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यादों की गठरी

राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)

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               मां, बेटे को मिल रही सफलता पर फूली नही समा रही थी। उसका मन बेटे को दुआएँ दे रहा था। वह बेटे को चूम लेना चाहती थी। पर सम्भव नही था। वह माँ से कोसो दूर बैठा था। कितने साल हो गए थे। उसे गाँव से गए। माँ के चेहरे की झुर्रियाँ लगातार बढ़ती ही जा रही थीं। आँखों की ज्योति भी धीमी पड़ रही थी। पर माँ का उत्साह कम होने का नाम नहीं ले रहा था। वह जब भी उदास होती। अतीत की यादों में खो जाती।उसे आज भी याद हैं जब गाँव के स्कूल मास्टर ने साफ कह दिया था। तेरा लला पढ़ नही सकता, इसका दिमाग बहुत कम है। क्यों अपने पैसे खराब कर रही हो? तुमने क्या सोच कर इसका नाम ज्ञान रखा है। ये तो पूरी तरह अज्ञानी है। कितना मन दुःखा था उस दिन। उसने बहुत मिन्नतें की थी, मास्टर सहाब से। आपका ही बच्चा है, दया कीजिए। शुरू-शुरू में तो वह बिल्कुल नहीं माने थे। ज्ञान सभी से पीछे था। वह भी उसे हिन्दी पढ़ना सिखाती थी। कभी-कभी मन बैठ जाता था कही मेरा ज्ञान अनपढ़ ना रह जाए।
माँ रात-दिन यही सपने देखती कब आएगा मेरा लला।
आस-पड़ोस की औरतें तो यहाँ तक कहने लगी थी, बुढ़िया पागल हो गई है। जो रात-दिन अपने लला के बारे में ही सोचती रहती है। ऐसी भी पढ़ने की क्या भूख, कि उसे अपनी माँ की भी सुध नहीं है। कुछ तो उसके मुहँ पर ही कह देते थे। माँ अब तेरा लला नहीं आएगा। क्यों अपना बुढ़ापा खराब कर रही है उसकी याद में। उनकी बातें सुनकर वह थोड़ी परेशान हो जाती और कहती तुम्हे चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं।मेरे पास ये मेरे लला की यादें ही बहुत है। जब भी ज्ञान का नाम किसी अखबार में छपता, वह अखबार अपनी गठरी में सँजो कर रख लेती।समय गुजरता जा रहा था। गठरी भारी होती जा रही थी। पर ज्ञान लौट कर नही आया। एक सुबह माँ की आवाज नही आई। सभी दौड़ कर देखने गई। वह अब संसार में नहीं थी। उनके हाँथो में गठरी थी। यादों की गठरी। जैसे कह रही हो, मेरे लला तक गठरी पहुँचा देना।

परिचय : राकेश कुमार तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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