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गद्य

पगली
लघुकथा

पगली

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** मैने उसे स्कूटर पर बैठाया और मुर्गीफार्म का पता पूछते परसुराम मन्दिर पहुच गयी। ये वही जगह थी जहाँ से मै उसे लेकर घर गयी थी। वापस लाते हुए उसकी मूक व्यथा का अनुमान लगाना एक भयावह कल्पना सी लगी वह नही जाना चाह्ती थी मेरा घर छोड़ किन्तु एक क्रूर निर्मम सामाजिक संरचना की अंग होने के कारण मुझे ये अपराध करना ही पडा। कुछ देर तक तो मुझे स्वयं पर ग्लानि की अनुभूति होती रही। सोचती रही की मै उसे ले ही क्यो गयी जब रख पाना कठिन था किन्तु ऐसा नहीं जब मैं अकेले इतने बड़े-बड़े निर्णय लेती हूँ तो ये निर्णय भी किसी के आदेश से थोड़े ही लेना था अतह ले गयी। एक गरीब दुखी भूखी प्यासी माँ के अंदर की चीत्कार ने मुझे हिला के रख दिया था। मैं सोचती गयी, सोचती गयी, पण्डित जी से मैने मन्दिर पर दुर्गा नवमी का हवन कराने के बाद किसी घरेलू नौकरानी दिलाए जाने की बात को कहा...
आखिर क्यों…
लघुकथा

आखिर क्यों…

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** उड़ चली दूर बहुत दूर सपनो के झूले मे, बैठी सूरज की किरनो पर सैर करती, मंद हवा के झोको सी बहती, तितली सी मडराती, ऑखो मे हजारो बसे सपनो को साकार करती, किसी के कोमल स्पर्श को महसूस करती, अपने हर सबाल का सकारात्मक उत्तर पाती, अपने नसीब पर इतराती लहराती बलखाती चलती चली गई, चलती चली गई वह मोहक अहसास एक चुम्बक सा कदमो को जबरन खीचता चला गया, बढ़ते गये कदम। कि अचानक कदम ठिठक गये टकरा गये किसी पत्थर से ..... कहां? कहां है वह स्वप्न संसार? मै तो वही की वही थी, टूटी बिखरी हताश, ओह! तो यह स्वप्न था? पर क्यो? मैने अपने हाथो की लकीरों को ध्यान से देखा वह बदली नहीं थी, फिर यह स्वप्न कैसा?.. फिर? फिर भ्रम, भ्रम था यह सब? ओह रब! क्यो तोड़ता है इतना, क्यो देता है इतनी चुभन? क्या इतना तोड़कर भी तेरा मन नही भरता? या मुझ जैसा कोई और नही मिलता जो बार-बार बहारो का...
असली भगवान है सिर्फ़ “मां”
आलेख

असली भगवान है सिर्फ़ “मां”

शिवांकित तिवारी "शिवा" सतना मध्य प्रदेश ********************              इस सृष्टि की रचना करने के कारण हम सभी ईश्वर को सबसे बड़ा रचनाकार मानते है। उसी तरह मां भी इस धरा पर शिशु को नौ माह तक अपनी कोख में रख अथक पीड़ा सहन करने के उपरांत जन्म देती है अर्थात् शिशु की रचना करती है। इस प्रकार ईश्वर के कृत्य को आगे बढ़ाने में उसकी पूर्णतः सहभागिता होती है। इसीलिए मां को धरती पर ईश्वर का रूप कहते है। मां की कोख में रहने पर शिशु की पूरी संरचना होती ही है एवं जन्म के पश्चात भी मां उसकी ऐसी परवरिश करती है कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाये और अपने जीवन में सफलता हासिल करें। इस तरह मां सिर्फ जन्मदात्री ही नहीं अपितु उसकी पालनकर्ता भी है। मां के बिना संतान का जीवन पूर्णतया अधूरा, सूना और रुका हुआ होता है। वास्तविकता में मां हर किसी के जीवन में विशेष महत्व रखती है, इस एहसाह को शब्दों में बयां नहीं किय...
लाॅकडाउन का संयुक्त परिवार
लघुकथा

