज अकेले ही घूम के आओं और आने के बाद बाहर से ही आवाज लगाना। मैं आकर कुएं से दो बाल्टी पानी निकाल कर तुम्हारे सर पर उड़ेल दूंगी।' आज मुझे तालाब पर अकेले जाने में मुझे कोई संकोच ही नहीं था पर सुशीलाबाई के डर के कारण मैं जाने से पहले अपने नहाने की पूरी तैयारी कर के गया। पथरिया गाव मुझे भा गया था और अच्छा भी लगने लगा था। बुरहानपुर जैसा यहां दिन रात काम करने का माँजी का फरमान भी नहीं था। महत्वपूर्ण यह था कि माँजी और सुशीलाबाई की सेवा बेबी कर ही रही थी इसलिए माँजी को भी आराम सा था। मुझे तो दोनों समय खाना और सोना। बस यही काम था...
परिवार हो साथ तो कैंसर की क्या ओकात
संस्मरण

परिवार हो साथ तो कैंसर की क्या ओकात

सपना बरवाल कांटाफोड़ देवास (मध्य प्रदेश) ******************** मेरी ज़िंदगी मै सब कुछ ठीक था। और अचानक एक तूफान आया और सब कुछ बिखर गया। केंसर से लडने मै परिवार की जरूरत, रेखांकित करता एक आप बीता संस्मरण। ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत ओर कीमती है, ये तब समझ आता है, जब आपकी ज़िन्दगी मै सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। यकीन मानिए डॉक्टर द्वारा कहे तीन शब्द "आपको केंसर हैं" आपकी ज़िन्दगी मै तूफान ले आते है। मुझे जब पता चला मुझे आखिरी अवस्था का कैंसर है, ऐसा प्रतीत हुआ जैसे अब सब कुछ ख़तम हो जाएगा। ओर बचपन से देखा हुआ सपना इस तूफान की आंधी मै बह जाएगा। कैंसर की परीक्षा की इस घड़ी मै मेरा परिवार मेरी ढाल बनकर खड़ा रहा। इलाज के लिए अस्पताल को चुनना, पेसो की व्यवस्था करना, मुझे हर हाल में सहारा देना। हर कदम पर मेरे मम्मी पापा मेरे साथ थे। मेरे भाई बहन ने मेरा भरपूर सहयोग किया। मेरे दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदारों न...
रिश्तो की डोर
लघुकथा

रिश्तो की डोर

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** मां के ना रहने के बाद रक्षाबंधन में पहली बार सुनीता ४ वर्ष के बेटे देवांश के साथ अपने मायके जा रही थी। अंदर ही अंदर एक अजीब सा डर और घबराहट हो रही थी, कि पता नहीं भैया और भाभी मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे। मेरा वैसा सम्मान होगा भी या नहीं, जैसे मां के रहने पर होता था। इसी सोच में डूबी थी, कि स्टेशन आ गया। जैसे हीइधर उधर नजर दौड़ाई वैसे ही कुछ परिचित आवाज कानों में सुनाई दी।सुनीता लाओ सामान मुझे दे दो। जैसे ही आगे बढ़ी तो सामने भैया को देखकर अच्छा लगा। घर पहुंचते ही भाभी ने बहुत अच्छा व्यवहार किया। राखी के दिन सुनीता मां की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी थी, तभी भैया ने आवाज लगाई और उस उसकी आंखों से अश्रु धारा बहने लगी। भैया ने दुलारते हुए कहा, बहना हमारे रहते हुए तुम अपने को अकेला मत समझना। उसने भैया को राखी बांधी। भैया, भाभी के ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरा और सुरेश का कुछ ज्यादा सामान तो था ही नहीं सुशीलाबाई का भी एक ही थैली थी वे किसी को भी उसे छूने नहीं देती। उनके थैली में एक तौलिया और एक बड़ा सा पीतल का लोटा रखा रहता। इसी लोटे का इस्तेमाल वे दिन भर करती। इस लोटे की किस्मत में दिन भर सुशीलाबाई के हाथों खुद को राख से जाने कितनी बार मंजवाना लिखा रहता यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता था। माँजी जरूर ज्यादा सामान लायी थी। इनमे घरगृहस्थी का सामान, थोड़े मसाले अचार इत्यादि थे। और हां सुशीलाबाई के कपडे भी माँजी को ही सम्हालने पड़ते इसलिए वे भी माँजी के सामान के साथ ही थे। घर में हम लोगों के अंदर आंगन में आते ही बेबी नहीं मुझे उन्हें बेबी नाम से नहीं पुकारना चाहिए। मुझसे तो वें बहुत बड़ी है पर उनका तो मूल नाम ही बेबी है और सब इन्हे बेबी नाम से ही पुकारते भी है। हां तो मैं कह रहा था कि हम लोगों के...
गरमकोट
लघुकथा

