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हौसला पंछी का पिंजरा

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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छंद काव्य

उमर नही होती है जिनकी, फिर भी शैल उठाया है
रखते पास हौसला पंछी, पिंजरा भी उड़ाया हैं।

जब होनहार बिरवान सुना, हर पीढ़ी सुनते आए
किसी का दायित्व भी बनता, खुद से वो कितना गाए
तकदीर लिखाकर जो आता, खून पसीने की खाए
बेगानों की बात नहीं थी, अपनों से धोखे पाए
नौ मन तेल बिना ही कैसे, तिगनी नाच कराया है।
दिल में नफरत दीवारें थीं, फिर भी साथ बिठाया है।
उमर नहीं होती है जिनकी, फिर भी शैल उठाया है।
रखते पास हौसला पंछी, पिंजरा भी उड़ाया है।

धोखा विश्वास नदी पाट से, दोनों अलग किनारे हैं
दोनों मिल जाए मनुष्य को, तकदीरों के मारे हैं
बनती वजह लिहाज चाशनी, सदा समंदर खारे हैं
स्थिर जीवन कबूल नहीं फिर, मानो बहते धारे है
तिनका मोरपंख बन जाए, सिया कटार बनाया है।
अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखे, अल्प धन ही कमाया है।
उमर नहीं होती है जिनकी, फिर भी शैल उठाया है।
रखते पास हौसला पंछी, पिंजरा भी उड़ाया है।

कविता शेर गजल खूब सुनी, दर्द उमंग संचार था
लेखन सृजन के भावों का, अनुभव सही आधार था
अनेक क्षेत्र में सेवा अर्पित, एकाकी मन विचार था
जीवन बीता मुक्त हस्त से, शामिल मस्त व्यापार था
प्रगति देख नहीं सके कभी, सम्मानों से गिराया है।
विजय चाह भी खास निराली, वक्त बदलना आया है।
उमर नहीं होती है जिनकी, फिर भी शैल उठाया है।
रखते पास हौसला पंछी, पिंजरा भी उड़ाया है।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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