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खुद का निर्माण करें

सुधीर श्रीवास्तव
बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.)
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                         मानव जीवन अनमोल है, इस बात से इंकार कोई नहीं करता। परंतु यह भी विडंबना ही है कि ईश्वर अंश रूपी शरीर का हम उतना मान सम्मान नहीं करते, जितना वास्तव में हमें करना चाहिए। यह सच है कि हम अपने मिट्टी के पुतले सरीखे शरीर के ऊपरी सौंदर्य की चिंता बहुत करते हैं, अनेकानेक सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग निरंतर करते हैं, किंतु इस शरीर के भीतर बैठे ईश्वर और उसके निवास रुपी मंदिर के प्रति कभी सचेत होना ही नहीं चाहते।
इसीलिए हम वाहृय निर्माण और भौतिक सुख दुख के चक्रव्यूह में उलझे रह जाते हैं और खुद के निर्माण के प्रति लापरवाह बने रहते हैं।जिसका खामियाजा न केवल खुद हमें बल्कि परिवार, समाज, राष्ट्र और समूचे संसार को किसी न किसी रुप में भुगतना ही पड़ता है।
आज की अगर सबसे बड़ी जरूरत की बात करें तो वह है खुद के निर्माण की। हम सोचना ही होगा कि हम अपना निर्माण कैसे करें? वाहृय निर्माण से अधिक जरूरी है खूद के निर्माण की। ईश्वर ने हमें सर्वश्रेष्ठ बनाया है, सिर्फ़ इतना मानने भर से हम श्रेष्ठ नहीं हो गये। हमें अपने मन, वचन, कर्म से भी, श्रेष्ठ बनना ही होगा। खुद का अर्थात स्वयं का निर्माण करना होगा।
जब तक हम खुद को ईश्वर की एक इकाई मानकर विचार नहीं करेंगे, तब तक हमारा या आपका भला होने से रहा। हमें अपने शरीर रुपी मंदिर और उसके भीतर बैठे जीवतत्व को महत्व देना, उसकी स्वच्छता, उसके प्रति समर्पण भाव का अनुकरण बनाए रखना ही होगा। हम जितनी चिंता वाहृय निर्माण की करते हैं, उससे कहीं अधिक चिंता स्वनिर्माण की भी करनी ही होगी।
इस परिप्रेक्ष्य में एक सच्चाई यह भी है कि खुद का निर्माण बहुत सरल है। निर्माण को अभीष्ट प्रदान करने के लिए हमें सिर्फ अच्छाइयों और सकारात्मक बिंदुओं पर ही ध्यान केंद्रित करना होगा। हमें औरों के साथ-साथ अपने आप के भी अच्छे ही गुणों पर ध्यान देना होगा। हम सभी सर्वशक्तिमान परमात्मा की संतान हैं। शक्तिशाली परमात्मा के सारे गुण हमारे अंदर विद्यमान हैं। उन शक्तियों का सही प्रयोग करके हम अपना निर्माण सहज ही कर सकते हैं। अपना सुंदर निर्माण के साथ ही हम अपने परिवार, समाज, राष्ट्र तथा पूरी सृष्टि का निर्माण कर सकते हैं।
आइए आज को हम अपने जीवन के स्व निर्माण की पहली सुबह मानकर जुट जायें। और सबसे पहले खुद के निर्माण के लिए भरसक प्रयास करें। विश्वास कीजिए असंभव जैसा भाव संभव की सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए असंभव को ताले के अंदर बंद कर सिर्फ़ संभव के मंत्र का मंत्रोच्चार कीजिए। याद रखिए आप की पहचान आप नहीं आपका व्यक्तित्व, कृतित्व ही रेखांकित करने वाला है। इसके लिए स्वनिर्माण के सिवा कोई रास्ता ही नहीं है।

परिचय :- सुधीर श्रीवास्तव
जन्मतिथि : ०१.०७.१९६९
पिता : स्व.श्री ज्ञानप्रकाश श्रीवास्तव
माता : स्व.विमला देवी
धर्मपत्नी : अंजू श्रीवास्तव
पुत्री : संस्कृति, गरिमा
पैतृक निवास : ग्राम-बरसैनियां, मनकापुर, जिला-गोण्डा (उ.प्र.)
वर्तमान निवास : शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव जिला-गोण्डा, उ.प्र.
शिक्षा : स्नातक, आई.टी.आई.,पत्रकारिता प्रशिक्षण (पत्राचार)
साहित्यिक गतिविधियाँ : विभिन्न विधाओं की कविताएं, कहानियां, लघुकथाएं, आलेख, परिचर्चा, पुस्तक समीक्षा आदि का १०० से अधिक स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। दो दर्जन से अधिक संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन।
सम्मान : एक दर्जन से अधिक सम्मान पत्र।
विशेष : कुछ व्यक्तिगत कारणों से १७-१८ वषों से समस्त साहित्यिक गतिविधियों पर विराम रहा। कोरोना काल ने पुनः सृजनपथ पर आगे बढ़ने के लिए विवश किया या यूँ कहें कि मेरी सुसुप्तावस्था में पड़ी गतिविधियों को पल्लवित होने का मार्ग प्रशस्त किया है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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