गरमकोट

अर्चना मंडलोई इंदौर म.प्र. ******************** माँ ने दिवंगत पिता के गरम कोट को सहलाकर भारी मन से अलमारी बंद करते हुए पूछा- बेटा सब तैयारी हो गई क्या? सुलभा इंतजार कर रही होगी। हाँ माँ..उसने मामेरा मे देने के सामान पर एक नजर डालते हुए कहा..तभी फोन की घंटी बज उठी...सुलभा का फोन था....कब पहूँचोगे भैया...उधर से सुलभा व्यग्रता से कह रही थी!.... बस निकल ही रहे है.... चलो बेटा आज तुम्हें पिता और भाई की दोहरी जिम्मेदारी निभानी है....माँ की डबडबाई आँखे उससे छुपी न रह सकी। नए कोट को सुटकेस में तह कर रखते हुए...वह उठा और अलमारी से निकाल पिता का कोट पहन लिया। देखते ही माँ बोली..ये क्या? इतना पुराना कोट....शादी में ... हाँ माँ बहन को पापा की कमी महसूस न हो इसलिए मैने आज ये कोट पहन लिया है... शहनाईयाँ बज उठी थी....माँ भावविभोर थी। और आरती की थाली लिए बहन पिता के रूप मे भाई को देखकर फूली नही समा रही थी...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** यह सब बातचीत सुन कर मैं तो बहुत ज्यादा बेचैन हो गया। मुझे तो यहां रहना ही नहीं था और दादा मुझे यहां बुरहानपुर में सुशीलाबाई के चुंगल में रखने का निर्णय लेकर अलग हो चुके थे। क्या करना चाहिये यह समझ में ही नहीं आ रहा था। यहाँ से निकल कर ग्वालियर में नानाजी के पास कैसे पहुंचा जाय इसका कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। माँजी और अण्णा दोनों रसोई में भोजन की तयारी कर रहे थे और दादा और सुशीलाबाई दोनों कमरें में थोड़ी देर बातचीत करते रहे। सबका भोजन निपटने के बाद दादा उज्जैन जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मुझे और सुरेश को अपने पास बुलाया और बोले, ‘बाळ-सुरेश, मैं अब उज्जैन के लिए निकल रहां हूं। तुम दोनों यहां ठीक से रहना। ठीक से अपनी पढ़ाई करना। माँजी को और ताई को परेशान नहीं करना। वें जैसा कहें वैसा करना। दोनों का कहा मानना। रहोगे ना ठीक से?‘ दादा न...
प्रत्याशी
लघुकथा

