डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
वाराणसी, काशी
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जहां कहीं एकता अखंडित, जहां प्रेम का स्वर है।
देश-देश में वहां खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।।
कविवर श्रेष्ठ दिनकर जी की पंक्तियां ‘एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है।’ सम्पूर्ण विश्व में भारत का एक अनुपम और अनूठा स्थान है, तो इसका बहुत सा श्रेय यहां की कालजई सभ्यता व संस्कृति का है, को प्राकृतिक रूप से हम सभी में विद्यमान है। प्रकृति की ही देन सारा विश्व है। भारत प्राकृतिक एवं भौगोलिक सुन्दरता को दृष्टि से विश्व का अनोखा और अद्भुत राष्ट्र है। लोक संस्कृति के सामाजिक पक्ष में त्योहार, रीति-रिवाजों, लोक प्रथाओं, सामाजिक मान्यताओं, मनोविनोद के साधनों की बहुलता व विविधता से हमारा भारतीय समाज ओत प्रोत है।
किसी भी समाज या राष्ट्र के परिष्कार की सुदीर्घ परंपरा होती है। उस परंपरा में प्रचलित उन्नत, उदात्त व उत्तम विचारों की श्रृंखला ही संस्कृति को गढ़ती है, जमीन हमारी जीवन पद्धति शामिल होती है। हमारी संस्कृति या यों कहें कि भारत भूमि विभिन्न पर्वों व त्योहारों से भरी पड़ी है। विविधताओं से परिपूर्ण इस पावन राष्ट्र में अनेक प्रकार के त्योहार मनाए जाते हैं, दीपावली उनमें से सर्व प्रमुख है, को किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण राष्ट्र में मनाया जाता है।तिमिर या अमावस की भयंकर काली रात में प्रकाश, स्वच्छता, धवलता व उज्जवलता की प्रतीक दीपावली का आगमन धनतेरस के पर्व से हो चुका है। कार्तिक अमावस की काली रात से घनी काली रात और कौन सी होगी? उस अंधेरी रात में कोटि-कोटि दीपमलिकाएं जगमगाकर मानों अंधकार को धरती छोड़ने के लिए ललकार रही है। धन-धान्य से लदी हुई है। इस वर्ष के प्रारंभ में ही वैश्विक महामारी कॉरोना का आतंक अभी समाप्त नहीं हुआ है। सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बेपटरी हुई है। ऐसे में आशा की किरण बनकर आई है दिवाली, यानी कि दीयों का पर्व, प्रकाश का पर्व, सभी के मन के तिमिर को व अज्ञानता को दूर करने का त्योहार।हमारे आशा का, सुख-समृद्धि का, ज्योति पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला है। हम वाराणसी में रहते हैं, यहां की बात करें तो केवल कल धनतेरस को सात अरब का कारोबार हुआ है, जो अर्थ व्यवस्था की मजबूती का संकेत दे रहा है। भारतीय जन मानस पूरी तरह से कोविड-१९ को हर मोर्चे पर हराने के लिए कटिबद्ध है, उसमे यह दीपों का त्योहार अपनी एक अलग भूमिका का निर्वहन कर रहा है। प्रत्यक्ष रूप से यह ज्योति का पर्व है। इस दिन हम भारत वासी दीपक जलाकर सभी के जीवन को प्रकाशित करने की मंगलकामना करते हैं। “सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामय:” की प्रार्थना करते हैं।
प्रकाश और प्रसन्नता के इस पावन त्यौहार पर शुक्ल पक्ष के साथ कुछ कालिमा के भी पुट सन्निहित हैं। ऐसे पुनीत अवसर पर बहुत से लोग जुआ खेलने में, शराब पीने में अपना धन व समय बर्बाद करते है। कुछ अति उत्साही युवक व किशोर बहुत ही ऊंची आवाज के पटाखों को छोड़कर पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, साथ ही ध्वनि प्रदूषण को भी बढ़ाते हैं और बेजुबान जानवरों, बुजुर्गों व बीमार लोगों के लिए बहुत बड़ी परेशानी पैदा करते हैं। वास्तव में यह सर्जना का पर्व है विनाश का नहीं। हमें इन कृत्यों से बचना चाहिए। पर्यावरण को सुरक्षित व संरक्षित रखना हम सभी का उत्तरदायित्व है, क्योंकि पर्यावरण स्वच्छ होगा तो हमारा जीवन स्वस्थ व सुरक्षित होगा। पहले यह बिजली को लड़ियां व झालर नहीं थे, पक्के मकान कम थे। कच्चे मकानों को दीवालों को पोतनी मिट्टी से पोता जाता था और नीचे की जमीन (फर्श) की लिपाई गाय के गोबर से कि जाती थी, जिससे सारे कीटाणु समाप्त हो जाते थे। सरसों, तिल्ली, नीम के तेल और देशी घी के मिट्टी के दीए जलाए जाते थे। परिवेश स्वच्छ व कीटाणु मुक्त हो जाता था।