लाॅकडाउन का संयुक्त परिवार

जितेंद्र शिवहरे महू, इंदौर ********************                   सुनैना अभी-अभी छाछ की हाण्डी रखने आयी थी। तीनों भाभीयां ने सुनैना को देख लिया। उसे रोककर वे तीनों उससे बातें करने लगी। तीनों भाभीयां चूपके से अनिल को शरारात भरी आंखों से देख रही थी। अनिल शरमा के यहाँ-वहां हो जाता। सौमती का पुरा परिवार आज उसके साथ था। लाॅकडाउन चल रहा था। दोनों बेटे अपने परिवार सहित विधवा मां सौमती के यहां पैतृक गांव आये थे। उन दोनों बेटों के चार बेटे और तीन बेटों की पत्नीयां तथा इन तीन जोड़ों के कुल पांच बच्चों से सौमती का सुना घर खुशियों से भर उठा था। सौमती का छोटा बेटा रामचंद्र अपनी मां के साथ ही था। उसकी पांच बेटीयां थी। सौमती के मंझले बेटे दयाराम का पुत्र अनिल विवाह योग्य हो चला था। सौमती ने उसी गांव की सुनैना की बात अनिल के लिए चलाई थी। मगर दयाराम अपने पढ़े-लिखे अनिल के लिए वैसी ही बहु चाहते थे ताकी सम...
गरीब की बेटी
लघुकथा

गरीब की बेटी

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** मालूम है!", रामदीन कास्टेबल को एस. पी साहब ने पाँच सौ रुपए का नगद ईनाम दिया"। क्यों भला? रातों रात नेताजी की भैंस ढ़ूँढ दी।" "ये तो भैय्या सच में बड़ी बात हुई। पर उसने उनकी भैंस पहचानी कैसे? सभी तो एक समान दिखती हैं, कोई निशान विशान था क्या? "चुप कर,! खबर, बताकर गलती की, कोई सुन लेगा तो नौकरी गई पक्की" ननकू बड़ा हैरान परेशान है, कभी किसी साहब का कुत्ते खो गया, तो किसी की गाय, सब ढूँढ़ निकालते हैं पुलिस वाले, गरीब की बेटी तो जानवरों से भी बदतर है, तभी तो, मेरी बिटिया गायब हो गई, पर रिपोर्ट भी लिखने को तैयार नहीं हुई पुलिस....। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा पंत सेवानिवृत : शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय भोपाल निवासी : महू जिला इंदौर सदस्या : लेखिका संघ भोपाल जागरण, कर्मवीर, तथा अक्षरा में प्रकाशित लघुकथा, लेख तथा कविताऐ उद्घोषणा : यह...
चमकदार
लघुकथा

चमकदार

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** घर का माहौल काफी गमगीन था। सभी नीमी को बार-बार समझा रहे थे कि वो अपना निर्णय बदल दे। पर वह मानने को तैयार नहीं थी।परिवार के सभी लोग हार चुके थे। वह अपने फैसले पर अडिग थी। माँ कह रही थी, पता नहीं सोनू ने मेरी बेटी को क्या घोल कर पिला दिया है? अब सिर्फ पापा ही कुछ कर सकते हैं, यह उनकी बात कभी नहीं टाल सकती। पापा इसे सबसे ज्यादा लाड़ करते हैं। अगर इसने सोनू से शादी कर ली तो पूरे परिवार की नाक कट जाएगी। पापा सारी घटना को जान कर भी कैसे अनजान रह सकते हैं, भाई चिल्ला उठा? मम्मी मैं पापा से खुलकर बात करूँगा, आखिर उनके मन में क्या चल रहा है? उन्हें पूरा हक है कि वह नीमी को रोक दे। वरना अनर्थ हो जाएगा। क्या हमारी बिरादरी में अच्छे लड़के खत्म हो गए हैं? क्या सोनू ही अकेला कामयाब लड़का रह गया है? मुझें समझ नहीं आता, यह लड़की मान क्यों नहीं रही है? न...
घर एक मन्दिर ही है
आलेख