प्रत्याशी

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** नामांकन का दिन पास आता जा रहा था, पर अभी तक कुकर बस्ती में यही तय नही था कि चुनाव कौन लड़ेगा। बहुत से युवा चुनाव लड़ना चाहते थे, पर एक नाम तय नहीं हो पा रहा था। तभी बस्ती के वयोवृद्ध कूकर श्रीमणि की नजर नेता जी के अलसेशियन कूकर पर पड़ी, एकदम तदुरूस्त, चमकीले बालों वाला, मस्तानी चाल से अपने नौकर के साथ टहलते दिखा। बस, उसके दिमाग में कुछ कौंधा और उसने चिल्ला कर कुत्तो को पुकारा - 'इधर आओ, भाई प्रत्याशी मिल गया। सबने बड़ी उत्सुकता से पूछा - कौन...? श्रीमणि ने नेता जी के कुत्ते की ओर इशारा किया। सबने हैरान परेशान होकर कहा - 'अरे ये बँगले के अंदर रहने वाला हमारा नेता कैसे बन सकता है? श्रीमणि नेकहा - 'रोटी के एक टुकड़े के लिये दिनभर भटकने वालो, तुम लोगों की क्या औकात है, जो तुम लोग चुनाव लड़ोगे। बस फैसला हो गया। रही बंद बँगले से चुनाव...
ईमानदार फौजी
कहानी

ईमानदार फौजी

मीना सामंत एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली) ******************** लॉक डाउन लगने से पहले भारतीय सेना में सेवारत मेरे पति नरेंद्र जी की छुट्टी मंजूर हो गई थी। वो दिल्ली हम सभी के पास आ गए थे। उनकी वापसी की तिथि भी सुनिश्चित हो चुकी थी। उनको २८ जून ड्यूटी पर बॉर्डर जाना था। लेकिन २८ जून से लगभग कुछ हफ्ते पूर्व ही उनकी तबीयत अचानक से बिगड़ गई। उनको तेज बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया। छोटी बेटी जान्हवी पापा के सिरहाने बैठे कपड़े को गीले करके पट्टी बनाकर पापा के सिर पर रख रही थी। उधर मुझे अंदर ही अंदर यह चिंता खाए जा रही थी कहीं कोई बड़ी समस्या ना हो इनके स्वास्थ्य के प्रति मेरी चिंता लगातार बढ़ती जा रही थी। हमारी मदद करना हे ईश्वर। मैं परेशान थी हैरान थी। रातों की नींद मेरे आंखों से गायब थी। बुखार इनका लगातार बढ़ता जा रहा था। साथ ही साथ इनका पेट भी खराब हो गया मेरे माथे पर चिंता की लकीरें और तेज...
उपजाऊ जमीन
कहानी

उपजाऊ जमीन

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** "पिछले कई सालों से जिम्मेदारियां निभाने जी तोड़ मेहनत करता रहा। अकेलेपन से कई बार टूटा पर परिवार के लिए हर दर्द सजाता रहा। कभी फर्ज कभी पितृत्व समझ कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहा। पर पिछले कुछ सालों से विचारों की जमीन पर दर्द और अकेलेपन के जो बीज बोए उसकी फसल पकती, झड़ती और लहलहाती। ना कोई काटने वाला ना बांटने वाला। मन में उठती पीरें कभी आंखो तक आ जाती तो वापस अंदर ससका लेता। लॉकडाउन पिछले कुछ समय से था पर मेरी जिंदगी में खुशियों का लॉक डाउन उम्र दर उम्र साथ चल रहा था। "अपने ही ख्यालों में खोया मैं मास्टर ऑफ आर्ट ५९ साल की उम्र में कोरॉना में कंपनी द्वारा की गई छटनी में अपनी नौकरी गवांकर सिक्योरिटी गार्ड इंटरव्यू के लिए तेज कदमों से पैदल भागा जा रहा था। आज अंदर का तूफान आंखों से होते हुए गालों पर और सीने तक पहुंच गया था। कई बार परदेश ...
पहली बारिश
कहानी

