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विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
मानो बुराई अंत हेतु अति निवेश कर गया।
होली तो आस्था मित्रता की परिचायक रही
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
घुसपैठ, साजिशें नित्य सुना रही चाप है
शातिर ‘वाज़े’ के नगाड़े की मूक थाप है
चुनावी-हिंसा मानव रंगों से बना नाप है
उमड़ती भीड़ से कोरोना बम फट गया
गुबारमय गुलाल उड़ाना चाहत बन गया
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
चुनावी दम दिखाने नेता सत्ता हाजिर हैं
बनावट मिलावट रंग से हो जाते जाहिर हैं
हृदय परिवर्तन ढकोसला रंगों में माहिर हैं
घूमना आना जाना दिवा स्वप्न सा बन गया
सम्मान का तिलक गुलाल सवाल बन गया
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
बसंत पतझड़ उपरांत होली त्योहार प्रसंग
है पतन का पर्याय रूप तीज त्योहार उमंग
गिरगिट रंग समूचा बना जनजीवन का अंग
ईश्वर अर्पित टेसू पुष्प हाथ मलकर रह गया
मित्रता की गुलाल का मलाल शेष रह गया
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
होली पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
‘रंग में भंग’ डालना ही तो प्रकृति की परंपरा
‘शाह’ मिठाई की मिठास युक्त बंगाल की धरा
ममतामयी रोशोगुल्ला स्वाद चखा खरा खरा
रंग बदलती पूजा पद्धतियों से गर तू बच गया
फिर गुलाल भी हलाल बनकर जरा ठहर गया
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
मानो बुराई अंत हेतु अति निवेश कर गया।
होली तो आस्था मित्रता की परिचायक रही
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़
उद्योगपति :१९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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