घर एक मन्दिर ही है

राजकुमार अरोड़ा 'गाइड' बहादुरगढ़ (हरियाणा) ********************                   यह बात निस्संदेह नितान्त सत्य ही है कि घर एक मन्दिर की तरह है। मन्दिर में जाते ही प्रभु से समीपता का एहसास होता है, ऐसे ही घर में जहाँ परस्पर प्यार,लगाव, आकर्षण है, जाते ही अपनेपन का एहसास हिलोरें लेना लगता है, घर की देहरी में आते ही सारी थकान दूर हो जाती है तो यह मंदिर ही जैसा लगता है,नहीं तो मकान ही है, ईंट सीमेंट से बना, जहां एक दूसरे से विमुख कुछ प्राणी बस किसी तरह रहते हैं। पति-पत्नी दोनों या सिर्फ पति की नौकरी,बच्चों के स्कूल,टयूशन व शाम को ऑफिस से लेट आना, फिर घर रसोई के काम, बच्चों से पढ़ाई व अन्य जानकारी लेना अगले दिन फिर वही रूटीन, जिंदगी यूं ही बीतती जाये तो मशीन से क्या अलग है,एकाएक इस महामारी के कारण हुए लॉकडाउन या अब कुछ अनलॉक के कारण जीवनधारा तो बिल्कुल ही बदल ही गई, पहले कहते थे,मरने की फुर्सत न...
उपहार
कहानी

उपहार

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ********************      आज रक्षाबंधन का त्योहार था। मेरी कोई बहन तो थी नहीं जो मुझे (श्रीश) कुछ भी उत्साह होता। न ही मुझे किसी की प्रतीक्षा में बेचैन होने की जरुरत ही थी और नहीं किसी के घर जाकर कलाई सजवाने की व्याकुलता। सुबह सुबह ही माँ को बोलकर कि एकाध घंटे में लौट आऊंगा। माँ को पता था कि मैं यूँ ही फालतू घर से बाहर नहीं जाता था। इसलिए अपनी आदत के विपरीत उसनें कुछ न तो कुछ कहा और न ही कुछ पूछा। उसे पता था कि मेरा ठिकाना घर से थोड़ी ही दूर माता का मंदिर ही होगा। जहाँ हर साल की तरह मेरा रक्षाबंधन का दिन कटता था। मैं घर से निकलकर मंदिर के पास पहुँचने ही वाला था सामने से आ रही एक युवा लड़की स्कूटी समेत गिर पड़ी, मैं जल्दी से उसके पास पहुंचा, तब तक कुछ और भी लोग पहुंच गये। उनमें से एक ने स्कूटी उठाकर किनारे किया। फिर एक अन्य व्यक्ति की सहायता...
डॉं. मसानिया कृत शोध नवाचार शिक्षा जगत के लिये उपयोगी
पुस्तक समीक्षा

डॉं. मसानिया कृत शोध नवाचार शिक्षा जगत के लिये उपयोगी

                                 आगर मालवा के शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय आगर के व्याख्याता डॉ. दशरथ मसानिया साहित्य के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियां दर्ज हैं। २० से अधिक पुस्तके, ५० से अधिक नवाचार है। इन्हीं उपलब्धियों के आधार पर उन्हें मध्यप्रदेश शासन तथा देश के कई राज्यों ने पुरस्कृत भी किया है। डॉं मसानिया विगत १० वर्षों से हिंदी गायन की विशेष विधा जो दोहा चौपाई पर आधारित है, चालीसा लेखन में लगे हैं। इन चालिसाओं को अध्ययन की सुविधा के लिए शैक्षणिक, धार्मिक महापुरुष, महिला सशक्तिकरण आदि भागों में बांटा जा सकता है उन्होंने अपने १० वर्ष की यात्रा में शानदार ५० से अधिक चालीसा लिखकर एक रिकॉर्ड बनाया है। इनका प्रथम अंग्रेजी चालीसा दीपावली के दिन सन २०१० में प्रकाशित हुआ तथा ५० वां चालीसा रक्षाबंधन के दिन ३ अगस्त २०२० को सूर्यकांत निराला चालीसा प्रकाशित हुआ। रक्षाबंधन के मंगल पर्व पर डॉ दशर...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** उस दिन स्कूल में सोनू को मैने बडी शान से कहां, 'आज मैने राम मंदिर में पूजा की।' 'क्यों? उस घर के सब बडे कहां गए?' सोनू ने पूछा। सोनू को भी पता था कि वह घर मेरा नही है।' कितने सारे तो भगवान है वहां मंदिर में? तुमने कैसे की होगी पूजा?' सोनू ने मुझसे पूछा। 'माई बताती गयी और मै करते गया।' 'वो बुढीया तो बहुत ही खूंसट है। तू अनाथ उस घर में आश्रित है। तेरे उपर तो बहुत चिल्लायी होगी? है कि नही?' सोनू के बोलने का तरीका ऐसे ही था और वो बातों-बातों में हमेशा मेरी हालात का मुझे एहसास भी करा ही देता था। 'नहीं ज्यादा नहीं चिल्लायी मेरे उपर।' 'ठीक है।मै तेरी जगह होता तो उस खूंसट की एक भी नहीं सुनता।' 'तूने नहीं की कभी तेरे घर में भगवान की पूजा?'मैने सोनू से पूछा। 'अरे हाट! अपने को नहीं कहता कोई ऐसे फालतू काम। इन्ना ही करती है सब कुछ। मेरे को तो सिर्फ खा...
कुलक्षणी औरत
लघुकथा

