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स्वप्निल झिलमिल दीप जलायें

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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जिस तरह रजनीगंधा से
जीवन की हर शाम सुवासित।

तारों की नन्ही उमंग से
मन की आशायें हुईं प्रकाशित।

अब न कहीं भी रहे मूक,
एक दिया भी कुम्भकार का।

चहुंदिश हो जाये उजियारा,
निराकार उस निर्विकार का।

सत्य ही जब जब जला है,
आस्था का एक दीपक,

सदियों से गवाही दी है समय ने
अंधियारे मन के, विलीन हुए हैं।

ले उसकी ज्योति प्रज्ञ प्रभा हम
कर्म के पथ पर लीन हुए हैं।

इस दीप पर्व भी संकल्पों के,
कुछ ज्योति कलश हम भी छलकाएं!

प्रेरणा के, आस्था के
स्वप्निल, झिलमिल दीप जलाएं!!

परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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