पहली बारिश

मारोती गंगासागरे नांदेड (महाराष्ट्र) ********************                                      जून माह प्रारंभ हो चूँका था, खेत खलियानों की सभी धरा तप-तपकर व्याकुल सी हो गई था। सूरज की अग्नि में जल-जलकर अवस्था विरहणी सी हो गई थी, वह अपने दिलदार का इंतजार कर रही थी, याने की बदल कब आएंगे वर्षा के साथ मिलने और मेरी यह तपन कब मिटाएंगे इसी सोच मे धरा जी रही थी। मृग नक्षत्र भी निकल भी निकल ने वाला भी हैं। ऐसा पता चलते ही सभी किसानों में अपनी खेती भी अच्छी जोतकर रखी थी और कुछ किसानों की बाकी थी। इसी दौर में शहर में पढ़ाई के लिए गया हुआँ राज गाँव लौट आया था। बारिश न होनेक कारण धूप भी हँस-हँस कर चमक रही थी इसी बीच राज खेत मे घूमने गया था। दोपहर का समय ढल चूँका था फिर भी सूरज की ज्वाला कम न हुई थी। इसी बीच हवा ने भी छुटी ली थी। शहर से आया हुआँ राज पसिने से तरबतर हो गया था। मैं कई करूँ यह स...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २४
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २४

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरा सारा ध्यान अंदर की बातचीत पर ही था। अण्णा ने नानाजी की चिट्ठी पढ़ कर एक तरफ रख दी। चिट्ठी सुनकर थोड़ी देर के लिए माहौल गंभीर हो गया था। अण्णा के बाद नानाजी की चिठ्ठी दादा ने भी पढ़ ली और उसके बाद दादा माँजी से बोले, ‘बाळ अभी छोटा है, उसमे भलेबुरे की समझ नहीं है और फिर अभी हाल ही वह आपके पास आया है। एक दूसरे को जानने और समझने में वक्त लगेगा। थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा इसलिए इन बातों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए।’ ‘पर बाळ के नानाजी तो बच्चें नहीं है। नासमझ नहीं है? उन्हें तो अच्छे बुरे की समझ है।‘ अब सुशीलाबाई बोली। वें गुस्से में थी। ‘मुझे उन्हें चिट्ठी लिखने का अधिकार ही क्या है? और तो और उन्होंने मुझे पराया भी लिखा। मैं इन बच्चों को पराया समझती हूं क्या?‘ क्या मैं पराई हूं?‘ अब उन्हें रोना आ गया। अब माँजी भी भडक गयी, ‘इसमें...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २३
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २३

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दूसरे दिन स्कूल जाते वक्त सुशिलाबाई मुझे एक बार फिर स्कूल जाने का बोल कर गयी। मैंने उनकी बात का कोई जवाब ही नहीं दिया पर स्कूल के समय चुपचाप तैयार होकर सुरेश के साथ स्कूल गया। बीच की छुट्टी में मैंने सुरेश को सब बताया। मैं सुरेश को एक तरफ ले गया और उससे कहा, 'तुम्हें मालूम है क्या कि इन सुशिलाबाई की इच्छा अपने दादा से शादी करने की है?' 'करने दो। अपने को क्या करना है?' सुरेश का जवाब मुझे निराश करने वाला था। 'अरे, पर इससे तो वें हमारी सौतेली माँ हो जाएंगी?' 'होने दो। हमें क्या फर्क पड़ने वाला है?' अरे, पर वो तो घर का कुछ भी काम ही नहीं करती?' तो माँजी होती है ना साथ में। वही तो करती है सब काम।' सुरेश बोला। 'पर मुझे वें दोनों बिलकुल अच्छी नहीं लगती।' मैंने कहां। 'पर दादा को तो ताई अच्छी लगती है? एक दिन दादा राजाभाऊ को कह रहे थे की उन्हें व...
जन्मदिन
लघुकथा