कुलक्षणी औरत

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** मैं जब भी गाँव जाता तो देखता कि रामदास की घरवाली गृहस्थी के काम में हर पल उलझी ही रहती! बेचारी को पल भर की फुर्सत नहीं थी घर के काम से, शान-शौक तो जैसे सब कब के छूट चुके थे! सिर पर जिम्मेदारी का बोझ था, देखने में लगता जैसे बीमार हो बेचारी! वहीं दूसरी ओर उसका पति रामदास निहायत निठल्ला, कामचोर, पत्तियाँ खेलते हुए समय बेकार करता रहता था! घर की स्थिति बेहद नाजुक थी!गरीबी तो मानो छप्पर पर चढ़कर चिल्ला रही थी कि उसका हमेशा से शुभ स्थान रामदास का घर ही रहा है! इस बार मैं चार महीने से गाँव नही जा पाया था, लेकिन चार महीने बाद में जब गाँव गया तो देखा कि रामदास का तीन कमरे का पक्का मकान बना हुआ था! रामदास ने एक आटो भी खरीद ली थी! सब कुछ बहुत अच्छा हो गया था! मैं ने रामदास से पूछा कि इतना परिवर्तन अचानक कैसे हुआ? और तुम्हारी घर वाली नही दिख र...
महान कौन?
लघुकथा

महान कौन?

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** दोनों हाथों में कत्थाई रंग की तलवारनुमा आकृति वाली दो सूखी बड़ी फल्लियाँ लिये ग्यारह वर्षीय साकेत मित्र सहित शाम ढले घर आया अतिउत्साह में! "मम्मा! देखो मैं क्या लाया?" मां- "अरे सक्कू! बेटा क्या लाये ये? गुलमोहर की सूखी फल्ली?" (आश्चर्य पूर्वक) साकेत- "नहीं मम्मा ये तो तलवारें हैं, तलवारें, दो मेरी दो मेरे दोस्त शिवु की।" मां- "पर तुम ये क्यों लाये?" साकेत- "महान बनने।" मां- "महान बनने!" (अत्यंत विस्मय से) विभु- "हां आंटी जी, महान बनने, अब हम दोनों मुकाबला करेंगे फिर, जो जीता वो बाकियों से लडे़गा ऐंसे ही तो महान बनते हैं ना?" मां- "तुमदोनों से किसने कहा ऐंसे कामों से कोई महान बनता है?" (क्रोधपूर्वक) साकेत- "वैभव एक साथ-आपने! और हमारी इतिहास विषय की शिक्षिका जी ने।" (सहज भाव से) मां- "क्या; मैने कब कहा? और शिक्षिका से अभी पूंछती हूँ।" सा...
लोक देवता : टंट्या भील
संस्मरण