वाइसवाइस आज भी दीपावली से ही कीट-पतंगों का जोर कम होता है।
भारतीय उत्सव, उल्लास, प्रसन्नता, श्रव्य व दृश्य-कला और भोजन परम्पराओं की विविधता से आप्लावित है। हर उत्सव के साथ नृत्य और गायन के विविध स्वरुपों की मौजूदगी, हमारी मजबूत मनोरंजन संस्कृति की वाहक है। जो हमें तनाव, अवसाद और सामाजिक विचलनों से अलग रखती है। उत्सव हर भारतीय के जीवन का मूल हिस्सा है। उत्सव हमें एकजुट रखते हैं। ये हमारे उत्सव ही हैं कि सबको एक-दूसरे की संस्कृति और परंपरा को जानने, समझने और जीने का अवसर मिलता है। इनमें सक्रिय भागीदारी ही हमें यह बताती है कि हम एक-दूसरे को कितना समझना व जानना पसंद करते हैं। यही हमारी सहिष्णुता, सद्भावना, सहचारिता, समरसता और सह-अस्तित्व की परिचायक है। यही वह शैली है जिसके जरिए विविधता एकता में रुपांतरित होती है। भाषा-बोली, खान-पान, रहन-सहन, वस्त्र-आभूषण और पूजा-पद्धति सब वैविध्य लिए उत्सवों में समरस होकर समाज में समाहित होने को लालायित रहते हैं। इतनी विविधता के बावजूद हम भारत में लोग एकजुट हैं इन्हीं महान सांस्कृतिक परंपराओं के कारण। ये ही हमें भारतीय बनाती हैं। पांच दिनों का यह महापर्व प्रकाश का उत्सव है। बुराई के अंधकार पर सच्चाई के प्रकाश के प्राकट्य का पर्व है ।
हमारा हर उत्सव हमारे सांस्कृतिक क्रिया-कलापों और रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का वाहक है। अपने उत्सवों के प्रति हम अपनी उमंग और उत्साह को इसीलिए कायम रख पाए हैं कि हमारी संस्कृति उदार मन से वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आयामों को समय और परिस्थितियों के हिसाब से समाहित करती रही है। इसलिए यह आज भी अपने मौलिक तत्वों के साथ उपस्थित है। दूसरी संस्कृतियों को सही समय पर सही निर्णय के साथ आत्मसात कर लेना ही इसकी समकालीनता और स्वीकार्यता को बढ़ाता है। समय के साथ चलते रहना भारतीय संस्कृति का अनूठापन है।
आइये हम सब मिलकर अपनी एकता, भाईचारा, आपसी सौहार्द्र, परस्पर सहयोग बनाये रखें और एक जुट होकर सरकार के दिशा-निर्देशों-मास्क, सेनेटाइजर, छह फीट की दूरी, जरूरी का अनुपालन करते हुए कोविड-१९ को हराएं। सभी को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।🙏🙏
परिचय :- डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
निवासी : वाराणसी, काशी
शिक्षा : एम ए; पी एच डी (मनोविज्ञान)
सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग श्री अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी जी कॉलेज
लेखन व प्रकाशन : कुछ आलेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित,आकाशवाणी से भी वार्ता प्रसारित।
शोध प्रबंध, भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद दिल्ली के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित। शोध पत्र का समय समय पर प्रकाशन, एवम पुस्तकों में पाठ लेखन सहित ३ पुस्तकें प्रकाशित।
पर्यावरण में विशेषकर वृक्षारोपण में रुचि। गाँधी पीस फाउंडेशन, नेपाल से ‘पर्यावरण योद्धा सम्मान’ प्राप्त।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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