जन्मदिन

डॉ. अलका पांडेय मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** रामअवतार जी आज ७० साल के हो गये थे पर जब से उनकी धर्मपत्नी चल बसी उन्होने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया, मनाता भी कौन एक ही बेटा वह भी शहर में सर्विस करता था छुट्टियों में आता रहता कभी-कभी ... पर इस बार पता नहीं क्यों बार बार लग रहा था कोई तो उनका जन्मदिवस मनाऐ ... सालों से वो अकेले रह रहे थे परन्तु इस बार बच्चे जनता कर्फ़्यू में आये थे मिलने पर लाकडाऊन की वजह से जा नहीं पाये .. बहुत दिनों बाद रामअवतार जी के घर में रौनक़ आई थी यही कारण था की वो मन ही मन अपना जन्मदिन मनाना चाह रहे थे पर सुबह के दस बज गये बहू बेटे किसी ने उन्हें बधाई नहीं दी न पैर ही छुआ, था तो वो थोडा मायूस से हो गये, कामवाली से बोले कला ज़रा चाय बना दे छत पर टहल आता हूँ आज तारिख कौन सी है, कला बोली क्यों बाबू जी तारिख का क्या करोगे कुछ नहीं पेपर नहीं आ रहा है न तारिख ...
हरफनमौला कवि बाबा नागार्जुन की १०९ वीं जयंती के अवसर पर विशेष
आलेख

हरफनमौला कवि बाबा नागार्जुन की १०९ वीं जयंती के अवसर पर विशेष

डॉ. यशुकृति हजारे भंडारा (महाराष्ट्र) ******************** जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं जन कवि हूँ मैं साफ कहूंगा क्यों, हकलाऊं                                        जन कवि कहे जाने वाले बाबा नागार्जुन की यह पंक्तियां उनके व्यक्तित्व, जीवन दर्शन तथा साहित्य में भी चरितार्थ होते दिखाई देती हैं। अपने समय की प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना पर तेज तर्रार कविताएं लिखने वाले क्रांतिकारी बाबा नागार्जुन ने अनेक विधाओं में अपनी लेखनी चलाई तथा जन आंदोलनों पर भी उनका महत्वपूर्ण प्रभाव रहा। बाबा नागार्जुन का जन्म ३० जून १९११ ज्येष्ठ पूर्णिमा अपने ननिहाल तथा ग्राम जिला मधुबनी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री गोकुल मिश्र तथा माता का नाम उमा देवी था। इनकी चार संतान हुई लेकिन वे जीवित नहीं रह पाए। इनके पिता भगवान शिव की पूजा आराधना करने बैजनाथ धाम (देवघर) जाकर बैजनाथ की उपासना शुरू कर दी। इस प्रकार अ...
धन्यवाद कोरोना
आलेख

धन्यवाद कोरोना

रश्मि श्रीवास्तव “सुकून” पदमनाभपुर दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** आप सब सोंच रहे होंगे कि जहां एक ओर पूरी दुनिया इस कोरोना नमक महामारी से हड़कंप मची हुई है लोग कोरोना के नाम से डरे सहमे नज़र आ रहे हैं वहाँ इसे क्या सूझी जो कोरोना के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया जा रहा है। हम सभी यह अच्छी तरह जानते एवं मानते हैं की हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। हमने कोरोना के नकारात्मक पहलू को देखा, सुना और समझा पर इसके दूसरे पहलू पर यदि गौर फरमाएँ तो इसके कुछ फायदे हमें दिखते हैं। आइये देखते हैं कैसे :- प्रकृति का शुद्धि करण हुआ – पूर्ण लॉक डाउन के चलते जब सारे फैक्ट्री, कारखाने, मोटर गाड़ी वो सारी चीजें पूरी तरह बंद हो गई जिनसे हमारे वातावरण में प्रदूषण फैल रहा है और रिपोर्ट बताते हैं की ५० साल के इतिहास में इतनी स्वच्छ न ही नदियां रहीं और न ही इतनी प्रदूषण मुक्त हवाएँ जिसमे खुलकर सांस लिया जा सके। फिज...
कोविड-१९ लॉक डाउन-अनलॉक डाउन- एक मनोसामाजिक विवेचन
आलेख