लोक देवता : टंट्या भील

धीरेन्द्र कुमार जोशी कोदरिया, महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** किसी दबे, कुचले, शोषित, वंचित समाज से जब कोई निहित स्वार्थ को त्याग सर्व हितों के लिए उठ खड़ा होता है तो वह जननायक और कभी-कभी लोक देवता का रूप ले लेता है। टंट्या भील भी मालवा निमाड़ के ऐसे ही नायक थे जो गरीबों के मसीहा बन कर आज भी लोक देवता बन पूजे जाते हैं। टंट्या भील का जन्म सन १८४२ में खंडवा के आदिवासी अंचल में भाऊ सिंह भील के घर हुआ था बचपन से ही उनका शरीर दुबला पतला एवं कद लंबा होने से उन्हें टंट्या कहा जाने लगा। टंट्या भील का बचपन बहुत ही संघर्षपूर्ण गुजरा। उनकी मां उनके बचपन में ही गुजर गई थी। उनके पिता ने शादी नहीं की। उन्हें शस्त्र कला में निपुण बनाया। वे लाठी गोफन और तीर कमान का संचालन कुशलता से करते थे। वे अपने क्षेत्र में सब के दुलारे एवं युवाओं के नायक बनकर उभरे। पिता की खेती संभाली चार साल तक सू...
सहारा
लघुकथा

सहारा

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** माँ, आज पंचतन्त्र में विलीन हो गई थी। वह एक नई यात्रा पर निकल चुकी थी। उस यात्रा पर हर व्यक्ति अकेले ही तो जाता हैं। माँ भी चली गई थी। हमारा सम्बन्ध तो इस लोक तक ही रहता हैं। जब माँ थी, तो मैं हर छोटो-बड़ी बात के लिए उनके पास बैठ जाता था। उनका स्नेह भरा स्पर्श मेरी हर समस्या का हल तुरन्त कर देता था। उनका स्पर्श किसी आशीर्वाद से कम नहीं था मेरे लिए। पर अब मेरा क्या होगा, सोचने मात्र से ही मेरे पूरे शरीर में सिरहन सी दौड़ पड़ती है? मैं निराशा के समुन्द्र में गोते खानें लग जाता हूँ। माँ के आशीर्वाद से मेरे पास सबकुछ है। अच्छा कारोबार, बंगला, बैंक-बैलेंस और नौकर-चक्कर। पर माँ का सहारा नहीं हैं। जब भी मुझें अपने कारोबार में किसी तरह की दिक्कत आती थी। तब माँ का सकारात्मक रवैया मुझमें नई ऊर्जा भर देता था। बस एक ही शिक्षा देती थी। बेटा कभी किसी ...
आत्मविश्वास
कहानी

आत्मविश्वास

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************   तीस साल का अशोक एक सीनियर प्रबंधक, बहुराष्ट्रीय कम्पनी के स्वागत कक्ष में बैठा था।अशोक थोड़ा आतुर था, थोड़ा घबराया हुआ क्यूंकि आज उसके जीवनकाल और उसके कम्पनी की सबसे बड़ा समझौते पर हस्ताक्षर होने जा रहे थे। तभी रिसेप्शनिस्ट ने आकर उसे बताया कि सर बुला रहे हैं और आपको प्रेज़ेंटेशन के लिये सिर्फ बीस मिनट का समय है। अंदर जाकर जैसे ही अशोक ने प्रेजेंटेशन देना शुरू किया वो बीस मिनट कब जाकर चार घंटे हो गये पता ही नहीं लगा। उसके प्रेजेंटेशन से कम्पनी का मालिक बहोत खुश हुआ और डील साइन हुई। साइन करते-करते मालिक ने कहा- यंग मेन मैं तुमसे बहोत इम्प्रेस हुआ हूँ। जब से अशोक आया तब से उसकी नजर वहाँ रखी लूज तम्बाकू और लूज कागज से जो हेंडरोल सिगरेट बनाते हैं वो उनकी मेज पर रखी थी। तभी मालिक ने अशोक से पूछा कि क्या तुम इसे लोगे? अशोक ने हामी भरते हुए ए...
बिंदी
लघुकथा

बिंदी

डॉ. पायल त्रिवेदी अहमदाबाद (गुजरात) ******************** "माँ, हम बिंदी क्यों लगाते हैं?" जब पांच साल की छोटी बिंदी ने माँ से यह सवाल किया तो माँ ने उसे हंसकर टाल दिया, तुम अभी छोटी हो, यह बात नहीं समझ पाओगीपर बिंदी जब ज़िद पर उतर आयी तो माँ ने इतना कहकर उसे समझा दिया, बिंदी हम सुहागिनों की निशानी है। सभी औरतें इसे लगाती है और इसे अच्छा शगुन भी माना जाता है इस वजह से सभी लड़कियों के लिए भी बिंदी बहुत ही शुभ मानी जाती है। तभी तो माता रानी को भी यह लगायी जाती है। बिंदी तुरंत उठकर अपनी काकी के पास चली गयी, काकी, तुम क्यों नहीं लगाती बिंदी जब यह तो शुभ मानी जाती है? बिंदी के मुँह से यह प्रश्न सुनकर दादी तुनककर बोली, अचला, इसे समझाओ की बड़ों की सभी बातों में इसे नहीं पड़ना चाहिए। जी माजी कहकर अचला ने बिंदी को अपने पास बुला लिया, बिंदी चलो, तुम अपनी गुड़ियाकी शादी में मुझे नहीं बुलाओगी? तब बिंदी समझ ...
मख्खनबाजी और बेईमानी आवश्यक है भाई!
व्यंग्य