कोविड-१९ लॉक डाउन-अनलॉक डाउन- एक मनोसामाजिक विवेचन

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                                   कोरोना वायरस मानव इतिहास की एक बहुत बड़ी घटना है।अकस्मात आयी इस विपदा से निजात पाने की अनिश्चितता विश्व के समस्त देशों में है। व्यवसाय-व्यापार, निर्माण कार्य बंद हो जाने से सामाजिक-अर्थिक स्थिति परिवर्तित हुई है।लोगों में लॉक डाउन के कारण अलगाव व विवशता बढ़ी हैं। हमारे सामाजिक व मानसिक दृष्टिकोण परिवर्तित हुए हैं। सोच का दायरा, रहन-सहन, जीवन शैली, आचरण, व्यवहार में परिवर्तन आया है। घर मे लगातार पड़े रहने से लोगों में उत्तेजना बढ़ रही है। कोरोना वायरस से जो बेबसी और निराशा उभरी है, उससे हमारा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। हम इस समय सामाजिक परिवर्तन से गुजर रहे हैं, धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक मान्यताएं, मापदंड परिवर्तित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारा शारीरिक व मनोसामाजिक ...
दीपावली गिफ्ट
संस्मरण

दीपावली गिफ्ट

डॉ. विनोद वर्मा "आज़ाद"  देपालपुर ********************** हेमराज वर्मा की नई-नई शादी हुई थीमोहन नागर के मकान में किराए से रहते थे। स्टेट बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत वर्मा जी, सहज और सरल व्यक्ति होने के साथ मन के साफ और नेकदिल इंसान थे।पटलन बाई ने उनको भाई बनाया था। सन्ध्या समय पटलन बाई, मोहनदादा, भाभी, शोभा, डीपी वर्मा, हरीश, सुनील हम सब वर्मा जी के कमरे पर इकट्ठा हो जाया करते थे। खूब हंसी-मजाक होती थी, अक्सर मोहन दादा को हम टारगेट करते थे। उनके और भाभी के बीच अक्सर झड़प होती रहती थी लेकिन वह भी हास्य रूप में। मोहन दादा को मावा खाने का शौक था। वो जब भी नागर मिष्ठान से मावा खरीदकर लाते तो भाभी उन्हें हमारे इकट्ठा होने के बाद छेड़ देती कहती- "विनोद भैया ई झूठ बोली के मावो लाय ने बैठी के चट करि जाय, ने इनको बहानों कय की म्हारे दस्त लगी गया।" तो तमारे खाने से मना कुण करे, खाव पर बहाना क...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २२
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २२

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बुरहानपुर में महाजनी पेठ के एक किराए के मकान में पहली मंजिल पर दो कमरों में सुशीलाबाई और उनकी माँ रहती थी। सुशीलाबाई को सब ताई और उनकी माँ को सब माँजी कहते है यह दादा मुझे उज्जैन में बता चुके थे। संडास और नहाने के लिए नीचे तल मंजिल पर जाना होता था। नल भी नीचे ही थे और पानी भी नीचे से भर कर लाना पड़ता। सुशीलाबाई ने जो दो कमरें किराए से लिए थे उन दो कमरों के बीच में थोड़ी खुली छत भी थी। एक कमरें में रसोई और दूसरे में सोना ऐसी इनकी गृहस्थी की व्यवस्था थी। बगल के एक कमरें में ही दिनकर और सुभाष नामके शाहपुर के दगडू चौधरी के दो लड़के भी पढ़ाई के लिए यहां किराये से रहते थे। ये दोनों लड़के थोड़े बड़े थे और कॉलेज में पढ़ते थे। इन मा-बेटी से मेरा कोई विशेष ज्यादा परिचय तो था नही। सिर्फ उज्जैन में हुई एक दिन की मुलाकात थी पर सुरेश का उनका अच्छा परिचय ही ...
पैकेट
लघुकथा

पैकेट

शिरीन भावसार इंदौर मध्य प्रदेश ******************** लछमी ओ लछमी पेशाब पानी कछु की जरूरत हो तो उतर आओ नीचे....अरे का सोच रही हो...इतना देर की बैठी हो...पाव मुरहा जाही...उतर आओ। सुरेश की आवाज़ सुन ट्रक पर सिमटी बैठी लछमी भय और पीड़ा से और भी ज्यादा सिमट गई। उस पूरे ट्रक में लछमी ही अकेली महिला थी इस विकट परिस्थिति में परेशानी अब वह कहे भी तो किससे और कैसे? लॉक डॉउन की घोषणा होने के बाद जल्दबाजी में अपने गांव वापस लौटने के लिए वे दोनो पहने हुए कपड़े और खाली टिफ़िन के साथ रात १० बजे इस ट्रक में चढ़े थे और अब दोपहर का १ बजने आया था। बढ़ते समय के साथ उसकी परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। अपनी गन्दी साड़ी को समेटती वह गठरी सी हो गई थी कि तभी उसे बाहर एक महिला की आवाज़ सुनाई दी. वह किसी से पूछ रही थी कि क्या तुम लोगो के साथ औरते भी है ? महिला की आवाज़ सुन लछमी ने राहत की सांस ली और गर्दन बाहर कर जब उस महि...
लाइब्रेरी
लघुकथा

लाइब्रेरी

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** (हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजिट अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रेषित लघुकथा) शेफाली लाइब्रेरी में कुछ किताबें ढूंढ रही थी। उसने जो कल किताब पढ़ी थी वो इसी जगह रखी थी। लेकिन अब उसे उसी जगह पर वो किताब मिल नहीं रही थी। उसने उसी विषय की दूसरी किताब उठा ली।यह सोच कर कि हो सकता इसमें वो चैप्टर उसे मिल जाए वो किताब लेकर टेबल पर बैठ गई।  तभी .....उसने वही किताब सामने वाले टेबल पर देखी। वह पहचान गई कि यह वही किताब थी उसके कवर पर पीला रंग -सा लगा हुआ था। वह पहचान गई इससे पहले वे देखती कि किताब किसके पास है वह लड़का किताब उठाकर लाइब्रेरी से निकल गया। वह उसका चेहरा भी नहीं देख पाई। मन में यह सोच कर कि चलो, वह पढ़ के किताब रख देगा। लाइब्रेरी से वह आज नहीं तो कल किताब ले लेगी। अगले दिन वह फिर किताब ढूंढने गई क्योंकि जो किताब उसन...
श्रापित गुड़िया
कहानी

श्रापित गुड़िया

आदर्श उपाध्याय अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश ******************** वह ७ जुलाई २०१७ का दिन था, जब मैं पहली बार किसी शहर के लिए रवाना होने वाला थ। जैसा कि हमारे गांवों की रीति है कि जब कोई अपने घर से दूर प्रवास के लिए जाता है तो जाने से पहले मां, बहन, बुआ, भाभी आदि लोग रास्ते में खाने पीने के लिए कुछ ना कुछ तल भुनकर दे देती हैं ताकि मेरा बेटा, भाई, भतीजा, देवर रास्ते में भूखा ना रहे। ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। जब मैं नहा धोकर तैयार हो गया तो मम्मी और भाभी ढेर सारी पकौड़ी तैयारी मेरे लिए रख दिया लेकिन मेरी इन सब चीजों को साथ ले जाने की बिल्कुल भी रुचि नहीं थी और मेरी पलकें भीगी हुई थी क्योंकि पहली बार जन्म देने वाली मां और जीवन प्रदान करने वाली जन्मभूमि को छोड़कर कहीं दूर जा रहा था। जैसे तैसे मैं अकबरपुर रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। भैया ने ट्रेन का समय बता दिया था लेकिन जब मैं स्टेशन पर पहुंच...