मख्खनबाजी और बेईमानी आवश्यक है भाई!

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** जी हाँ ! बिलकुल सही पढ़ा है आपने! खुद के द्वारा किए गए एक शोध से यह कहने में मुझे कोई गुरेज नही कि यह दुनिया सिर्फ और सिर्फ मख्खनबाजी और बेईमानी की बुनियाद पर टिकी हुई है! दुनिया में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति में मख्खनबाजी और बेईमानी का गुण विद्यमान है चाहे वह नर हो या नारी! मैं तो यह बात भी दावे के साथ कह रहा हूँ कि यदि मख्खनबाजी और बेईमानी का रास्ता छोड़ दिया जाए तो दुनिया जैसी चल रही है वैसे चल ही नहीं पाएगी! मख्खनबाजी और बेईमानी की राह छोड़ देने से सब तहस-नहस हो जाएगा! रिश्ते नाते खत्म हो जाएंगे! मख्खनबाजी और बेईमानी छोड़ देने से आपसी प्रेम और भाईचारा खत्म हो जाएगा! आपने कभी सोचा है कि एक औरत अपने पति के बारे में जो सोचती है वह कह ही नहीं सकती या एक पति अपने पत्नी के बारे में जो सोचता है वह कहता ही नहीं जीवन पर्यन्त क्यों ? क...
प्रदूषण मुक्त सांसें : पर्यावरण की महत्ता बताती जरूरी किताब
पुस्तक समीक्षा

प्रदूषण मुक्त सांसें : पर्यावरण की महत्ता बताती जरूरी किताब

योगेश कुमार गोयल नजफगढ़ (नई दिल्ली) ******************** पुस्तक : प्रदूषण मुक्त सांसें लेखक : योगेश कुमार गोयल पृष्ठ संख्या : १९० प्रकाशक : मीडिया केयर नेटवर्क, ११४, गली नं. ६, एमडी मार्ग, नजफगढ़, नई दिल्ली-११००४३ मूल्य : २६० रुपये समीक्षक : लोकमित्र हाल के सालों में यह पहला ऐसा मौका है, जब पिछले कुछ महीनों में दुनिया के बिगड़ते पर्यावरण और प्रदूषण की किसी गहराती समस्या ने हमारा ध्यान नहीं खींचा। शायद इसकी वजह यह है कि दुनिया पिछले कुछ महीनों से कोरोना संक्रमण के चक्रव्यूह में फंसी हुई है, नहीं तो कोई ऐसा महीना नहीं गुजरता, जब बिगड़ते पर्यावरण की बेहद चिंताजनक और ध्यान खींचने वाली कोई खबर दुनिया के किसी कोने से न आती हो। वास्तव में २१वीं सदी की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी या आतंकवाद नहीं है। इनसे भी बड़ी समस्या हर तरह का बढ़ता प्रदूषण है, जिसके कारण धरती पर लगातार विनाश का खतरा मंडरा रहा...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दिन कैसे जल्दी जल्दी गुजरते रहते हैं इसका हम अंदाज भी नहीं लगा सकते। मैं फिर से जनकगंज में सरकारी प्राथमिक विद्यालय में जाने लगा था। मेरी तीसरी कक्षा की परीक्षाएं ख़त्म हो गयी थी और विशेष यह था कि इतना भटकने के बाद भी मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ था। काकी ने तो पूरे बाड़े में ही पेढ़े बांटे थे। नानाजी ने भी दादा को चिट्ठी लिखकर मेरे पास होने की खबर कर दी थी। दादा का भी नानाजी को जवाब आ गया था जिसके अनुसार हमें ये भी पता पड़ा कि माँजी और सुशीला बाई सिवनी में थी। सुशीलाबाई ने भी अपना त्यागपत्र भेज दिया था पर उस पर फैसला जुलाई महीने में स्कूल खुलने के बाद ही होने वाला था। दादा का जरूर भोपाल तबादले का आदेश अभी तक उन्हें नहीं मिला था। कुल मिलाकर इन सब अनिश्चतितताओं के कारण दादा के विवाह की तिथि अभी तय नहीं हो सकी थी। मेरे स्कू...
सच्चे मित्र
संस्मरण

सच्चे मित्र

डॉ. सर्वेश व्यास इंदौर मध्य प्रदेश ********************                                      जिंदगी की उपादोह में व्यक्ति ने अपने आपको इतना उलझा लिया है कि कभी पीछे मुड़कर देखने का मौका ही नहीं मिलता। आजकल व्यक्ति के चिंतन का मुख्य बिंदु है, भविष्य में क्या करना है? कैसे करना है? इस भागा दौड़ी में वह अपने आप को ना जाने कहां छोड़ आया है? जिसे खोजने के लिए उसे समय चाहिए, जो शायद आज उसके पास नहीं है। इसी भागा-दौडी़ और उपादोह बीच अचानक कोरोना आया, लाक डाउन हुआ, गाँव रुक गया, शहर रुक गया, देश रुक गया, विदेश रुक गया और सबसे बड़ी बात मनुष्य रुक गया, हाँ-हाँ मनुष्य रुक गया। जहां यह कोरोना बहुत सारी समस्याएं लेकर आया, वही यह एक अवसर लेकर आया-खोजने का। किसको? अपने आप को और अपनों को। यह अवसर लाया उस यात्रा पर पीछे जाने का, जिस यात्रा के किसी मोड़ पर हम अपने आपको और अपनों को पीछे छोड़ आए थे। मैंने स...
रेशम के धागे
लघुकथा

रेशम के धागे

सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' इन्दौर (मध्यप्रदेश) ******************** वरुण की एक ही बहन है रीमा। उसके विवाह को पांच वर्ष हो गये। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह रक्षाबंधन पर नहीं आई परन्तु इस वर्ष का रक्षाबंधन कोरोना काल में आया। वरुण का मन यह माननें को तैयार नहीं था कि इस वर्ष उसकी कलाई पर बहना की राखी नहीं सजेगी। रीमा भी बहुत लालायित थी मायके जाने को पर दोनों ने अपनी भावनाओं के प्रवाह को काबू में करके तय किया कि हम कोरोना काल में स्वास्थ्य मंत्रालय के नियमों का पालन करेंगे और सामाजिक दूरी बनाए रखेंगे। यही सोंचकर रीमा बाजार भी नहीं गई और घर में रखे कुछ रेशम के धागे एक लिफाफे में रखे, साथ में एक चिट्ठी में लिख दिया भाई इन धागों को मेरी राखी समझ अपनी बिटिया चीनू से बंधवा लेना। रीमा ने नम आँखों से वह लिफाफा पोस्ट कर दिया। परिचय :- सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' जन्म तिथि : ०३/०४/१९६४ शिक्षा : बी. एस. सी; एम.ए.(अ...
खाली स्थान
लघुकथा

खाली स्थान

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** गंगा की याद आते ही मन पूरी तरह उचट जाता था। सभी कुछ था मेरे पास। आज तक मैं जीवन में दौड़ ही रहा था। कभी डिग्री पाने के लिए, कभी नौकरी पाने के लिए। मैं तो अपने घर में ही खुश था। अपने गाँव में, अपने खेतों में, बाप-दादा की तरह। मैं भी खेती करना चाहता था। मुझें बचपन से ही खेत-खलिहान अपनी तरफ खीचते थे, लहलहाती फसलें, माटी की भीनी-भीनी सुगंध। ऐसा सादा जीवन ही मुझें पसन्द था। पर उसकी जिद के आगे मै नतमस्तक हो गया था। वही चाहती थी कि मै पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनू। जब भी पीछे मुड़कर उसका बलिदान देखता हूँ, परेशान हो उठता हूँ। हमेशा मेरे पीछे लगी रहती थीं। जब भी मै विदेश जाने की बात पर टाल मटोल करता। उसका प्यार भरा स्पर्श, अपनेपन का अहसास मुझें अन्दर तक सहला जाता। उसके इस प्यार भरे अहसास ने ही मुझें विदेश जाकर डॉक्टरी करने को मजबूर कर दिया था। उसी का प...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बसंतपंचमी के आठ दिन पहले ही हम सब ग्वालियर के छत्रीबाजार के मकान में पहुँच गए। वहां पर हमें छोड़ने के बाद माँजी और सुशीलाबाई को दादा बेबी की माँ के यहाँ मतलब सुशीलाबाई की मौसी के यहाँ छोड़ने गए। वैसे छत्रीबाजार वाले पुश्तैनी मकान में रहने का मेरा यह पहला ही अवसर था। रिश्ते जन्म से और पुराने ही थे पर पहचान नए सिरे से थी। जिन रघुभैया नहीं नहीं वे मेरे ताऊ है और मुझे उन्हे आदर के साथ ताऊजी ही कहना चाहिए तो जिन ताउजी के बारे में दादा माँजी और सुशीलाबाई को बुरहानपुर और पथरिया में बता चुके थे और जिन ताऊजी से दादा अपने ब्याह के बारे में बात करने वाले थे उन ताउजी को मैंने तो पहली ही बार देखा। इसी के साथ उनकी पत्नी राजाबाई मतलब मेरी ताईजी और सबसे बड़ी एक विधवा ताईजी भी जो यही रहती थी उनसे भी मिलना हुआ। ताऊजी के बच्चों समेत पूरा परिवार हमारे उपनयन संस...
प्रवास
कहानी

प्रवास

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************   शाम के करीब छः साढ़े छः का समय था। बाहर अरब सागर पर सूर्य ढल रहा था। जिसकी लालिमा अरब सागर पर अपनी छाप छोड़ रही थी। मैं अपने चौदहवी माले वाले नरीमन पॉइंट पर स्थित कार्यालय से सागर की उठती लहरों को देखकर सोच रहा था कि जिंदगी भी कितनी अजीब है। मैं आज ही के दिन करीब तीस साल पहले यहाँ आया था तब क्या था और आज क्या हूँ। इतने में टेलीफ़ोन की घंटी बजी। उठाया तो घर से फ़ोन था। पत्नी ने बाबूजी की पिच्यास्वी सालगिरह की पार्टी हेतु टिकिट बुक कराने का याद दिलाया था। मेरे दिमाग के ख्याल समुद की लहरों की भांति बिखर गये। घर जाने की तैयारी मैं मैने अपने टेबल पर बिखरे काम पूरे किये और अजीज को गाडी निकालने को कहाl इतने सालों के बाद गाँव जाने के ख्यालों में कब घर पहुँचा मालूम ही ना पड़ा। घर में गुस्ते ही मैने कहा आप सबको सरप्राइज है। हम सब इस बार अपनी नई ...
मास्टर जी की धोती
लघुकथा

मास्टर जी की धोती

गीता कौशिक “रतन” नार्थ करोलाइना (अमरीका) ******************** माँ रोज़ सुबह सवेरे ही रतन को नहला-धुला कर तैयार करके बिठा देती। एक स्टील की डिबिया में चूरमा भरकर ओर साथ में घी में डूबी दो रोटी भी बाँधकर बस्ते में रख देती। साथ ही रतन के गले में बस्ता लटका कर स्कूल के लिए चलता कर देतीं। बार-त्योहार के अलावा कभी-कभार माँ जब ज़्यादा प्यार दिखातीं तो छींकें पर लटके कटोरीदान में से इक्कनी निकाल कर रतन के हाथ में रख देती। कहती “ बेटा, भूखा मत रहना, बाग से अमरूद लेकर खा लेना”। गाँव से ही, रतन के दो और साथी उसी की कक्षा में पढ़ते थे। तीनों मिलकर स्कूल भी साथ आया-ज़ाया करते। राह में धूलियाँ उड़ाते दो कोस का स्कूल का रास्ता झट से पार हो जाता। कभी-कभी रास्ते में ये तीनों साथी ज़ोर ज़ोर से पहाड़े गा-गाकर याद करते जाते। इस बार छुट्टियों में मॉं के साथ जब रतन नाना-नानी के घर गया, तो नानाजी ने अ...